आज भारत देश में वीर निर्वाण संवत्, विक्रम संवत् शालिवाहन शक अैर ईसवी सन् आदि कई संवत्सर प्रचलित हैं। इनके प्रथम दिवास को वर्ष का प्रथम दिन मानकर नववर्ष की मंगल कामनाएं की जाती हैं। जैन धर्मानुयायी महानुभावों को किस वर्ष का कौन सा दिवस नववर्ष का मंगलदिवस मानना चाहिए। यह विचारणीय है।
आज ईसवी सन् अत्यधिक प्रचलित है। प्रायः कलेंडर, तिथिदर्पण और डायरियों भी इसी सन् से छपने लगी हैं। वास्तव में अंग्रेजों ने अपने भारत पर शासन करके अपना ऐसा प्रभाव छोड़ा है कि उसे मिटाना असंभव है। खैर! कोई बात नहीं, 1 जनवरी से ईसवी सन् प्रारंभ होता है। इसे भी मान लीजिये-मना लीजिये कोई बाधा नहीं है।
कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा गुजरात में विक्रम संवत् को अधिक महत्व दिया जाता है। मैंने श्रवणबेलगोल में देखा, जो लोग वर्ष भर वहीं रहकर भी चैत्रवदी अमावस्या (दक्षिण व गुजरात के अनुसार फाल्गुन कृ. अमावस्या) की रात्रि में पहाड़ पर जाकर सोते हैं और प्रातः उठते ही भगवान बाहुबली का दर्शन कर नूतन वर्ष की मंगल कामना करते हुए नीचे उतरते हैं। चैत्र शुक्ला एकम् से विक्रम संतव् का नया वर्ष शुरू होता है।आज पंचांग इसी संवत् से चल रहे हैं।
अनेक वर्षों से वीरनिर्वाण महोत्सव की चर्चा जैन क्या जैनेतरों में भी सारे देश में फैल चुकी है। पच्चीस सौवां निर्वाण महोत्सव भी एक वर्ष तक जैन के चारों संप्रदाय के महारथियों ने आगे होकर मनाया जिससे जैन के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार खूब ही हुआ है। अब तिथिदर्पण भी ‘‘वीरनिर्वाण संवत्’’ से निकाले जानेलगे हैं। वैसे पं. नाथूलाल जी शास्त्री द्वारा सम्पादित ‘‘जैनतिथिदर्पण’’ बहुत पुराना प्रतीत होता है। यह कब से चालू हुआ है मुझे मालूम नहीं है, फिर भी यह प्रामाणिक माना जाता है।
आज जैन समाज में ही नहीं, जैनेतर समाज में भी वीरनिर्वाण दिवस की (दीपावली के दिन) रात्रि में गणेशपूजा और लक्ष्मी पूजा करके दुकान पर नूतन वसना और नूतन बही आदि बदलने की प्रथा है। इस दिन अनेक प्रबुद्ध जैने दुकान पर यन्त्र अथवा जिनवाणी रखकर भगवान महावीर की पूजा, सरस्वती की पूजा आदि करके मंगलाष्टक पढ़कर नूतन बहियों ओर वसनों पर स्वस्तिक, श्री आदि बनाकर ‘‘श्री महावीराय नमः’’ आदि मन्त्र लिखकर बही बदलने का मुहूर्त करके नया सम्वत् लिख देते हैं।
इस दिन लक्ष्मी - गणेश की पूजा के बारे में सही स्थिति का बोध कराने के लिए मैंने श्री गोतमगणधर की पूजा ओर केवलज्ञान महलक्ष्मी की पूजा ऐसी दोपूजायें बताई हैं, जम्बूद्वीप पूजांजलि में ये दोनो ंपूजायें छनही हुई है वहां स ेले सकते हैं क्योंकि कार्तिक कृ0 अमवस्या को प्रातः प्रत्यूष बेला में भगवान महावीर स्वामी नेपावापुरी से निर्वाण प्राप्त किया था उसी के उपलक्ष्य में स्वर्ग से इन्दों ने असंख्या देव-देवियों ने आकर यहां पावापुरी में भगवान का निर्वाणोत्सव मनाया था और पावापुरी में द्वीपों को जलकार उत्सव किया था उसी समय से आज तक प्रतिवर्ष अपने भारत देश में सांयकाल में सर्वत्र दीपक जलाकर ‘‘दीपमालिका’’, या दीपावली दिवस मनाया जाता है। जैसाकि हरिवंष्ज्ञपुराण में कहा भी है-
भगवान महावीर भी निरंतर सब ओर के भव्यसमूह को सम्बोधकर पावानगरी पहुंचे और वहां के ‘‘मनोहरोद्यान’’ नामक वन में विराजमान हो गये।।15।
जब चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे तब स्वाति नक्षत्र में कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन प्रातःकाल के समय स्वभाव में ही योग निरोध कर घातिया कर्मरूपी ईंधन के समान अघतिया कर्मों को भी नष्ट कर बन्धन रहत हो संसार के प्राणियों को सुख उपजाते हुए निरंतराय तथा विशाल सुख से सहित निर्बन्ध - मोक्ष स्थान को प्राप्त हुए।।16-17।।
गर्भादि पांचों कल्याणकों के महान अधिपति, सिद्धशासन भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय चारों निकाय के देवों ने विधिपूर्वक उनके शरीर की पूजा की।।18।।
उस समय सुर और असुर के द्वारा जलायी हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा।।19।।
श्रेणिक आदि राजाओं ने भी प्रजा के साथ मिलकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की तदनन्तर बड़ी उत्सुकता के साथ जिनेन्द्र भगवान के रत्नत्रय की याचना करते हुए इन्द्र देवों के साथ-साथ यथास्थान चले गये।।20।।
उस समय से लेकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त् संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे। भावर्थ-
उन्हीं की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे।।21।।
यह हुई दीपावली की बात, पुनः जो उसी दिन रात्रि में नूतन बही पूजन के साथ लक्ष्मी और गणेश की पूजा की प्रथा हैउसमें भी रहस्य है। उसी दिन भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद सायंकाल में श्री गौतमगणधर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था तत्क्षण ही इन्द्रों ने आकर उनकी गंधकुटी की रचना करके उनके केवलज्ञान की पूजा की थी। ‘‘गणनां ईषः गणेशः गणधरः’’ ये पर्यायवाची नाम श्री गौतमस्वामी के ही हैं। सब लोग इस बात को न समझकर गणेश और लक्ष्मी की पूजा करने लगे। वास्तव में गणधर देव की, केवलज्ञान महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। खासकर जैनों को तो यही नूतन वर्ष मानना चाहिए। कार्तिक शु0 प्रतिपदा (एकम) के दिन से ही तिथिदर्पण व कलेंडर छापना चाहिए।
वैसे मेरी दृष्अि से युगादि दिवस भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसकी तरफ प्रायः जैन धर्मानुयायियों का लक्ष्य नहीं है। यह मंगलमय दिवस है ‘‘श्रावण कृष्ण प्रतिपदा’’ यह प्रत्येक युग का आदि दिवस है इसलिये इसे ‘‘युगादिदिवस’’ कहा है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह-छह काल माने हैं। यथा-