‘‘देव दर्शन’’
भारत देश धर्म-निरपेक्ष देश है। यहां षड्दर्शनों की अपनी विशेषता है। इन षड्दर्शनों में जैनदर्शन एक अलौकिक, मुक्ति-मार्ग-प्रदर्शक उदार दर्शन है। इस दर्शन की अपनी सत्ता, अपनी विशेषता जगत्प्रसिद्ध है। जैन -दर्शन के अनुयायी ‘जिन’ के उपासक होते हैं। यहां मुख्य रूप से चर्चा करती है ‘जिनाभिषेक’ अर्थात् जिनेन्द्र प्रतिमा के अभिषेक की।
जिन-अभिषेक
जिनाभिषेक शब्द में दो शब्द हैं 1. जिन और 2. अभिषेक जि धातु ने नक् प्रत्यय लगकर जिन पद की उत्पत्ति हुई=जि$नक्=जिन अर्थातविजयी विजेता। किसका विजेत? पंचेछिय विषयों व चार कषायों का विजेता जिन है। जो अर्हन्त व तीर्थकर हैं।
अभिषेक=अभि समन्तात्$सिच्$घञ्=चारों ओर से उस देवता का जलादि से अभिषेक करना जिसकी पूजा की जा रही है।
अर्थात्क जिन $ अभिषेक = जिनाभिषेक।
जिनाभिषेक किसे कहते हैं? जिस जिनदेव की पूजा की जा रही है उसका जलादि से चारों तरफ से अर्थात् मात्र मार्जन नहीं, पूर्ण रूप से सेचन करना, पूर्णरूपेण अभिषेक करना ‘जिनाभिषेक’ है।
अभिषेक किनका?
जैनदर्शन में जिन जिसके देवता हैं ऐसा जैनी मानव अपने आराध्य के प्रति समर्पित हो तद्रूप होने की अमर भावना लिये आराधना में लीन होता है। जैनों के आराध्य ‘नव-देवता हैं - अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय - साधु - जिनागम - जिनधर्म - जिनचैत्य और जिनचैत्यालय। इन नवदेवताओं की आराधना विधि अपनी-अपनी भिन्न है। पांच परमेष्ठियां में साक्षात् अरहंत, सिद्ध का कोई अभिषेक कर नहीं सकता। आचार्य-उपाध्याय और साधु का मात्र चरण-प्रक्षालन हो सकता है, पूर्णाभिषेक नहीं। जिनागम का अध्ययन-मनन-चिन्तन हो सकता है अभिषेक नहीं। जिनधर्म को मात्र धारण किया जा सकता है। शेष रहे जिनचैत्य और चैत्यालय। इनमें भी चैत्यालय का अभिषेक नहीं किया जा सकताज। एक मात्र ‘जिनचैत्य’ ही ऐसे देव हैं जिनका साक्षात् अभिषेक किया जा सकता है। इस पंचमकाल में जिनचैत्य का आश्रय ले भव्यात्मा अभिषेक आदि शुभ क्रिया द्वारा सातिशय पुण्यार्जन करता हुआ सम्यक्त्व रत्ननिधि को प्राप्त करता है।
पुण्योपार्जन
धवलाजी महाग्रन्थ में वीरसेन आचार्य ने श्रावक के लिये पुण्योपार्जन व धर्म-प्राप्ति के चार आवश्यक कहे हैं -
1 - पूजा,
2 - दान
3 - शील
4 - उपवास।
नवदेताओं की आराधना पूजा करना श्रावक का प्रथम आवश्यक कहा है। ‘जिनाभिषेक’ पूजा का प्रथम अंग है। जिस प्रकार शरीर के आठ अंगों में एक अंग भी नहीं हो तो यह मानव अपने जीवन के लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर सकता, उसका जीवन अधूरा ही हैै। शरीर के अंगों में प्रत्येक अंग आवश्यक हैं। सम्यक्त्व के आठ अंगों में एक भी अंग हीन हो तो वह संसार का छेद करने में समर्थ नहीं हो सकता, ज्ञान के भी आठ अंगों में एक का भी अभाव हो तो पक्वता नहीं आ सकती, उसी प्रकार पूजा के भी पांच अंग हैं। उनकी भी अपनी अनिवार्यता आवश्यक है।
जिनाभिषेक पूजा का प्रथम अंग है। अभिषेक के बिना की पूजा अधूरी ही समझना चाहिए। सत्पुरूष क्रम का उल्लंघन नहीं करते हैं। क्रम के विधिवत् किया गया कार्य जीवन में सुख और शान्ति का प्रदाता है।
जैनशासन में अप्रकृत का निराकरण और प्रकृत का निरूपण करने के लिए निक्षेप विधि बताई गयी।सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में पूज्यवाद स्वामी लिखते हैं - ‘अप्रकृत निराकरणय प्रकृत निरूपणाय’ निक्षेप विधि। नाम-स्थापना-द्रव्य और भाव की अपेक्षा निक्षेप चार प्रकार के हैं। इन नाम निक्षेप में पूज्यपना नहीं है। स्थापना निक्षेप में पूज्यपना है। ‘जिनचैत्य’ में साक्षात् अर्हनत की स्थापना की जाती है और इसलिये कर्म-प्रक्षालन में जिनाभिषेक का अपूर्व महत्व भी है।
किसी का नाम ‘जिन’ रख दिया वह नाम जिन है, जिन प्रतिमा स्थापना जिन है, जिन जीव द्रव्य जिन हैं तथा समवसरण में विराजमान अर्हत देव भाव जिन हैं। ‘जिनाभिषेक’ का भाव हैं- स्थापना जिन अर्थात जिन-चैत्य का अभिषेक।
अभिषेक के चार भेद कहे गये हैं-
1 - नित्य अभिषेक
2 - महाभिषेक
3 - शान्ति-अभिषेक
4 - वृहद् शान्ति अभिषेक।
जिनाभिषेक क्यों?
हमारा प्रश्न है- जिनाभिषेक क्यों करें?
कोई कहते हैं - जिन प्रतिमा पर धूलि जम जाती हैं, अतः भगवान् गंदे, मैले, अपवित्र रजकण युक्त हो गये हैं, इसलिये उनको साफ करने के लिए अभिषेक या मार्जन करते हैं, पर यह विचारधारा नितान्त भ्रामक है, मिथ्या है। नित्य अभिषेक पाठ में कवि लिखते हैं-
जिन चैत्य में साक्षात् अर्हन्त भगवान् की हमने स्थापना की है। जिन मंदिर साक्षात् समवशरण है तथा जिन प्रतिमा साक्षात् अरहंत देव हैं। साक्षात् अरहंत तो कभी मलिन या अपवित्र हो नहीं सकते, अतः जिन भक्त जिनाभिषेक करता हुआ बार-बार विचार करता है- हे प्रभो! आज मुझे यह निश्चय हो चुका है कि आप तो सहज पवित्र ही हैं, यह अभिषेक मैं आपकी पवित्रता के लिये नहीं कर रहा हूं। अभिषेक मैं आपकी पवित्रता के लिये नहीं कर रहा हूं। अभिषेक करने का मूल कारण है-मैं राग-द्वेष-मोह, मिथ्यात्व आदि मल से मलिन हो रहा हूं, सप्तधातु से अपवित्रता शरीर में अष्ट कर्मों के वश दुखी हो रहा हूं, उस अपनी अपवित्रता को दूर करने के लिये मैं आपका अभिषेक या प्रक्षालन करता हूं।