।। जिनाभिषेक ।।

jain temple381

हे प्रभो! मैंने जिनेन्द्रदेव के गन्धोदक की आपने नेत्रों व ललाट पर वन्दना की, जिसके फलस्वरूप मेरे चिकाल से संचित पाप क्षणभर में दूर हो गये। हे जिनेन्द्रदेव! आपके चरण-कमल से संस्पर्शित यह पावन गन्धोदक संसार के जन्म-जरा-मृत्यु रूप ताप का हरण करने वाला जानकर मैंने आदर से धारण किया है। आपसे संस्पर्शित गंधोदक से सिक्त मेरे ये दोनों नेत्र आज सफल हो गये व मेरा जन्म ज्ञानीजनों के लिये गिनने योग्य हो गया है। मेरे द्वारा अपने मस्तक पर यह गन्धोदक धारण करने से मेरे शुभ कर्मों का आगमन हुआ तथा सत्पुण्यरूपी पंज आपकी पूजा से मुझे प्राप्त हुआ।

निम्न पद्य भी बोला जा सकता है-

निर्मलं निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम्।
श्री जिनगन्धोदकं वन्दे अष्टकर्म विनाशनम्।।
या
निर्मलं निर्मली करणं पावनं पापनाशनम्।
श्री जिनचरणोदकं वन्दे, सर्वदोष-विनाशनम्।।

गन्धोदक कहां लगाना

श्री दान शासन ग्रन्थ में आचार्य वासुपूज्य जी लिखते हैं-

गंधांमः सुममर्हदंध्रि-युग-संस्पर्शात्पवित्रीकृतम्।
देवेन्द्रादि-शिरो-ललाट-नयनान्यासोचितं मगलम्।।
तेने स्पर्शनतस्त एव सकलाः पूताः अभोगोचितम्।
भाले नेत्रयुगे च मुध्र्नि तथा सर्वैर्जनैर्धार्यताम्।।

भगवान के चरणें में किया अभिषेक का जल (गन्धोदक) अरिहन्त भगवान् के पावन चरणों के स्पर्श से पवित्र हो जाता है, अतएव देव-मनुष्यादि के द्वारा ललाट-मस्तक व नेत्रों में धारण करे/लगाने योग्य है। इसके स्पर्शमात्र से ही पूर्व में अनेक जन पवित्र हो चुके हैं। इसलिये इन गन्धोदक को भव्यजीव सदा ललाट-नेत्रयुगल व मस्तक पर धारण करें/लगावें।

गन्धोदक लगाने का फल्

इन स्थानों पर गन्धोदक लगाने का फल-

सिद्धक्षेत्री-गतीच्छ्यैव निटिले गन्धोऽर्चितो लिप्यते।
दृष्टि-ज्ञज्ञन विशुद्धयेऽर्चितजलं दृष्टिद्वये षिच्यते।।

जिनाभिषेक से प्राप्त गन्धोदक को ललाट पर लगाने का भाव है- हमारा सिद्धालय में शीघ्रगमन हो। दोनों नेत्रों में लगाने का प्रयोजन है सम्यग्दर्शन की हमारे विशुद्धि हो तथा मस्तक पर लगाने का उद्देश्य है निर्मल सम्यग्ज्ञान की हमें प्राप्ति हो। इस प्रकार गन्धोदक लगाने का सुफल है आत्मतत्व की सिद्धि और रत्नत्रय की प्राप्ति।

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