अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त तीर्थंकर अनन्त चतुष्टयों से मण्डित होते हैं। अनन्त काल, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य-अर्हनत भगवान् के अनन्त चतुष्टय हैं।
अनन्त ज्ञान - अनन्त अर्थात् कभी भी अंत न होनेवाला सीमातीत ज्ञान-अनन्त ज्ञान है। यह समस्त ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है।
अनन्त दर्शन - जिस दर्शन का कभी भी अंत या विनाश न हो वह अनन्त दर्शन है। यह दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है।
अनन्त सुख- अन्त और विच्छेद से रहित इन्द्रियातीत सुख-अनन्त सुख है। यह मोहनीय कर्म कर्म के क्षय से प्राप्त होता है।
अनन्त वीर्य - जिस वीर्य का कभी भी अन्त न हो वह अनन्त वीर्य है। यह अन्तराय कर्म के क्षय से प्रकट होता है।
समस्त तीर्थंकर उपर्युक्त अनन्त चतुष्टयों से युक्त रहते हैं तथा जीवन के अंत में शेष अघातिया कर्मों को नष्ट कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करते हैं।
चैबीस तीर्थंकरों के विशेष परिचय के लिए देखें परिशिष्ट।