।। जिनाभिषेक ।।

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सेवा से मेवा

महानुभावों ! अभिषेक-पूजा आदि शुभ कार्य स्वयं को करना होगा तभी सुख व शांति मिल सकेगी। दूसरों से अभिषेक-पूजा कराने से आपको सुख-शान्ति मिलने वाली नहीं है। क्षुधा-पीडि़त व्यक्ति को स्वयं भोजन करना होगा, तभी भूख् की बाधा मिट सकती है। दूसरे के भोजन करने से आपी क्षुधा नहीं मिटने वाली है। पुत्र-प्राप्ति की इच्छा है तो पुरूषार्थ आपको करना होगा, रोग होने पर दवा स्वयं को लेनी होगी तभी रोग शांत होगा। ठीक इसी प्रकार जीव के साथ अनादिकाल से जन्म-जरा-मृत्यु व अष्टकर्म आदि रोग लगे हुए हैं, इनकी शान्ति के लिये तथा जीवन में सुख समृद्धि व संतोष की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन स्वयं को जिनाभिषेक करना होगा। जैसे दूसरों के खाने-पीने से अपनी क्षुधा-तृषा मिट नहीं सकती, वैसे दूसरों से अभिषेक-पूजा कराने से स्वयं के सुख-शान्ति नहीं मिल सकती, ‘‘करेगा सेवा पावेगा मेवा’’। और भी पाश्र्वनाथ स्तुति में पढ़ते हैं - ‘‘करे सेव ताकी करे देव सेवा’’।

अशुभ की शान्ति कैसे हो?

संसारी जीवों से शुभाशुभ कर्म निरन्तर होती ही रहते हैं। अशुभ स्वप्न और अशुभ कार्यों की शुद्धि के लिये प्रायशिचत शास्त्रों में विविध विधान लिखे हैं। कभी-कभी अनिष्टसूचक अशुभ स्वप्न आने से जीव आकुलित हो जाते हैं। आचार्य लिखते हैं - 1- अशुभ स्वप्न के फल जिनाभिषेक करने से मन्द हो जाते हैं या नष्ट भी हो जाते हैं। अतः अशुभ स्वप्न आने पर अनिष्टनिवाकर 11-29-39 कलशों से जिनाभिषेक करना चाहिए। विशेष अशुभ की सम्भावना हो तो वृहद् शान्ति अभिषेक, शान्ति पूजा करने से कर्मफल मंद होता है।

इसी प्रकार कोई अशुभ कार्य हो जाये , व्रतों में दोष आदि लग जावे तो प्रायश्चित रूप से विशेष 11-29-108 कलशों से अभिषेक करने का विधान है। विशेष जानकारी के लिये चर्चासागर ग्रन्थ का स्वाध्याय करें।

वर्तमान में अभिषेक विधि गौण होती जा रही है। यह ठीक नहीं है। जिन प्रतिमाओं का जितना अधिक अभिषेक होता रहेगा उतना ही उनमें अतिशय बढ़ेगा। जिनालयों की शोभा जिन-बिम्बों से है तथा जिन बिम्बों की शोभा मन्दिर में होने वाले नित्य उत्सवों - अभिषेक, शान्ति- अभिषेक, पूजा, विधान आदि से होती है।

गन्धोदक

जिनाभिषेक का जो जल है उसे ‘‘गन्धोदक’’ कहते हैं। गन्धोदक शब्द का सामान्यतः अर्थ होता है- ‘‘सुगन्धित जल’’। यहां सुगन्धित जल का अर्थ मात्र सुगन्ध नहीं है। सुगन्धित जल के दो सन्दभ हैं -

1 - बाल तीर्थंकर का समेरू पर्वत पर जन्माभिषेक होता है उ जल को भी गन्धोदक कहा गया है।

2 - जिनेन्द्र प्रतिमा के अभिषेक में जिन-प्रतिमा से संस्पर्शित जल को भी गन्धोदक कहते हैं।

जिनेन्द्रदेव का शासन जिनशासन है। जिनशासन में गन्धोदक की अपूर्व महिमा का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में पाया जाता है-

माननीया मुनीन्द्राणां जगतामेकपावनी।
साव्याद् गन्धाम्बुधारास्यान् य स्म व्योमापगायते।।

भगवत् जिनसेन आचार्य महापुरण ग्रन्थ में लिखते हैं- ‘‘जो मुनीन्द्रों के लिये भी आदरणीय है तथा जो संसार को पवित्रता प्रदान करने में अनुपम है’’ ऐसी आकाशगंगा के समान प्रतीत होने वाली गन्धोदक की धारा हमारी रक्षा करे।

जो जिनेन्द्र भगवान् के चरण-कमलों से संस्पर्शित गन्धोदक को अपने शरीर पर संस्पर्शित करता/लगता है उसे पापमल का नाश होता है और संसाररूपी महाव्याधि का नाश क रवह पवित्र भावनाओं को प्राप्त करता है। श्रीपालचरित्र में आचार्य संकलकीर्तिजी ने लिख है- गन्धोदक के लगाने से श्रीपाल आदि 700 कुष्टियों का कुष्टरोग दूर हो कंचन जैसी काया बन गई थी।

गजपंथा में आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज की अंगुली में सर्प ने डस लिया था। आचार्यश्री ने तुरन्त अपनी अंगुली गन्धोदक में डाल लिया था। आचार्यश्री ने तुरन्त अपनी अंगुली गन्धोदक में डाल दी। कुछ ही क्षण में वह विष उत्तर गया।

शान्तिपाठ में गन्धोदक की महिमा का गान करते हुए लिखा है-

मुक्तिश्रीवानिता-करोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकम्,
नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्र-चक्रपदवी-राज्याभिषेकोदकम्।
सम्यग्ज्ञान-चरि-दर्शनलता संवृद्धि सम्पादकम्
कीर्ति श्री जयसाधक तव जिन ! स्नानस्य गन्धोदकम्।।

हे जिनेन्द्रदेव! आपके अभिषेक से पवित्र गन्धोदक भव्य जीवों को साक्षात् मुक्तिलक्ष्मी रूपी स्त्री के हाथों से गृहीत जल प्रतीत होता है। पुण्यभावरूपी अंकुर को उत्पन्न करता है, नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्र-चक्रवर्ती आदि पदों पर राज्याभिषेक कराने वाला है, सम्यदर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक रत्नत्रय-रूपी लता की संवृद्धि करता है तथा कीर्ति समृद्धि व विजय का साधक है।

जिन गन्धोदक भव्य जीवों को कीर्ति व सकुशलता को करने वाला, उत्कृष्ट बल प्रदाता, आरोग्यवर्द्धक, दीर्घायुकारक, सुख-प्रदाता, सर्वव्याधि, विष, ज्वर आदि निवारक तथा मोक्षलक्ष्मी का समागम कराने वाला तथा अष्टकर्मनाशक उत्कृष्ट निधि है।

गन्धोदक प्रदान करते समय निम्न श्लोक बोलना चाहिए-

यत्प्रसादाद्धि चारित्र रत्नसाध्यमुच्यते।
भूतो भवन्तो भव्याश्चय प्रणम्य गुरूपादयोः

जिनकी कृपा से चारित्ररत्नरूपी रत्न की प्राप्ति सरलता से हो जाती है तथा जिन त्रिलोक गुरू परमात्मा के चरणों में प्रणाम करके तीनों कालों में चरित्र पालन करने वाले साधना में प्रवृत्त हुए हैं और होंगे-उनहीं जिनेन्द्रदेव का यह गन्धोदक है।

गन्धोदक लेने की विधि

गन्धोदक लेने के पूर्व आराधक को अपने दोनों हाथ शुद्ध प्रासुक जल से धोना चाहिये फिर तीन बार गन्धोदक की वन्दना करके निम्नलिखित छन्द बोलकर उसे लगाना चाहिए-

नत्वा परीत्य निजनेत्रललाटयोश्च,
व्याप्त क्षणेन हरतादघसंचय में।
शुद्धोदकं जिपते! तव पादयोगात्,
भूयाद् भवातपहरं धृतमादरेण
इमें नेत्र जाते सुकृत जलसिक्ते सल्लिते,
ममेदं मानुष्यं कृतीजनगणादेयमभवत्।
मदीदयाद् भालाद् शुकर्मांटनमभूतू।
सदेदृक् पुण्यौधो मम भवतु ते पूजनविधौ।।
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