।। बारह भावना ।।
मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।

अनुप्रेक्षा जिनागम का सर्वाधिक चर्चित विषय है। प्रथमानुयोग के तो प्रत्येक ग्रन्थ में इनका प्रसंगानुसार वर्णन होता ही है; किन्तु इस विषय पर स्वतंत्ररूप से भी अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे दिग्गज आचार्यों ने भी इस विषय पर स्वतंत्ररूप से लिखना आवश्यक समझा। प्रथमानुयोग और स्वतंत्र ग्रन्थों के अतिरिक्त भी सम्पूर्ण जिनागम में यथास्थान इस विषण पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

जिनागम में प्राप्त सम्पूर्ण अनुपे्रक्षा साहित्य को एकत्रित किया जाय तो एक विशाल संदर्भ-ग्रंथ तैयार हो सकता है।

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हमारे इस अनुशीलन का उद्देश्य अनुप्रेक्षा-साहित्य का परिशीलन करना नहीं है और न उनका संदर्भ-ग्रंथ तैयार करना ही है। हम तो जिनागम के आलोक में अनुपे्रक्षाओं के स्वरूप का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना चाहते हैं, आध्यात्मिक जीवन में इनके चिन्तन की आवश्यकता एवं उपयोगिता का तर्कसंगत विश्लेषण करना चाहते हैं। अनुप्रेक्षा साहित्य की प्रतिपादनशैली का मूल दृष्टिकोण एवं मूल केन्द्रबिंदु का अनुसंधान ही हमारा अभीष्ट है।

बारह प्रकार की होने से अनुपे्रक्षाओं की अधिकांशतः ‘बारह भावना‘ के नाम से ही जाना जाता है। लोक में सर्वाधिक प्रचलित नाम ‘बारह भावना‘ ही है, अनुप्रेक्षा नाम को विद्वत्समाज के अतिरिक्त बहुत कम लोग जानते हैं।

पद्यमय बारहभावनाओं का गाना, गुनगुनाना हमारी धर्मशील माता-बहिनों की दिनचर्या का मुख्य अंग है। आध्यात्मिक-धार्मिक जनों का याह सर्वाधिक प्रिय मानसिक भोजन है।

जिन बारह भावनाओं को स्वामी कार्तिकेय भवियजणाणंद जणणीयो अर्थात् भव्यजीवों के आनंद की जननकी कहते हों तथा सर्वश्रेष्ठ आचार्य कुन्दकुन्द जिन्हें मुक्ति का साक्षात् कारण निरूपित करते हों; उन बारह भावनाओं का जन-जन की वस्तु बन जाना सहज ही है, स्वाभाविक ही है

बारह भावनाओं का माहात्म्य व्यक्त करनेवाला आचार्य कुन्दकुन्द का कथन इसप्रकार है -

‘‘किं पलविष्ण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले।
सिज्झिहहि जे वि भविया तज्जाणह तस्स माहप्पं।।

इस विषय में अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ है, बस इतना समझना कि भूतकाल मे जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्य में भी जो भव्यजीव सिद्ध होंगे-यह सब इन बारह भावनाओं का ही माहात्म्य है।‘‘

आचार्य पद्यनन्दि भी इन्हें कर्मक्षय का कारण बताते हैं -

‘‘द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः।
तद्भावना भवत्येव कर्मणां क्षयाकारणम्।।
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महान पुरुषों को बारह भावनाओं का सदा ही चिन्तवन करना चाहिए; क्योंकि उनकी भावना कर्मों के क्षय का कारण होती ही है।‘‘

बारह भावनाओं के चिंतन के लाभ गिनाते हुए शुभचन्द्राचार्य लिखते हैं -

‘‘विध्याति कषायाग्नि विगलितरागो विलीयते ध्वान्तम्।
उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्।।

इन बारह भावनाओं के अभ्यास से जीवों की कषायरूपी अग्नि शांत होजाती है, राग गल जाता है, अंधकार विलीन हो जाता है और हृदय में ज्ञानरूपी दीपक विकसित हो जाता है।‘‘

पंडित दौलतरामजी छहढाला में लिखते हैं -

‘‘मुनि सकलव्रती बड़भगी, भव-भोगन तें वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई।।
इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै।।

जिसप्रकार माँ पुत्र को उत्पन्न करती है; उसी प्रकार बारह भावनाएँ वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली हैं। यही कारण है कि सांसारिक भोगों से अत्यंत विरक्त बड़भागी (बड़े भाग्यवान) महाव्रतधारी मुनिराज भी इनका चिन्तवन करते हैं।

जिसप्रकार हवा के लगने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है; उसीप्रकार इन बारह भावनाओं के चिंतन से समतारूपी सुख जागृत हो जाता है। जब यह जीव अपनी आत्मा को जानता है, पहचानता है और उसी में जम जाता है, रम जाता है; तब ही अतीन्द्रिय आनंद को, परिपूर्ण दशा मुक्ति को प्राप्त करता है।‘‘

अनुप्रेक्षा अर्थात् चिंतन, बार-बार चिंतन। किसी विषय की गहराई में जाने के लिए उसके स्वरूप का बार-बार विचार करना ही चिंतन है। यद्यपि चिन्तन वस्तुस्वरूप के निर्णय के लिए किया जाता है; तथापि यदि विषय रुचिकर हो तो निर्णीत भी बार-बार चिंतन का आधार बनता है।

चिंतन ध्यान का प्रारम्भिक रूप है। रुचि ध्यान की नियामक होने से चिंतन की भी नियामक है। जो विषय हमारी रुचि का होता है, उस पर सहज ही ध्यान जाता है, उसका चिंतन-मनन भी सहज ही चलता है। किसी विषय को जानने की इच्छा (जिज्ञासा) भी चिंतन को प्रेरित करती है। जिज्ञासा जितनी प्रबल होगी, उसी के अनुपात में चिंतन भी गंभीर होगा। अतः चिंतन शोध-खोज (रिसर्च) का आधार भी बनता है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि चिंतन किसी विषय को समझने के लिए भी होता है और समझे हुए विषय का भी।

अनुप्रेक्षा चिंतनस्वरूप होने से ज्ञानात्मक है, ध्यानात्मक नहीं।

अनुप्रेक्षा और ध्यान का अंतर स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं -

‘‘स्यादेतदनुपे्रक्षाऽपि धम्र्मध्यानेऽन्तर्भवतीति प्रथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न, किं कारणम्? ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात्। अनित्याादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदानुपे्रक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिंतानिरोघस्तदा धम्र्मध्यानम्।

अनुप्रेक्षाओं का धर्मध्यान में अन्तर्भाव हो जाने से उनका पृथक् कथन करना उचित नहीं है - यदि कोई ऐसा कहे तो उसका कथन ठीक नहीं है; क्योंकि अनुप्रेक्षाएँ ज्ञानप्रवृत्ति-विकल्परूप हैं। अनित्यादि विषयों का चिंतन जब ज्ञानरूप होता है, त बवह अनुप्रेक्षा कहलाता है और जब अनित्यादि विषयों में चित्त एकाग्र होता है, तब धर्मध्यान नाम पाता है।‘‘

वैराग्योत्पादक तत्त्वपरक चिंतन ही अनुप्रेक्षा है। आवश्यकता मात्र चिंतन की नहीं, वैराग्योत्पादक चिंतन की है, तत्त्वपरक चिंतन की है। ऐसा कौनसा संज्ञी (मनसहित) प्राणी है, जो चिंतन से रहित हो ? पर सामान्यजनों के चिंतन का विषय प्रयः पंचेन्द्रिय के विषय ही रहते है; कषायचक्र ही उनकी चिंतनधारा का नियामक होता है।

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