।। भव के नाश की निशंकता ही धर्म ।।
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प्रवचन-6

भव के नाश की निशंकता ही धर्म

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव द्वारा जो मोह-राग-द्वेषरूप शत्रुओं को जीत ले, वही जैन है।

एक क्षण भी जैनधर्म को अंगीकार करे तो अल्पकाल में अवश्य मुक्ति प्राप्त हो - ऐसी जैनधर्म की महिमा है।

राग से पार होकर, ज्ञान के अपूर्व अंतर उद्यम द्वारा ही जैनधर्म का निर्णय होता है। जिसके अंतर में राग की किंचित् भी मिठास है, वह जीव वीतरागी जैनधर्म का निर्णय नहीं कर सकता।

धर्म उसे कहते हैं, जिससे भव के नाश की निःशंता हो जाए और भव का भय दूर हो जाए। जहां भव के नाश की निशंकता नहीं ह, वहां धर्म हुआ ही नहीं। पुण्य में ऐसी शक्ति नहीं है कि भव का नाश कराये.... या निशंकता दे।

(श्रीअष्टप्राभृत, गाथा 83 का मुख्य प्रवचन)

राग से पार चैतन्यमूर्ति आत्मा का अनुभव-श्रद्धा-ज्ञान होने के पश्चात् भी धर्मात्मा को जिनेन्द्र भगवान की पूजा-भक्ति तथा व्रत, स्वध्यायादि का शुभराग आता है। जिन्हें अभी वीतरागी देव-गुरु-धर्म के प्रति पूजा-भक्ति, बहुमान का शुभभाव भी नहीं है और मात्र पापभाव में ही डूबे हैं, उनकी तो यहां बात ही नहीं है, क्योंकि उन्हें न तो आत्मा के हित की गरज ही है और न ऐसा उपदेश सुनने का वे अवकाश निकालते हैं। यहां तो जिन्हें आत्मा का हित करने की भावना जागृत हुई है, वीतरागी देव-गुरु-धर्म की ओर भक्ति-बहुमानपूर्वक की वृत्ति है, उन्हें धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाते हैं। जो समझकर अपना हित करना चाहते हैं, उन्हें समझाते हैं।

धर्मी को होने वाला शुभराग भी धर्म नहीं

देवपूजा, गुरुसेवा, शास्त्रस्वाध्याय आदि गृहस्थों के छह कार्य कहे गए हैं। सम्यक्त्वी धर्मात्मा को उन कार्यों के करने का भाव आता है, उनमें जो शुभराग है, वह पुण्य है; जिनशासन में उस राग को धर्म नहीं कहा है। उस राग के समय धर्मी को अरागी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो शुद्धभाव है, वही धर्म है, वही मोक्ष का साधक है और जो राग है, वह तो बाधकभाव है, दोष है। धर्मी, स्वयं उसे धर्मरूप नहीं मानते हैं।

जो राग को धर्म मानता है, उसके तो श्रद्धा-ज्ञान भी मिथ्या है; इसलिए उसे तो एकांत अधर्म है। धर्म क्या वस्तु है? उसकी उसे खबर ही नहीं है। जहां सम्यग्दृष्टि के शुभराग को भी पुण्यबंध का कारण कहा है, वहां मिथ्यादृष्टि की तो बात ही क्या? सम्यग्दृष्टि को भी शुभराग है, वह धर्म का कारण नहीं है तो फिर वह शुभराग, मिथ्यादृष्टि को धर्म का साधन कैसे हो सकता है? दया -दानादि के शुभपरिणाम से मिथ्यादृष्टि को परित संसार हो जाता है - ऐसा उपदेश जिनशासन का नहीं है किंतु मिथ्यादृष्टि का है। उपासकाध्ययन में श्रावकों के आचार के वर्णन में व्रतों का तथा जिनदेव की भक्ति-पूजा, गुरु की उपासना, स्वध्याय, दानादि का जो वर्णन है, वह सब शुभराग भी पुण्य है; धर्म नहीं है। धर्म तो अंतरस्वभाव में से प्रगट हुआ मोह-क्षोभरहित शुद्धभाव ही है।

ऐसा है जिनशासन!

देखो, यह जिनशासन! चिदानन्दस्वभाव के अंतर-अनुभव से सम्यग्दर्शन होते ही अनादि कालीन दर्शनमोह का तथा अनन्तानुबंधी कषायरूप क्षोभ का नाश हुआ, वहां जिनशासन का प्रारंभ हुआ। मोह तथा क्षोभ के अभावरूप जो सम्यग्दर्शनादि शुद्धपरिणति हुई, उसका नाम धर्म है। ऐसे शुद्धभाव द्वारा जिनशासन को पहिचानना चाहिए....। जहां सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव है, वहीं जिनशासन है।

कौन मानते हैं पुण्य को धर्म?

इस गाथा के भावार्थ में आज से डेढ सौ वर्ष पहले पण्डित जयचंदजी कहते हैं कि ‘लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभ क्रियाओं में और व्रतक्रियासहित है वह जिनधर्म है परंतु ऐसा नहीं है। जिनमत में जिन भगवान ने इस प्रकार कहा है कि पूजादिक में और व्रतसहित होना है वह तो पुण्य है....।’ पूजा-व्रतादि का शुभराग, वह पुण्य है। लौकिकजन तथा अन्यमती ही उसे धर्म मानते हैं, किंतु जिन शासन में तो उसे धर्म नहीं कहा है।

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जीवदया का राग, वह जैनधर्म नहीं; पुण्य है

लौकिकजन तथा अन्यमती ऐसा मानते हैं कि जैनधर्म में हरियाली आदि की दया पालने को कहा है; इसलिए जैनधर्म की श्रेष्ठता है किंतु वह कहीं जैनधर्म का सच्चा स्वरूप नहीं है। अहिंसादि व्रत में परजीव की दया के शुभभाव के द्वारा ब्राह्यदृष्टि लोग जैनधर्म को पहिचानते हैं किंतु वह वास्तव में जैनधर्म नहीं है; वह तो पुण्य है, बंधन है।

किसी भी परजीव को नहीं मारने के लिए कहा है, वह जिनशासन की महत्ता है - ऐसा मिथ्यादृष्टि मानते हैं। परजीव की दया पालने का शुभराग, धर्म है - ऐसा जो मानते हैं, वे मिथ्यात्व के पोषक हैं, क्योंकि राग, जैनधर्म नहीं है; जैनधर्म तो वीतरागभाव है।

जिनशासन का अहिंसाधर्म

लोग कहते हैं कि ‘भाई, जगत में जैनियों की अहिंसा बहुत ऊँची है! जैनधर्म तो अहिंसावादी है।’ यह सच है, किंतु अहिंसा का स्वरूप तो इस प्रकार कहा है - ‘राग-द्वेष-मोहरूप भावों द्वारा जीव के चैतन्यप्राण का घात होता है; इसलिए वे राग-द्वेष-मोहरूप भाव ही हिंसा है और उन राग-द्वेष-मोहरूप हिंसकभावों की उत्पत्ति ही न होना अहिंसाधर्म है।’ - ऐसा अहिंसाधर्म है। ऐसा अहिंसाधर्म कब होता है? जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव प्रगट होने पर राग-द्वेष-मोहभावों की उत्पत्ति रुकती है। इसलिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो वीतरागी शुद्धभाव है, वही जिनशासन का अहिंसाधर्म है और ऐसी यथार्थ अहिंसा जिनशासन में ही है; इसलिए जिनशासन में ही है; इसलिए जिनशासन की श्रेष्ठता है। परजीव की दया का शुभराग, वह कहीं अहिंसाधर्म नहीं है। जीवमात्र पर दया के शुभराग को जो अहिंसाधर्म मानता है, वह जिनशासन को नहीं जानता, वह लौकिकजन अर्थात् मिथ्यादृष्टि है - ऐसा जानना चाहिए।

अहो जैनधर्म! तेरी महिमा!!

अहो! जैनधर्म तो वीतरागी है। ऐसे धर्म के निर्णय में उग्र पुरुषार्थ चाहिए, उग्र ज्ञान चाहिए। राग से पार होकर ज्ञान के अपूर्व अंतर उद्यम द्वारा ही ऐसे जैनधर्म का निर्णय होता है। एक क्षण भी जैनधर्म को अंगीकार करे तो अल्पकाल में अवश्य मुक्ति प्राप्त कर ले - ऐसी जैनधर्म की महिमा है। उसके लिए आत्मा के स्वभाव की आकांक्षा तथा रुचि की तल्लीनता आवश्यक है। जिसके अंतर में राग की किंचित भी मिठास/महिमा है, वह जीव, वीतरागी जैनधर्म का निर्णय नहीं कर सकता। आँख में किरकिरी तो कदाचित् समा सकती है किंतु धर्म में राग का अंश भी नहीं समा सकता। धर्म में राग नहीं और राग में धर्म नहीं - दोनों वस्तुएं पृथक्-पृथक् हैं। धर्म की भूमिका में राग भी साथ होता है किंतु जो राग है, वह स्वयं धर्म नहीं है।

जिनशासन के अतिरिक्त अन्य किसी मत में तो धर्म है ही नहीं; वे सब तो धर्म के विपरीत हैं। उनकी बात तो दूर रही, परंतु जिनशासन में भी पुण्य के भाव को भगवान ने धर्म नहीं कहा है। जिनशासन में कहे हुए व्यवहारनुसार भगवान ने धर्म नहीं कहा है। जिनशासन में कहे हुए व्यवहारनुसार भगवान की पूजा-व्रतादि शुभराग करता है और उस राग से ही अपने को धर्मी मानता है, वह जीव मिथ्यादृष्टि है; उसे जिनशासन के सच्चे स्वरूप का पता नहीं है।

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