पूज्य गुरूदेवीश्री कानजीस्वामी के प्रवचन सागर में से चुने हुए अनमोल मोती
जिनशासन, जिनधर्म, जैन धर्म
जैनशासन अर्थात् वस्तु का स्वरूप
जैनशासन तो वस्तु का स्वरूप है। जैन अर्थात् अंदर जो यह धु्रव ज्ञायकभाव विराजमान है, जो कभी रागरूप, जड़रूप मलिनतारूप नहीं हुआ - ऐसे ज्ञायकस्वभाव के सन्मुख होकर, उसे ज्ञान और दृष्टि में लेने वाले को जैन कहते हैं। जैन, कोई बाड़ा आवा बेष नहीं है, यह तो वस्तुस्वरूप है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-98)
अज्ञान को जीतना ही जैन धर्म
जैन धर्म कोई क्रियाकांड अथवा संप्रदाय नहीं है। वस्तु के स्वभाव की दृष्टि करके, अज्ञान और राग-द्वेष को जीतने का नाम जैनधर्म है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-224)
जैन शासन का रहस्य
भगवान आत्मा नित्य मुक्तस्वरूप, शुभाशुभभावरहित त्रिकाल शुद्ध चैतन्य वस्तु है - ऐसे आत्मा को अभ्यन्तरज्ञान से, अर्थात् भावश्रुतज्ञान से अनुभव करना, शुद्धोपयोग है और वह वीतरागीपर्याय ही जैनधर्म है। राग रहित वीतरागीदशा ही जैनशासन है और वही जैनधर्म का रहस्य है। समस्त जैनशासन का रहस्य, उस (अनुभवी) आत्मा ने जान लिया है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-259)
शुद्धोपयोग ही जिनशासन
प्रत्येक आत्मा का द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाल एकरूप ही है। जो भगवान हुए हैं, वे ऐसे आत्मा का पूर्ण आश्रय करके, पूर्ण निर्मलपर्याय प्रगट करके हुए हैं। शुद्धोपयोग द्वारा जिनस्वरूप भगवान आत्मा में रमणता करना, उसे जानना, अनुभव करना, इसे भगवान ने जिनशासन कहा है। यह जिनशासन पर्याय में है, द्रव्य में नहीं। यह पूर्ण जिनस्वरूप आत्म को ग्रहण करने वाला, शुद्धोपयोग ही जिनशासन है। परमेश्वर का मार्ग है।
स्याद्वाद का आशय
जिसने अबद्धस्पृष्ट आदि स्वरूप आत्मा को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। पर्यायदृष्टि में आत्मा को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। पर्यायदृष्टि में आत्मा को बद्धस्पृष्ट अन्य-अन्य स्वस्थारूप, अनियत, भेदरूप और रागरूप देखता है, वह जैनशासन नहीं है, वह तो अजैनशासन है। यह सेठ लोग करोड़ों का दान करते हैं, कोई भक्ति-पूजा करते हैं, दया-व्रत पालन करते हैं, वह कोई जैनशासन अथवा जैनधर्म नहीं है। वीतराग की वाणी स्वाद्वादरूप है; इसलिए यदि कहीं राग को भी धर्म कहा है -ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह है कि वीतरागता से धर्म और राग से भी धर्म हो - स्वाद्वाद का यह आशय नहीं है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-260)
कुन्दकुन्दप्रभु की दिव्यदेशना
धर्म धुरन्धर, धर्म के स्तंभ -ऐसे कुन्दकुन्दाचार्यदेव, जिनका मंगलाचरण में तीसरा नाम आता है, वे जो कहते हैं, उसे एकबार पूर्वाग्रह छोड़कर सुन! कि अंतर में एकरूप परमात्मत्व सामान्यस्वभाव निर्लेप भगवान हैं, उसे जानना, उसकी प्रतीति और रमणता करना - ऐसा जो शुद्धोपयोग है, वह जैनशासन है।
सर्वज्ञस्वभाव का अनुभव ही जैनशासन
वीतरागी शुद्धात्मा का अनुसरण करके जो अनुभव होता है, वह अनुभूति मोक्षमार्ग है, उसने वस्तु को जान लिया जान लिया है, फिर विकल्प आवे तो शास्त्र पढ़ता है परंतु ऐसे जीव को शास्त्रपठन की कोई अटक नहीं है। भाई! ऐसा अद्भुत मार्ग है। अरे! भगवान का विरह पड़ा और सब लोग झगड़ो में पड़ गए हैं। कोई कहता है - शुभराग से धर्म होता है, तो कोई शुभराग करते-करते धर्म होना मानता है, बहुत विपरीतता हो गयी है, परंतु क्या हो सकता है? सर्वज्ञता तो प्रगट हुई नहीं और सर्वज्ञस्वभाव का अनुभव है नहीं। यहां कहते हैं कि सर्वज्ञस्वभाव का अनुभव ही शुद्धोपयोग और जैनशासन है, जैनधर्म है। जैनधर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है, यह तो वस्तु का स्वरूप है।
व्यवहार अथवा राग, जैनशासन नहीं
जो यह अबद्धस्पृष्ट आदि पांच भावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, अर्थात् पांच भावस्वरूप आत्मा को शुद्धोपयोग द्वारा देखता है, जानता है, अनुभव करता है, वह वास्तव में समस्त जिनशासन का अनुभव है - यह जैनमार्ग है, मोक्ष मार्ग है। कोई कहे कि इसमें कहीं राग अथवा व्यवहार तो आया ही नहीं? उससे कहते हैं भाई! व्यवहार अथवा राग, जैनशासन ही नहीं है। जब तक पूर्ण वीतरागता नहीं है, तब तक साधक को राग आता अवश्य है परंतु वह जैनधर्म नहीं है। जैन शासन तो शुद्धोपयोगमय वीतरागीपरिणति है - वही जैनधर्म, जैनशासन है। श्री जयसेनाचार्य की टीका में लिया है कि आत्मपदार्थ का वेदन-अनुभव-परिणति ही जैनशासन, अर्थात् जैनमत है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-261)
जैन शासन: अनाकुल सुख का स्वाद
वस्तु, जो ज्ञायकस्वरूप है, उसे ज्ञान में लेकर अंतर में ध्यान करते हैं, उसके मन के विकल्प-राग विश्राम पा जाते हैं अर्थात् हट जाते हैं। जब मन शांत हो जाता है, तब अतीन्द्रिय आनन्द के रस का स्वाद आता है। परिणाम अंतरनिगग्न होने पर अनाकुल सुख का स्वाद आता है, उसे अनुभव, अर्थात् जैनशासन कहते हैं।
(प्रवचनरत्नाकर 1-263)
स्वज्ञेय में तीन परिणति ही जिनशासन
पांच द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और इंद्रियों के विषयभूत पदार्थों को, इन तीनों को इंद्रिय गिना गया है। इन तीनों को जीतकर, अर्थात् इनकी ओर का झुकाव - रुचि छोड़कर, इनसे अधिक, अर्थात् भिन्न अपने ज्ञानस्वभाव का - अतीन्द्रिय भगवान आत्मा का अनुभव है, वज जैनशासन है। अपने स्वज्ञेय में ली है - ऐसी यह अनुभूति, अर्थात् शुद्धोपयोगरूप परिणति ही जैनशासन है।
इससे विरुद्ध अज्ञानी को परिपूर्ण स्वज्ञेय की अरुचि है और इंद्रियों का खंड-खंडरूप जो ज्ञेयाकार ज्ञान है, उसकी रुचि और प्रीति है, वह परज्ञेयों में आसक्त है; इस कारण उसे ज्ञान का स्वाद नहीं आकर, राग का, आकुलता का स्वाद आता है। राग का स्वाद, राग का वेदन अनुभव में आना, यह जैनशासन से विरुद्ध होने से अधर्म है। शुभक्रिया करना और वह करते-करते धर्म हो जाएगा - ऐसी मान्यता मिथ्याभाव है तथा शुभाशुभराग से भिन्न अंतर आनन्दकन्द भगवान आत्मा को ज्ञेय बनाकर ज्ञायक के ज्ञान का वेदन करना वह जिनशासन है, धर्म है।
जिनधर्म जयवंत वर्तता है
जैनधर्म किसे कहना? तो कहते हैं कि भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभाव से परिपूर्ण, ज्ञान और आनन्द भरपूर अथवा वीतराग-स्वभाव से भरपूर प्रभु है, उसकी परिणति में अर्थात् पर्याय में वीतरागता की दृष्टि, ज्ञान और शांति प्रगट होना, जैन धर्म है। मुनिराजों ने तो यहां तक कहा है कि वह जैनधर्म जयवंत वर्तता है, अर्थात् यह ज्ञायक प्रभु, मेरा नाथ मुझे हाथ आया है, मुझे वीतरागी समकित, वीतरागी ज्ञान, वीतरागी रमणतारूप जैनधर्म जयवंत वर्तता है और वह जैनधर्म प्रगट है।
(प्रवचनरत्नाकर 1-65)
आत्मा की सेवा ही जैनधर्म
कोई कहता है - यह कैसी बात है? क्या जैन में भी ऐसी बात होती है? अपने जैन में तो कन्दमूल नहीं खाना, रात्रि भोजन नहीं करना, सामायिक करना, प्रतिक्रमण करना, प्रौषध करना, उपवास करना इत्यादि आता है। यहां कहते हैं कि यह जैनधर्म नहीं है, यह तो राग की /विकार की क्रियाएं हैं। पर्याय को अंतर्मुख करके एकाग्रता के बिना ज्ञान और आत्मा एकरूप है - ऐसी प्रतीति नहीं आती; इसने आत्मा की, अर्थात् ज्ञान की सेवा ही नहीं की है। दीन-दुखियों की, दरिद्रियों की मानवसेवा अथवा भगवान की सेवा करने की तो बात ही नहीं है। यहां तो भगवान आत्मा चैतन्यस्वभाव से भरपूर है - ऐसा जिसने अंतर्मुख होकर पर्याय में जाना, उसने आत्मा की सेवा की कहलाती है और वही जिनधर्म है - ऐसी बात है।
(प्रवचनरत्नाकर 2/44)
जैनदर्शन, अर्थात् वस्तुदर्शन
सम्यग्दृष्टि धर्मी को आत्मा का स्वाद रुचिकर है। रुचिकर, अर्थात् आनन्द का देने वाला। रुचि-श्रद्धा-प्रतीति की व्याख्या यह है कि इसे प्रत्येक आत्मा के आनन्द का स्वाद आया वह रुचि, श्रद्धा, प्रतीति है - यही जैनधर्म है। देखो, जैनदर्शन तो वस्तुदर्शन है। सबको इकट्ठा करके विश्वधर्म... विश्वधर्म कहते हैं, परंतु वह विश्वधर्म है ही नहीं। भगवान सर्वज्ञदेव द्वारा कथित एक ही मार्ग विश्वधम-जैनधर्म है। इसका दूसरे किसी धर्म के साथ मेल नहीं है। भाई! किसी को ठीक लगे या न लगे परंतु वस्तु तो यह है।
(प्रवचनरत्नाकर 2/78)
इंद्रिय-विजेता ही जैन
केवली की वाणी में भी जिसका संपूर्ण वर्णन नहीं आ सकता - ऐसी अमूल्य वस्तु आत्मा है, ऐसे आत्मा को स्वयंमेव अंतर में अनुभव में आने पर असंगपने द्वारा इंद्रिय के विषयों से भिन्न किया। जिसने पर से अधिकपने, अर्थात् भिन्नपने पूर्ण आत्मा को जाना संचेतन किया और अनुभव किया, उसने इंद्रियों के विषयों को जीता। जड़ इद्रियां, भावेन्द्रियां और उसके विषयभूत पदार्थ - ये तीनों ज्ञान के परज्ञेय हैं। इन तीनों को जिसने जीता, अर्थात् जो इन सबसे भिन्न हुआ, वह जिन हुआ, जैन हुआ। स्व-पर की एकता बुद्धि द्वारा वह अजैन था; अब, पर से भिन्न होकर निर्मलपर्याय प्रगट करके वह जितेन्द्रिय जिन है।
(प्रवचनरत्नाकर 2/128)
जैनदर्शन अर्थात् विश्वदर्शन
बापू, जैनदर्शन तो विश्वदर्शन है। विश्वदर्शन, अर्थात् छह द्रव्य स्वरूप जो विश्व है, उसे यथार्थ जाननेवाला और उसे बतलाकर पर से जीव की भिन्नता दिखानेवाला यह सत्य दर्शन है।
वीतरागपरिणति ही जैनधर्म
अहो! श्री कुन्दकुन्दाचार्य और श्री अमृतचन्द्राचार्य ने जैनधर्म का प्रवाह बहाया है। वे कहते हैं कि शुभभाव रूप राग, जैनधर्म नहीं है। जैनधर्म तो एक वीतरागभाव ही है; वीतरागीपरिणति ही जैनधर्म है परन्तु वीतरागी परिणति के साथ धर्मी को जो शुभभाव का राग है, वह पुद्गल है, क्योंकि वह पुद्गल के विपाकपूर्वक होता है। वस्तु, आत्मा तो स्वभाव से शुद्ध चैतन्यमय है।
(प्रवचनरत्नाकर 3/90)
अहो! अलौकिक जैनदर्शन
आत्मा तो वस्तुरूप से प्रसिद्ध/मौजूद है परंतु पर्यायबुद्धि में वह प्रसिद्ध/ढका हुआ है और इसलिए अज्ञानी को वह है ही नहीं। वर्तमान अंश और राग के प्रेम में अज्ञानी ने चैतन्यस्वभावी आत्मा को मरणतुल्य कर दिया है परंतु अपनी परिणति द्वारा जब वह जानने में आता है, तब वह जीवती ज्योत प्रगट हुई है - ऐसा कहते हैं। ऐसी बात है जैनदर्शन की! अहो! जैनदर्शन अलौकिक है!! जैनधर्म, अर्थात् क्या ? जैनधर्म, अनुभूतिस्वरूप, अर्थात् वीतरागस्वरूप है। अहा.... हा! जैन उसे कहते हैं कि जिसने राग को जीता है और पर्याय में वीतरागता प्रगट की है - ऐसा जैनधर्म! परंतु आया बनियों के हाथ बनिए व्यापार में कुशल हैं, इसलिए बस व्यापार में ही पड़ गए हैं। बेचारों को समझने की फुर्सत नहीं है, इसलिए यह किया और वह किया; इस प्रकार बाहर की क्रियाएं कीं परंतु भाई! यह सब तो अज्ञान की होली है।
(प्रवचनरत्नाकर 3/223)
आत्मानन्द का भोगी ही जैन
आत्मा पर का कर्ता नहीं है और जो अपने को राग का कर्ता मानता है, वह भी वास्तव में जैन नहीं है। जो अपने को राग का कर्ता मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है; जैन नहीं। धर्मी जैन तो आनन्द का कर्ता होकर आनन्द को भोगता है, अनुभव करता है। भाई! जैन कोई सम्प्रदाय नहीं, यह तो वस्तु का स्वरूप है। कहा है न कि -
भगवान आत्मा वीतरागस्वरूप है, उसकी जहां दृष्टि और अनुभव हुआ, तो वह ज्ञानी, राग का कर्ता नहीं होता; अपितु उसका जानने वाला ज्ञाता रहता है और वह जैन है।
(प्रवचनरत्नाकर 4/166)
नामधारी जैन को भी रात्रि-भोजन नहीं
धर्मी को रात्रि भोजन का त्याग होता है। जैन नाम धारने वाले को भी रात्रि भोजन आदि नहीं होता। रात्रि भोजन करने में तीव्र लोलुपता का और त्रस-हिंसा का महादोष होता है; इसलिए जैन नामधारी को भी रात्रि का खानपान इत्यादि नहीं होता । आम के आचार इत्यादि जिसमें त्रसजीवों की उत्पत्ति हो जाती है - ऐसा आहार भी जैन को नहीं हो सकता । यह सब व्यवहार के विकल्प हैं, परंतु यह धर्म नहीं है।
(प्रवचनरत्नाकर 5/87)
आत्मानुभूति ही जैनशासन
भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट है, उसे जाननेवाली पर्याय जैनशासन है। अबद्धस्पृष्ट आत्मा के आश्रय से प्रगट होने वाली वीतरागी पर्याय ही जैनशासन है। उसे द्वादशांग और समस्त जैनशासन का ज्ञान हुआ है - ऐसा कहा है क्योंकि द्वादशांग में जो कहना चाहते हैं, वह इसमें जान लिया है। द्वादशांग का अभ्यास भले ही न हो परंतु अबद्धस्पृष्ट की दृष्टि होने पर जो आत्मनुभूति प्रगट हुई, वही जैनशासन है। ऐसे जैनशासन की पर्याय चैथे गुणस्थान में प्रगट होती है।
(प्रवचनरत्नाकर 5/96)
किसे कहते हैं जैन?
जैन तो उसे कहते हैं कि जो यह मानता है कि जड़ की अनन्त परमाणुओं की जो पर्याय जिस काल में जो होनेवाली हो, वह उससे होती है, मुझसे नहीं और जो रागादि-विकारी भाव होते हैं, वह भी मेरी वस्तु नहीं है; मैं तो एकमात्र ज्ञातादृष्टा हूं। अहा हा! ऐसा जो अंतरंग में मानता हूं, वह जैन है; शेष अब अजैन हैं।
(प्रवचनरत्नाकर 5/207)
यह तो नामधारी जैन को भी शोभा नहीं देता
इस लहसुन और प्याज के छोटे से टुकड़े में असंख्य शरीर हैं, प्रत्येक शरीर में अनन्त जीव हैं; उन्हें तेल में डालकर तलने से उन जीवों को होने वाले दुःख का क्या कहना? यह सब कन्दमूल अनन्त काय अभक्ष्य हैं, जैन अथवा आर्य को ऐसा भोजन नहीं हो सकता , किंतु अरे ! इन्हें तलकर खाएं । यह तो नामधारी जैन को भी शोभा नहीं देता। भाई! स्वरूप को भूलकर तू भी इस प्रकार अनन्त बार तला गया है, अनन्तबार खाया गया है। भगवान् ! तू अपने को भूल गया है।
(प्रवचनरत्नाकर 5/340)
अनुकंपा के परिणाम भी जैनशासन नहीं
अहा हा! सदा मुक्तस्वरूप ऐसे भगवान आत्मा में अंतदृष्टि करके उसका अनुभव करना ही जैनशासन है। राग का अनुभव, वह कहीं जैन शासन नहीं है। यहां तो वीतरागशासन लेना है न ! इसलिए अरहंत आदि के प्रति अनुराग और जीवों के प्रति अनुकम्पा के परिणाम भी शुभराग है, किंतु वीतरागशासन नहीं।
(प्रवचनरत्नाकर 6/22)
अनन्त तीर्थंगरों द्वारा कथित सनातन सत्य
भाई! अनन्त तीर्थंकर केवली, गणधर, संत और मुनिवर उपकार करके कह गए हैं कि अनादिकालीन यही मोक्ष का मार्ग है । - यही सनातन सत्य दिगम्बर दर्शन, अर्थात् जैनदर्शन है। भाई! दिगम्बर जैन कोई वेष अथवा वाडा नहीं है। वह तो वस्तु का स्वरूप है। अहा हा! बाहर से शरीर पर वस्त्र का धागा तो नहीं रखे किंतु अंतर में सूक्षम विकल्प की वृति अपनी है, भली है - ऐसा माने तो वह दिगम्बर साधु नहीं है - ऐसी बात है। अहो ! दिगम्बरत्व, यह कोई अद्भुत आलौकिक वसतु है। वीतरागता कहो या दिगम्बरत्व कहो दोनों एक ही है।
(प्रवचनरत्नाकर 6/101)
व्यवहार से भी जैन कौन?
बहुत गंभीर बात है प्रभु! भगवान जैन परमेश्वर तो व्यवहार से भी जैन उसे कहते हैं कि जिसे वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरू और उनके द्वारा प्ररूपित धर्म भी वीतरागी ही होता है - ऐसा वास्तविक श्रद्धान है। अंतरंग जैनपना तो कोई अलौकिक चीज है भाई! यह कोई साम्प्रदायिक चीज नहीं है। समझ में आया।
(प्रवचनरत्नाकर 6/117)
भगवान त्रिलोकनाथ की वाणी का मर्म
भगवान त्रिलोकीनाथ की वाणी का यह मर्म है कि रागादि भी अन्य कर्म है, आत्मा नहीं। भाई! जैनशासन कोई बाड़ा नहीं है, वस्तु का स्वरूप है। भगवान ! तू मुक्तस्वरूप है और जो शुद्धोपयोग में आत्मा मुक्तस्वरूप ज्ञात हुआ, वह शुद्धाोपयोग ही जैनशासन है।
(प्रवचनरत्नाकर 6/265)
कागबीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग
अहा! सम्यग्दृष्टि धर्मी अभी प्रथम श्रेणी का जैन है। जिसने अपने जैन परमेश्वर प्रभु आत्मा को अंदर में देखा है और इंद्र का इंद्रासन तथा चक्रवर्ती की सम्पदा को कौए की बीट समान तुच्छ मानता है, वह इनकी इच्छा से विरक्त हो गया है। अहा! यह सम्यग्दर्शन है बापू! अपनी निज सम्पदा, स्वरूप सम्पदा के समक्ष इंद्र के भोगादि सब आपदा है, दुःख है - ऐसा उसे भासित होता है। इंद्रासन का सुख भी दुःख है भाई! तो धर्मी दुःख की भावना क्यों करेगा? अहा! ऐसा जैनपना प्रगट होना कोई अपूर्व वस्तु है बापू! लोग तो साधारणरूप से यह मान लेते हैं कि हम जैन हैं परंतु बापू! जैनपना तो स्वरूप के आश्रय से जो पर की वांछा जीत लेता है, उसे है।
(प्रवचनरत्नाकर 7/492)
वीतरागी संतों की मंगल वाणी
कोई पंडित यह कहता है कि आत्मा पर का नहीं कर्ता है या नहीं कर सकता है -ऐसा मानने वाला दिगम्बर जैन नहीं है।
अरे भगवान! तू क्या कहता है यह ? महान दिगम्बर आचार्य भगवान कुन्दकुन्दादि तो यह कहते हैं कि मैं पर पर क्रिया कर सकता हूं, जिसे ऐसा अध्यवसाय है, वह मिथ्यादृष्टि है और ऐसे अध्यवसाय से जो रहित है, वही जैन है, समकित है। भाई, तेरी बात में बहुत अंतर है बापू! जरा गहराई में जाकर संशोधन कर।
(प्रवचनरत्नाकर 8/183)
भेदज्ञान के बिना जैनत्व नहीं
ये बनिया लोग मानते हैं कि हम जैन हैं परन्तु उन्हें पता ही नहीं कि जैन क्या है? बापू! भेदज्ञान-सम्यग्ज्ञान के बिना कहीं जैनपना नहीं होता। जो भेदज्ञान के द्वारा समकित प्रगट करता है, वज हैन है। भाई! जैसे थैली में चिरायता भरा हो तो ऊपर नाम शक्कर लिख देने के अंदर शक्कर नहीं हो जाती; इसी प्रकार जैन नाम रखकर अंदर सम्यक्त्व के बिना किसी को भी जैनपना नहीं हो जाता।
(प्रवचनरत्नाकर 8/430)
निरपराधदशा ही जैनधर्म
आत्मवस्तु सच्चिदानन्दस्वरूप प्रभु शुद्ध चिदानन्द कन्द है, उसमें पर के निमित्त से उत्पन्न होने वाले हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप के भाव और दया-दानादि पुण्य के भाव - ये सब परद्रव्य हैं, परभाव है। इस समस्त परभावों की दृष्टि छोड़कर शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना, अर्थात् शुद्ध आत्मा में ही दृष्टि लगाना, उसे ही ज्ञान का ज्ञेय बनाना और उसमें लीनता करना; तभी निरपराधता होती है, जिसका नाम जैनधर्म है।
(प्रवचनरत्नाकर 8/477)
निर्मल रत्नत्रय ही जैन धर्म की सेवा
जैनधर्म की सेवा अर्थात् क्या? अहाहा... ! शुद्ध एक ज्ञायकभाव के आश्रय से निर्मल रत्नत्रय के परिणाम प्रगट करें, एक शुद्धोपयोगरूप परिणमे, वही जैनधर्म की सेवा है। अन्य दया दान और बाहर की प्रभावना के कार्यों मंे ही रुका रहे, वह कहीं जैनधर्म की सेवा नहीं है।
(प्रवचनरत्नाकर 9/29)
राग का अकर्तापना ही जैनधर्म
भाई! धर्म कोई अलौकिक चीज है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् श्रावकधर्म और मुनिधर्म प्रगट हो, वह तो महाअलौकिक वसतु है, परंतु लोगों ने इसे क्रियाकांड में कैद कर दिया है। जैसे, कोई चिरायते की थैली पर शक्कर नाम लिख दें; उसी प्रकार सामायिक प्रौषध और व्रत आदि राग की क्रियाओं में लोग धर्म मानने लगे हैं और अपने को जैन श्रावक तथा जैन साधु मानते हैं, परंतु बापू जहां राग का कर्तृत्व खड़ा है, वहां श्रावकधर्म अथवा मुनिधर्म तो क्या; समकित होना भी संभव नहीं है। राग मेरा कर्तव्य है - ऐसा जिसने माना है, वह तो अज्ञानी कर्ता हुआ, वह कहां जैन हुआ। यह कर्तापना मिटे बिना जैनपना प्रगट ही नहीं होता।
(प्रवचनरत्नाकर 9/270)
स्वरूप में एकत्व से ही जैनत्व का प्रारंभ
आत्मा शुद्ध चैतन्यमय सदा परमस्वरूप प्रभु है। उसकी दृष्टि करनेवाल सम्यग्दृष्टि जैन है, किंतु दया, दान आदि के राग से - पुण से धर्म माननेवाला जैन नहीं, अपितु अजैन है। जैन कोई सम्प्रदाय नहीं है भाई! शरीर और राग का क्रियाकाण्ड, वह जैनपना नहीं है बापू! इनकी एकता बुद्धि टूट जाए और स्व-स्वरूप की परमस्वरूप की एकता हो जाए, वहीं से जैनत्व प्रारंभ होता है।
(प्रवचनरत्नाकर 10/302)
यह जैनशासन का रहस्य है
कोई लौकिकजन व अन्यमती कहते हैं कि पूजादिक शुभक्रियाओं में तथा व्रतसहित होना, वह जैनधर्म है - परंतु ऐसा नहीं है। जिनमत में जिन भगवान ने यह कहा है कि पूजादिक में तथा व्रतसहित होना तो पुण्य है। इसमें पूजा तथा आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्त्य आदि समझना। इनका फल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है, वह जैनधर्म नहीं है। देखो, यह जैनशासन का रहस्य है।
(प्रवचनरत्नाकर 11/230)
धर्मधारा के सहज प्रहरी
अहो! पंचम काल के मुनियों ने भी धर्म की धारा को खंडित नहीं होने दिया है। सर्वज्ञ केवली भगवंतों के भावों को ज्यों का त्यों टिका रखा है। मुनिराज तो धर्म के स्तंभ हैं, उन्होंने मोक्षमार्ग को टिका रखा है। स्वयं स्वभाव की और राग की भिन्नता का अनुभव करके जगत् को भी वह भिन्नता दिखलाते हैं।
(-आत्मभावना, पृष्ठ 292)