।। सर्वज्ञ की आज्ञा.... संतों का आदेश ।।
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प्रवचन-8

सर्वज्ञ की आज्ञा.... संतों का आदेश

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध वीतरागीभाव ही सच्चा धर्म है और उसी की प्राप्ति का जिनशासन में उपदेश है - ऐसा जैनधर्म ही भव का नाशक और मोक्ष का दाता है; इसलिए हे भव्य जीवों! तुम आदरपूर्वक ऐसे जैनधर्म का सेवन करो....!

शुद्धपरिणाम, वह आत्मा का धर्म है, उसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों आ जाते हैं किंतु राग उसमें नहीं आता। यह शुद्ध रत्नत्रय वीतरागीभाव ही सर्वशास्त्रों का तात्पर्य है, वही जिनशासन है, वही सर्वज्ञनाथ की आज्ञा है और वही संतों का आदेश है.... इसलिए उसी को श्रेयरूप जानकर, उसकी आराधना करो।

(श्रीभावप्राभृत, गाथा 83 पर प्रवचन)

जैनधर्म कहां रहता होगा?

जैनधर्म अर्थात् आत्मा का सच्चा धर्म। आत्मा का यथार्थ स्वभाव ही जैनधर्म है। जिसके ग्रहण से अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है - ऐसा आत्मा का शुद्धभाव, वह जैनधर्म है। जैनधर्म कहां रहता होगा? जैनधर्म आत्मा के शुद्धभाव में रहता है; इसके अतिरिक्त शुभाशुभभाव में या जड़े के भाव में जैनधर्म नहीं रहता।

जड़भाव में धर्म-अधर्म नहीं

प्रत्येक पदार्थ के अपने-अपने ‘भाव’ होते हैं। जड़ में भी उसका जड़भाव होता है। ‘जड़भाव से जड़ परिणमे, चेतन चेतनभाव’ - इस प्रकार दोनों पदार्थों में अपने-अपने भाव हैं। अब कौन-सा भाव धर्म है, वह यहां बतलाना है।

जड़-पुद्गल के अपने स्पर्शादिभाव होते हैं। पुद्गल में एक पृथक् परमाणु हो, उसे शुद्ध कहा जाता है, किंतु उससे कहीं सुख नहीं होता तथा पुद्गल में स्कन्ध, वह विभावपर्याय है। किंतु उस विभाव से कहीं उसे दुःख नहीं है; इस प्रकार पुद्गल तो स्वभाव में हा या विभाव में हो, उसे सुख-दुःखरूप भाव नहीं हैं; इसलिए उस जड़ के भाव में कहीं धर्म या अधर्म नहीं है।

अब, यह जीव के भावों की बात है। जीव के भाव तीन प्रकार के हैं - अशुभ, शुभ और शुद्ध। मिथ्यात्व, हिंसा आदि भाव हैं, वे अशुभ हैं। पूजा-व्रतादि, पुण्यभाव हैं, वे शुभ हैं किंतु यह अशुभ और शुभ, दोनों भाव पर के आश्रय से होते हैं; इसलिए उन भावों में धर्म नहीं है।

वे विभावभाव आकुलतारूप होने से जीव को दुःखरूप है और अपने स्वभावाधीन प्रगट हुए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव हैं, वे आत्मा के स्वभावरूप हैं, उनमें रागादि का अभाव है; अनाकुल शांतिरूप होने से वे भाव जीव को सुखरूप है, इसलिए उन सुखरूप शुद्धभावों की उपादेयता बतलाकर यहां कहा है कि शुद्धभाव ही जैनधर्म है, वही आदरणीय है और पुण्य , जैनधर्म नहीं है।

धर्म-अधर्म, जीव के भावों से ही है

जीव को गुण-दोष का कारण अपने भाव हैं। गुण-दोष अर्थात् धर्म-अधर्म, जीव को अपने भाव से ही होते हैं; इसलिए हे जीव! तू अपने भावों को पहिचान ! कौन-सा भाव तुझे हितरूप है और कौन-सा अहितरूप है? - यह जानकर हितरूप भावों को ग्रहण कर और अहितरूप भावों को छोड़! इसके अतिरिक्त शरीरादि जो जड़ हैं, उस जड़े में कहीं तेरा धर्म या अधर्म नहीं है। पुद्गल में उसका जड़रूपभाव है किंतु सुख-दुःख के वेदनरूप भाव उसमें नहीं है। पुद्गल में सुगन्धपयार्य हो या दुर्गन्धपर्याय हो, उससे कहीं उसे सुख या दुःख नहीं है तथा उससे जीवन को सुख-दुःख हो - ऐसा भी नहीं है।

जीव को जड़ के कारण सुख-दुःख नहीं होते, किंतु अपने भाव से ही सुख-दुःख होते हैं। सुख-दुःख रहित- ऐसे पुद्गल द्वारा जीव अपने को सुखी-दुःखी मानता है - यह कैसी भ्रमणा है!! शरीर की निरोग अवस्था से जीव को सुख हो और रोग अवस्था से दुःख हो - ऐसा नहीं है किंतु यह वस्तु मुझे अच्छी और यह बुरी - ऐसा जो राग-द्वेषरूप विभाव है, वहीं दुःख है। पर के प्रति अशुभराग हो या शुभराग हो, उन दोनों में आकुलता है, दुःख है, उसका फल बंधन है; उसमें धर्म नहीं है। निराकुल शांतपरिणामस्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, वह सुख है, वही धर्म है और उसका फल मुक्ति है। इस प्रकार जीव के भावों से ही भगवान ने धर्म-अधर्म कहा है। उसमें भी जीव के सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों को ही जिनशासन में धर्म कहा है; उसके बदले जो शरीर की क्रिया आदि जड़ के कारण धर्म मानते हें, वे तो जड़ जैसे ही हैं, उनकी तो बात ही क्या? किंतु जो शुभराग से धर्म मानते हैं, उन्हें भी जैनशासन का पता नहीं है।

साधक दशा में जितना रागांश है, वह बंध का ही कारण है। राग तो आस्रव और बंध का कारण है, उसके द्वारा किंचित्मात्र संवर-निजरारूप धर्म नहीं होता। चैतन्यस्वभाव के आश्रय से वीतरागभावरूप शुद्धभाव प्रगट हो, वही धर्म है।

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देखो! यह जिनशासन में धर्म की रीति!! ऐसा जैनधर्म ही भवभ्रमण का अंत कर देता है, इसके अतिरिक्त व्रत-पूजादि के शुभाभाव को लौकिकजन और अन्यमती धर्म कहते हैं, परंतु उसमें कहीं भवभ्रमण का अंत करने की शक्ति नहीं है; इसलिए जिसे भवभ्रमण से छूटना हो, उसे तो ऐसे शुद्धभाव को ही जैनधर्म जानकर उसका सेवन करना चाहिए। जो व्रत-पूजादि शुभराग को धर्म कहते हैं, वे लौकिकजन/अन्यमती हैं, उन्हें लोकोत्तर जैनधर्म का पता नहीं है। लोकोत्तर दृष्टिवाले जिनेन्द्रदेव तथा धर्मात्मा संत, राग को धर्म नहीं मानते; अपितु शुद्धपरिणाम को ही धर्म मानते हैं। सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि से जो मार्ग निकला और उसे झेलकर कुन्दकुन्दाचार्यदेव आदि संतों ने जो मार्ग बतलाया, वही यह मार्ग है, यही जैनशासन है; इससे विरुद्ध माननेवाले सभी अन्यमत हैं।

शास्त्रों का तात्पर्य ... संतों का आदेश

आत्म का ज्ञान-दर्शनस्वभाव है। वे ज्ञान-दर्शनपरिणाम अपने स्वभाव में स्थिर रहें, इसका नाम धर्म है। शुभ-अशुभराग के कारण तो ज्ञान-दर्शन का उपयोग चंचलरूप होकर क्षोभ को प्राप्त होता है; इसलिए किसी प्रकार के रागादिभाव, धर्म नहीं है। राग-द्वेष-मोह द्वारा मलिन न हों - क्षोभित न हों - अस्थिर न हों और राग-द्वेष-मोहरहित होकर, अपने शुद्धस्वरूप में ही स्थिर रहे - ऐसे शुद्धपरिणाम, वह आत्मा का धर्म है; सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तीनों इसमें आ जाते हैं किंतु राग उसमें नहीं आता। यह शुद्ध रत्नत्रयरूप वीतरागभाव ही सर्वशास्त्रों का तात्पर्य है, यही जिनशासन है और इसी को संत धर्म कहते हैं; बीच में राग रह जाए, वह तात्पर्य नहीं है, वह जिनशासन नहीं है, उसे संत, धर्म नहीं कहते।

सम्यक्त्वी का पुण्य भी धर्म नहीं।

प्रश्न: मिथ्यादृष्टि का पुण्य तो धर्म नहीं है, किंतु सम्यक्त्वी का पुण्य तो धर्म है न?

उत्तर पुण्य मिथ्यादृष्टि का हो या सम्यग्दृष्टि का हो, वह कोई धर्म नहीं है; वह तो आस्रव है। समयसार में कहते हैं कि - छठवें गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संत को व्यवहारप्रतिक्रमणादि का जो शुभविकल्प है, वह निश्चय से विष है। यदि वह धर्म होता, अमृत होता, तो मुनिवर उसे छोड़कर निर्विकल्प कैसे होते? इसलिए समझो कि धर्मी का राग भी पुण्य है; धर्म नहीं है। धर्म तो वीतरागी शुद्धभाव ही है। अहो, एक ही नियमरूप और एक ही धाराप्रवाहरूप जैनमार्ग त्रिकाल चल रहा है।

धर्म की नींव की बात

अहो! एक बार ऐसी दृष्टि तो करो... आत्मा का यथार्थस्वभाव क्या वस्तु है? उसे लक्ष्य में तो लो! मैं रागरहित चिदानन्दस्वभावी हूं- ऐसा आत्मस्वभाव का यथार्थ लक्ष्य होगा तो उस जाति का पुरुषार्थ बढ़ेगा, किंतु राग को ही हितरूप मान ले तो राग से पृथक् होकर वीतरागता का पुरुषार्थ, वह किसके लक्ष्य से करेगा? इसलिए यह धर्म की नींव की बात है।

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