।। जिनशासन का रहस्य ।।
jain temple125

धर्म की भूमिका में शुभभाव भले ही आए, किंतु वह धर्म नहीं है और वह करते-करते धर्म हो जाएगा - ऐसा भी नहीं है। राग को कहीं धर्म कहा हो तो वहां उसे आरोपित कथन, उपचार कथन, लौकिक रूढि़ का कथन समझना चाहिए, किंतु उस राग को वास्तव में धर्म नहीं समझना चाहिए। धर्म तो उस समय के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव को ही समझना चाहिए।

धर्म का एक ही प्रकार

जिस प्रकार सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प प्रतीतिरूप एक ही प्रकार का है। सम्यग्दर्शन को दो प्रकार का अर्थात् सराग तथा वीतराग, कहना सो व्यवहारमात्र है; उसी प्रकार मोक्षमार्ग भी शुद्धभावरूप एक ही प्रकार का है। एक शुद्धभावरूप और दूसरा शुभरागरूप - ऐसे दो प्रकार के मोक्षमार्ग नहीं हैं। मोक्षमार्ग कहो या धर्म कहो, वह एक ही प्रकार का है। मोह-क्षोभरहित-ऐसा जो वीतरागी शुद्धभाव, वही धर्म है और जो राग है, वह धर्म नहीं है।

शुद्धता के साथ वर्तते हुए व्रतादि शुभपरिणामों को भी कहीं उपचार से धर्म कहा हो, वहां उस उपचार को ही सत्य मान ले अर्थात् राग को ही धर्म मान ले तो वह मिथ्यादृष्टि है; उसे यहां लौकिकजन तथा अन्यमती कहा है। साधकजीव को शुभराग के समय हिंसादि का अशुभराग दूर हुआ, उस अपेक्षा से तथा साथ ही रागरहित ज्ञानानन्दस्वभाव की दृष्टिपूर्वक वीतराग अंश भी वर्तते हैं, उस अपेक्षा से उसके व्रतादि को भी उपचार से धर्म कहा जाता है, किंतु ऐसा उपचार कब? कि जब साथ में अनुपचार अर्थात् निश्चय श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म वर्तता हो तब। परंतु यहां तो उपचार की बात नहीं है; यहां तो पहले यथार्थ वस्तुस्वरूप का निर्णय करने की बात है।

शुद्धस्वभाव को ही श्रेयरूप जानकर उसका आचारण कर!

अशुभपरिणाम तो पाप का कारण है; शुभपरिणाम, पुण्य का कारण है और शुद्धपरिणाम, वह धर्म है, वही मोक्ष का कारण है। इसलिए हे जीव! तू उस शुद्धपरिणाम को ही सम्यक् प्रकार से आदर और शुभ-अशुभराग का आदर छोड़। पहले आचार्यदेव ने 88वीं गाथा में कहा है कि हे भव्य! जीव के परिणाम अशुभ, शुभ और शुद्ध - ऐसे तीन प्रकार के हैं। उनमें शुद्धपरिणाम तो आत्मा के स्वभावरूप है। उन तीन प्रकार के भावों में से जिसमें श्रेय हो, उसे तू समाचर! अर्थात् शुद्धभाव में ही मेरा श्रेय है - ऐसा निर्णय कर और उसी को मोक्ष का कारण जानकर तू आचर।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है, वही तीन भुवन में साररूप है और उसकी प्राप्ति जिनशासन मं ही होती है; इसलिए जिनशासन की श्रेष्ठता है। पुण्य के द्वारा जिनशासन की श्रेष्ठता नहीं है। सम्यग्दृष्टि का पुण्य भी अपूर्व होता है, तथापि उस पुण्य की जिनशासन में महत्ता नहीं है; जिनशासन में तो सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों की महत्ता है तथा उसी की उपासना करने का उपदेश है।

जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारि.त्र की आराधना करता है, वही जिनशासन की आराधना करता है। जो राग को धर्म मानता है, वह जिनशासन का भक्त नहीं, किंतु विराधक है; इसलिए हे भाई्! तू अपने हित के लिए शुद्धभाव को ही धर्म जानकर, शुद्धभाव प्रगट कर। शुद्धभाव के बिना व्रत-तप-पूजा सब निष्फल हैं, उनमें तेरा श्रेय नहीं है।

धर्मी को पुण्यभाव.... किंतु पुण्य को धर्म माननेवाला धर्मी नहीं

‘पूजादिषु पुण्यं’ - ऐसा कहा। वहां पूजा आदि कहने से देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति, वंदना, वैयावृत, स्वाध्याय, जिनमंदिर की प्रतिष्ठा आदि लेना चाहिए। उन सब में देव-गुरु-शास्त्र की ओर शुभवृत्ति है; इसलिए उस राग में पर की ओर का झुकाव है, उसमें स्व की एकता नहीं है; इसलिए वह धर्म नहीं है किंतु पुण्य है।

देखो, दो हजार वर्ष पहले गिरनार पर धरसेनाचार्यदेव ने पुष्पदंत-भूतबलि मुनियों को भगवान की परंपरा का अपूर्व ज्ञान दिया और उन पुष्पदंत-भूतिबलि आचार्यों ने उस श्रुत को षट्खंडागमरूप से गूंथा, पश्चात् चतुर्विध संघ ने श्रुतभक्ति का महान महोत्सव किया। इस प्रकार धर्मात्मा को श्रुत की भक्ति का भाव आता है तथा मुनिवरों को आहार देने का भाव, जिनमंदिर निर्माण कराने का भाव और उसकी प्रतिष्ठा का भाव, भक्ति का भाव, जिस भूमि में तीर्थंकरों-संतों ने विचरण किया, उसकी यात्रा का भाव इत्यादि शुभभाव भी होते हैं, किंतु धर्मी उसे धर्म नहीं मानते, क्योंकि उस शुभभाव से स्वभाव के साथ एकता नहीं होती; अपितु परोन्मुखता की वृत्ति होती है, उससे पुण्यबंध होता है किन्तु मोक्ष नहीं होता। उस समय धर्मात्मा को शुद्धात्मा की श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक जितना शुद्धभाव वर्तता है, उतना धर्म है।

धर्म के भाव में बाह्य का - पर का अवलंबन नहीं होता; उसमें तो एक शुद्धात्मा का ही अवलम्बन है। राजा या रंक सभी के लिए धर्म का यह एक ही मार्ग है। बड़ा राजा हो या रंक हो, किसी को भी पुण्य से धर्म नहीं हो सकता। किसी भी जीव के लिए अपने शुद्ध चिदानन्दस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान और एकाग्रतारूप शुद्धपरिणाम ही धर्म है और पूजा-व्रतादिक का शुभराग, बंध काही कारण है; वह धर्म नहीं है और धर्मी को उसका आदर नहीं है। जिसे राग का आदन है, वह धर्मी नहीं है। राग के फल में कहीं स्वभाव के साथ एकता नहीं होती; उसके फल में तो स्वर्गादिक का बाह्य संयोग प्राप्त होता है; इसलिए जिसे पुण्य की प्रीति है, उसे भोग की प्रीति है और वही पुण्य को धर्म कहता है। भगवान जिनेन्द्रदेव ने तो रागादिरहित शुद्धभाव को ही धर्म कहा है।

जिनशासन में धर्म का स्वरूप

jain temple126

‘मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्म’ अर्थात् मोह-क्षोभरहित - ऐसा आत्मा का परिणाम, सो धर्म है, ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने जिनशासन में कहा है। जिसे सात तत्वों की विपरीत मान्यता है, तो कुदेव-कुगुरु को मानता है, उसे तो तीव्र मिथ्यात्वरूप मोह है और क्रोध-मान-माया-लोभ, राग-द्वेषादिभावों द्वारा चैतन्य का उपयोग डांवाडोल-अस्थिर होता है; इसलिए वह क्षोभ है। ऐसे मोह तथा क्षोभरहित जो सम्यक्त और आत्मस्थिरतारूप शुद्धपरिणाम हैं, वही धर्म है। आत्मा के साथ उनकी एकता होने से, वे ही वास्तव में आत्मा के परिणाम हैं।

प्रथम चिदानन्दभाव की सम्यक्श्रद्धा द्वारा विपरीत श्रद्धारूप दर्शनमोह का अभाव होने से सम्यग्दर्शनरूप शुद्ध आत्मपरिणाम प्रगट होते हैं, वह धर्म है; तत्पश्चात् स्वरूप में एकाग्र होकर उपयोग स्थिर होने पर क्रोधिदिरहित वीतरागी शुद्धपरिणाम प्रगट होते हैं, वहीं धर्म है - ऐसा जिनशासन में जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।

मैं परजीव के कार्य कर सकता हूं; दया के शुभपरिणामों द्वारा मैं दूसरे जीव को मरने से बचा सकता हूं- जिसकी ऐसी विपरीत मान्यता है, उसे तो तीव्रमोह है, उसे धर्म नहीं होता। परजीव को मारने या बचाने की क्रिया मैं नहीं कर सकता; वह उसके अपने ही कारण करता या जीता है, मैं तो ज्ञान हूं; शुभवृत्ति भी मेरे ज्ञान का स्वरूप नहीं है- ऐसे यथार्थ ज्ञानपूर्वक धर्मी को दया-अहिंसादि की जो शुभवृत्ति उत्पन्न होती है, उसे भी सर्वज्ञ भगवान ने धर्म नहीं कहा है, क्योंकि उस शुभवृत्ति से भी उपयोग क्षोभित होता है और स्वरूप स्थिरता में भंग पड़ता है।

चैतन्य के आनन्द की लीनता छोड़कर, किसी भी परपदार्थ के आश्रय से जो भाव होता है, वह धर्म नहीं है। यदि पूजा या व्रतादि का शुभराग धर्म हो, तब तो सिद्धदशा में भी वह भाव बना रहना चाहिए, किंतु ऐसा नहीं होता, क्योंकि राग तो सिद्धदशा में बाधक है, उसका अभाव होने पर ही केवलज्ञान और सिद्धदशा प्रकट होती है; इसलिए सर्व परद्रव्यों से अत्यंत निरपेक्ष, शुभराग से भी पार, शुद्ध चैतन्यपद की श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के अतिरिक्त अन्य कोई जैनधर्म नहीं है। इस प्रकार हे जीव! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभावों को ही अपने परम श्रेय का कारण जाकर, सर्वउद्यम से उसकी उपासना कर! क्योंकि धर्म, आत्मा का अवलम्बन ही है; राग का अवलम्बन नहीं है।

हे जीव! धर्म का कारण अंतर में शोध!

प्रश्न: पुण्यभाव धर्म तो नहीं है किंतु धर्म का कारण तो है न?

उत्तर: अरे भाई! पुण्य तो राग है और धर्म तो आत्मा का वीरागभाव है; अतः वह राग, आत्मा के वीतरागी धर्म का कारण कैसे हो सकता है? वीतरागता का कारण राग नहीं हो सकता। पुण्यभाव से चैतन्यस्वभाव के साथ एकता नहीं होती, किंतु उससे तो क्षोभ होता है और बाह्य में जड़ का संयोग मिलता है; इसलिए वह पुण्य, धर्म का कारण नहीं है।

प्रश्नः पुण्य, परम्परा से धर्म का निमित्त तो है न? वह व्यवहार कारण तो है न?

उत्तरः भाई! पुण्य तो विकार है, वह धर्म का कारण है ही नहीं। पहले, धर्म का सच्चा कारण तो शोध! धर्म का निश्चयकारण जो रागरहित चिदानन्दस्वभाव है, उस पर तो जोर नहीं देता और पुण्य को व्यवहार कारण कह-कहकर उस पर जोर देता है, तो तुझे वास्तव में स्वभाव की रुचि नहीं है किंतु राग की ही रुचि है।

‘किसी प्रकार से राग से धर्म हो’- ऐसी रागबुद्धि है किंतु रागरहित चिदानन्दस्वभाव पर तेरी दृष्टि नहीं है और उसके बिना धर्म नहीं होगा। तुझे राग की रुचि है; इसलिए तुझे तो धर्म है ही नहीं, तो फिर धर्म का निमित्त किस कहना? जो जीव, राग की रुचि छोड़कर, स्वभव की रुचि द्वारा सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट करता है, उसके लिए दूसरे से धर्म के निमित्तपने का आरोप आता है, किंतु अज्ञानी को तो धर्म है ही नहीं; इसलिए उसके राग में तो धर्म के निमित्तपने का उपचार भी नहीं होता।

अहो् अरागीधर्म को राग का अवलम्बन ही नहीं है। आत्मा स्वयं ही अपने सम्यग्दर्शनादि धर्म का अवलंबन ले, (अर्थात् सम्यग्दर्शन के विषयभूत त्रिकाली धु्रवस्वभाव का अवलम्बन ले) तभी धर्म होता है। अनादि से जीव ने बाह्य बवलम्बन में ही धर्म माना है किंतु अपने आत्मा का अवलम्बन कभी नहीं किया। आत्मा का स्वभाव ऐसा है कि उसका अवलम्बन करने से भव का नाश होता जाता है। अहो! अंतर में ऐसा स्वभाव पड़ा है, वह तो अज्ञानी को दिखाई नहीं देता, ऐसा स्वभाव का अवलम्बन करूँ, तो धर्म होगा - ऐसा अंतरंग कारण तो उसके लक्ष्य में नहीं होता और ‘पुण्य, व्यवहारकारण तो है न!’- इस प्रकार राग से दृष्टि नहीं हटती।

चिदानन्दस्वभाव रागरहित है, उसकी रुचि करके उस ओर उन्मुख न होकर, राग की रुचि करके उसी में लीन वर्तता है; इसलिए जीव, अनन्त काल से संसार में भटक रहा है। ‘चैतन्यस्वभाव ही मैं हूं, राग मैं नहीं हूं’- इस प्रकार एकबार भी स्वभाव तथा राग के बीच दरार डालकर अंतस्र्वभावोन्मुख हो जाए तो अल्प काल में भव का नाश होकर मुक्ति प्राप्त कर लें। इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि हे भव्य! तू ऐसे शुद्धस्वभावरूप जैनधर्म की रुचि कर और राग की रुचित छोड़। जिसे राग की, पुण्य की रुचि है; उसे जैनधर्म की रुचि नहीं है।

2
1