।। अप्रमत्तविरत गुणस्थान ।।

अप्रमत्त अप्रमानं, धम्मसुक्कं चझान निम्मलं सुधं ।(३४)
अवहि रिधि संजुत्तो, घिउ उवसम भाव सुंसुधं ।।६९१ ।।

अन्वयार्थ – (अप्रमत्त अप्रमानं) अप्रमत्त गुणस्थान प्रमाण नय आदि की कल्पना से रहित है (धम्मं सुक्कं च झान निम्मलं सुधं) वहाँ शुक्लध्यान की भावना सहित व शुक्लध्यान का कारण निर्दोष शुद्ध धर्मध्यान है (अवहि रिधि संजुत्तो) किसी को अवधिज्ञान प्राप्त होता है (क्षिउ उवसम भाव सुंसुधं) यहाँ शुद्ध क्षयोपशम भाव है।

भावार्थ - सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान उसे कहते हैं कि जहाँ अपने आत्मस्वरूप में किंचित् भी प्रमाद नहीं है। इसीलिए यहाँ पर साधु बिलकुल ध्यानमग्न रहते हैं - निर्विकल्प होकर आत्मा का ध्यान करते हैं। उसके मन में प्रमाण व नय का विचार नहीं आता है।

आगम द्वारा द्रव्यों का विचार व शास्त्रों का चिंतवन छठे प्रमत्तविरत गुणस्थान में है, सातवें में नहीं है।
यहाँ (सातवें गुणस्थान में) निर्मल धर्मध्यान है, जिससे शुक्लध्यान उत्पन्न हो सकता है। कोई-कोई मुनि अवधिज्ञान को धारने वाले होते हैं। यहाँ अभी चारित्र की अपेक्षा न उपशम भाव है न क्षायिक भाव है, किन्तु क्षायोपशमिक भाव है। बारह कषायों का उदयाभावरूप क्षय तथा उपशम है। शेष चार कषाय व नौ नोकषाय का अति मंद उदय है।

विक्त रुव सदिट्ठी, विगतं संसार सरनि भावं च।(३५)
सुधं परमानंदं, न्यान सहावेन सुध तवयरनं ।।६९२ ।।

अन्वयार्थ - - (वित्त रूव सदिट्ठी) अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु आत्मा के प्रगट रूप को भले प्रकार अनुभव करता है (विगतं संसार सरनि भावं च) वह संसार के मार्ग में ले जाने वाले भावों से रहित है (सुधं परमानंद) शुद्ध परम आनन्द का स्वाद लेता है (न्यान सहावेन सुध तवयरनं) ज्ञान स्वभावी आत्मा में ठहरकर शुद्ध आत्म तपनरूप तपश्चरण करता है।

भावार्थ – सातवें गुणस्थान में मन, वचन, काय तीनों स्थिर रहते हैं। ध्यानमग्न साधु शुद्धोपयोग में ठहरकर अपने आत्मा को स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानकर उसी में तल्लीन होकर निश्चय तप का साधन करता है और कर्मों की निर्जरा करता है।

श्री गोम्मटसार में इसका स्वरूप यह है - “सर्व प्रमादों से रहित - महाव्रत, मूलगुण व शील स्वभाव से मंडित ज्ञानी जब तक उपशम या क्षपकश्रेणी न चढ़े, तब तक ध्यान में तल्लीन रहता है, यही अप्रमत्तविरत साधु है।"