अजोगे केवलिनो, परमप्पा निम्मलो सुध ससहावं।(४४) आनन्दं परमानन्दं, नंत चतुस्टय मुक्ति संपत्तो।।७०२ ।।
अन्वयार्थ – (अजोगे केवलिनो) अयोगकेवलीजिन चौदहवें गुणस्थानधारी (परमप्पा निम्मलो ससहावं सुध) मल रहित शुद्ध परमात्मा है। योगों का हलन चलन भी नहीं है (परमानन्दं आनन्दं) स्वाभाविक परमानन्द में मग्न हैं (नंत चतुस्टय मुक्ति संपत्तो) अनन्त चतुष्टय सहित मुक्ति को पहुँचने वाले हैं।
भावार्थ - जब आयु कर्म में इतना काल बाकी रह जाता है, जितना काल अ इ उ ऋ लु इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में लगता है, तब अरहन्त परमात्मा का योग बिलकुल निश्चल हो जाता है, योग रहित होने से वे अयोगीजिन कहलाते हैं। यहाँ चौथा शुक्लध्यान होता है। इसी से शेष अघातिया कर्मों का भी क्षय कर यह मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है –
जो १८००० शीलों के स्वामी हो गए हैं - जिनके पूर्ण सहकार से कर्मों का आस्रव नहीं है, जिनके कर्मरूपी रज निर्जरा को प्राप्त हो रहा है, जिससे वे शीघ्र मुक्त होंगे, ऐसे अयोग केवली होते हैं।"