अविरै सम्माइट्ठी, जानै पिच्छेई सुध संमत्तं ।(१५) षट दव्व पंच कायं, नव पयत्थ सप्त तत्तु पिच्छंतो।।६७२ ।।
अन्वयार्थ - (अविरै सम्माइट्ठी)अविरत सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थानवर्ती (सुध संमत्तं जानै पिच्छेई) शुद्ध या निश्चय सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है (षट दव्व पंच कायं नव पयत्थ सप्त तत्तु पिच्छंतो) छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ तथा सात तत्त्व पर श्रद्धान रखता है।
भावार्थ - चौथे गुणस्थान का स्वरूप यह है कि व्रत-श्रावक के व मुनि के न होते हुए भी, संयम का नियम न होते हुए भी, जहाँ शुद्ध सम्यग्दर्शन हो वह अविरत सम्यग्दर्शन है। इस गुणस्थानधारी को आत्मा और अनात्मा का सच्चा भेदविज्ञान होता है। वह शुद्ध आत्मा को पहचानता है, आत्मा के रस का स्वाद भी लेता है।
व्यवहार में उसको छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ व जीवादि सात तत्त्वों का जिनेन्द्र के आगम के अनुसार दृढ़/पक्का श्रद्धान होता है।
अप्प सरूवं पिच्छदि, वर दंसन न्यान चरन पिच्छंतो।(१६) सहकारे तव सुधं, हेय उपादेय जानए निस्चं ।।६७३ ।।
अन्वयार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव (अप्प सरूवं पिच्छदि) आत्मा के स्वरूप का अनुभव करता है (वर दंसन न्यान चरन पिच्छंतो) निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का अनुभव करता है। (सहकारे तव सुधं) सम्यग्दर्शन की सहायता से शुद्ध तप करता है (हेय उपादेय निस्चं जानए) त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व को निश्चय से यथार्थ जानता है।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव को भेद विज्ञान होता है, इसलिए वह निज आत्मा के स्वभाव को ग्रहण कर लेता है और उसके सिवाय सर्व पर-द्रव्य, पर-गुण, पर-पर्याय का त्याग कर देता है। वह जानता है कि निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही है।
इसलिए सर्व पर-पदार्थों से रागद्वेष त्याग कर परम समता भाव में लीन होकर निश्चिन्त होकर निज आत्मा का ही अनुभव करता है। वह तप भी आत्मशुद्धि के लिए ही करता है। वह भूलकर भी निदान नहीं करता है।
सुधं सुध सहावं, देवं देवाधि सुध गुर धम्मं ।(१७) जानै निय अप्पानं, मल मुक्कं विमल दंसनं सुधं ।।६७४ ।।
अन्वयार्थ – (सुधं सुध सहावं देवाधिदेवं) सम्यग्दृष्टि जीव वीतराग व शुद्ध स्वभावधारी देवों के देव श्री अहँत-सिद्ध भगवान को देव (सुध गुर धम्म) शुद्ध निर्दोष परिग्रह त्यागी को गुरु और वीतराग विज्ञानमयी शुद्ध धर्म को धर्म निश्चय रखता है (निय अप्पानं जानै) अपने आत्मा को पहचानता है (मल मुक्कं विमल सुधं दंसनं) उसके ही पच्चीस मल दोष रहित निर्मल शुद्ध सम्यग्दर्शन होता है।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव ही सच्चे-देव-गुरु धर्म को पहचानता है। आत्मा में आत्मरूप रहने वाले अहँत-सिद्ध को देव, आत्मरमी निग्रंथ को साधु, आत्मानुभव को धर्म जानता है, अपने आत्मा को परमात्मा के समान निर्विकार ज्ञातादृष्टा अनुभव करता है, सम्यक्त्व को २५ दोषों से बचाता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन का आचरण करता है।
पंचाचार वियानदि, परिनय सुध भाव संमत्तं ।(१८) जिनवयनं सद्दहनं, सद्दहनं सुध ममल संमत्तं ॥६७५ ।।
अन्वयार्थ - (पंचाचार वियानदि) सम्यग्दृष्टि जीव पाँच प्रकार के आचार को समझता है (परिनय सुध भाव संमत्तं) शुद्ध भाव की श्रद्धा में परिणमन करता है (जिन वयनं सद्दहनं) श्री जिनेन्द्र की वाणी का श्रद्धान रखता है (सुध ममल संमत्तं सद्दहनं) आत्मानुभूति रूप निश्चय निर्मल सम्यक्त्व का वह श्रद्धानी होता है।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, इन पाँच व्रतों के आचरण से जीव का हित होता है। या दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, इन पाँच आचारों को पालना चाहिये; ऐसा दृढ़ श्रद्धान सम्यग्दृष्टि को होता है। उसके श्री जिनेन्द्र के आगम का पक्का विश्वास होता है। वह शुद्ध आत्मा के रमण में रुचि रखता हुआ उसी का अनुभव करता रहता है। वह यह भले प्रकार समझता है कि निश्चय सम्यग्दर्शन वहीं पर है, जहाँ निर्मल आत्मा के आनन्द का स्वाद लिया जावे।
रागादिदोस विरयं, असुध परिनाम भाव विरयंतो।(१९) विरइ पमाइ सव्वं, विरयं संसार सरनि मोहंधं ।।६७६ ।।
अन्वयार्थ - (रागादि दोस विरयं) सम्यग्दृष्टि अंतरंग में सर्व औपाधिक रागादि दोषों से विरक्त होता है (असुध परिनाम भाव विरयंतो) शुद्धोपयोग के सिवाय सर्व अशुद्ध परिणामों से उदासीन होता है (सव्वं पमाइ विरइं) सर्व प्रमाद भावों से वैरागी होता है। (संसार सरनि मोहंधं विरयं) संसार मार्ग में पटकने वाले अज्ञानमय मोह से शून्य होता है।
भावार्थ - मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय न होने से सम्यग्दृष्टि को अपने शुद्ध आत्मा की व मोक्ष की ऐसी दृढ़ रुचि हो जाती है कि उसको कर्मजनित सर्व रागादि दोष रोग के समान झलकते हैं । शुद्ध आत्मिक स्वभाव की परिणति में रमण करना ही उसका क्रीड़ा वन हो जाता है। वह संसार की किसी भी पर्याय-इंद्र, चक्रवर्ती आदि का मोही नहीं रहता है। वह सर्व प्रमाद भावों से विरक्त रहता है। (ब्र. शीतलप्रसादजी ने अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में प्रमाद की जो विशेष चर्चा की है। वह सहीरूप से प्रमत्तविरत नाम के छठवें गुणस्थान में लागू होती है; क्योंकि संज्वलन कषाय एवं नौ नोकषाय के तीव्र उदय से होनेवाले कषाय परिणामों को प्रमाद कहा जाता है।
स्थूल रूप से प्रथम गुणस्थान से छठवें गुणस्थानवर्ती सभी जीवों को प्रमादी कहते हैं; यह भी एक विवक्षा है। चौथे गुणस्थानवर्ती जीव जब शुद्धोपयोगी होता है, तब अध्यात्म की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को अप्रमादी भी कहा गया है। जब अविरत सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धोपयोग में नहीं रहेगा तब उसे प्रमत्त कहते हैं; यह विवक्षा टीकाकार की रही है।
टीकाकार की विवक्षा समझते हुए विषय को जानने का हमें प्रयास करना चाहिए।) गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में छठवें गुणस्थान में ही १५ प्रमादों की विवक्षा ली है। प्रमाद के मूल भेद प्रन्द्रह हैं –
चार विकथा - स्त्री, भोजन, देश, राज्य; (चार-विकथा) पाँच इन्द्रिय (इन्द्रिय के विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण व शब्द) (क्रोधादि) चार कषाय, निद्रा व स्नेह । इसके उत्तर भेद अस्सी हो जाते हैं। ४ ह्न ५ ह्न ४ ह्न १ ह्न १ = ८० । हर एक प्रमाद भाव में पाँच भावों का संयोग होता है।
एक कोई कथा, एक कोई इन्द्रिय, एक कोई कषाय, निद्रा तथा स्नेह । जैसे किसी ने पुष्प सूंघने का भाव किया - इस प्रमाद भाव में भोजन कथा, घ्राण इन्द्रिय, लोभ कषाय, निद्रा तथा स्नेह गर्भित हैं । इन्द्रियों के विषय व कषाय के विकारों से पूर्ण अरुचि को रखने वाला सम्यक्त्वी जीव होता है।
मिच्छात समय मिच्छा, समय प्रकृति मिच्छ सभावं।(२०) कषायं अनंतानं, तिक्तंति प्रकृति सप्त सभावं ।।६७७ ।।
अन्वयार्थ - (मिच्छात समय मिच्छा समय प्रकृति मिच्छ सभावं) मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्त्व-मिथ्यात्वकर्म व सम्यक्त्वप्रकृतिकर्म-इनके उदय को (कषायं अनंतानं) व चार अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय को (सप्त प्रकृति सभावं तिक्तंति) इसतरह सात प्रकृतियों के उदय को सम्यक्त्वी त्याग देता है।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन की घातक सात कर्म की प्रकृतियाँ हैं। • उपशम सम्यक्त्वी के इनका उपशम रहता है। • क्षायिक सम्यक्त्वी के इनका क्षय करता है। • क्षयोपशम सम्यक्त्वी के केवल सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होता है, शेष छह का उपशम। (सम्यक्प्रकृति का उदय) या चार का क्षय, दो का उपशम । (सम्यक्प्रकृति का उदय) या पाँच का क्षय, एक का उपशम या छह का क्षय; एक का उदय होता है । (यह कृतकृतवेदक में सम्भव है)।
इसीलिये अविरत सम्यक्त्वी मोक्ष का पक्का श्रद्धावान होता है। क्षयोपशम सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से केवल कुछ मलिनता सम्यक्त्व भाव में रहती है। क्षायिक व औपशमिक सम्यक्त्व निर्मल होते हैं।
उपशम सम्यक्त्व की स्थिति जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही है। क्षयोपशम की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागर है। क्षायिक सम्यक्त्व की स्थिति अनन्तकाल है। मोक्ष जाने की अपेक्षा वह अधिक से अधिक और तीन भव लेकर मोक्ष को चला जायेगा।
जिन वयनं सद्दहनं, सद्दहै अप्प सुध सभावं।(२१) मति न्यान रूव जुत्तं, अप्पा परमप्प सहहै सुधं ।।६७८ ।।
अन्वयार्थ – (जिन वयनं सद्दहनं) सम्यग्दृष्टि को जिनवाणी का दृढ़ श्रद्धान होता है (सद्दहै अप्प सुध सभावं) वह आत्मा के शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान रखता है (अप्पा परमप्प सुधं सद्दहै) आत्मा को परमात्मा के समान शुद्ध श्रद्धान में लेता है (मति न्यान रूवं जुत्तं) वह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व कोई-कोई साथ ही रूपी पदार्थों को जानने वाले अवधिज्ञान सहित भी होता है।
भावार्थ - व्यवहार में जिनवाणी के द्वारा कथन किये हुए तत्त्वों का सम्यक्त्वी दृढ़ श्रद्धानी होता है। निश्चय से वह अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धानी होता है। सम्यक्त्वी चारों गतियों में होता है। देव व नारकी सर्व तीन ज्ञानधारी सम्यक्त्वी होते हैं।
मानव व पशुओं के साधारणतया मतिश्रुत दो ज्ञान होते हैं। किसीकिसी के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से अवधिज्ञान भी पैदा हो जाता है।
तीर्थंकर जन्म से ही तीन ज्ञानधारी होते हैं। इस तत्त्वज्ञानी के भीतर मिथ्याज्ञान बिलकुल नहीं रहता है। वह इन्द्रियों के द्वारा व मन के द्वारा जो कुछ जानता है, उसके भीतर हेय-उपादेय बुद्धि करके मात्र एक निज आत्मा को ही उपादेय मानता है।
आरति रौद्रं च विरयं, धम्म ध्यानं च सद्दहै सुधं ।(२२) अविरय सम्माइट्ठी, अविरत गुनठान अव्रितं सुधं ।।६७९ ।।
अन्वयार्थ - (आरति रौद्रं च विरयं) सम्यक्त्वी भव्य जीव चार प्रकार के आर्तध्यान व चार प्रकार के रौद्रध्यान से, जो संसार के कारण हैं व परिणामों को मलिन रखने वाले हैं, उनसे विरक्त रहता है (सुधं धम्म ध्यानं च सद्दहै) शुद्धोपयोग रूप धर्म ध्यान की ही रुचि रखता है (अविरय सम्माइट्ठी) ऐसा पाँच व्रतों की प्रतिज्ञा रहित सम्यग्दृष्टि (सुधं अद्वितं) भावों की अपेक्षा शुद्ध परन्तु व्रत रहित होता है (अविरत गुनठान) क्योंकि (वह) अविरत गुणस्थान में है।
भावार्थ - अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय होता है; जिससे वह चारित्र धारने को उत्सुक होने पर भी चारित्र को धार नहीं सकता है। वह संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होता है, इससे शारीरिक व मानसिक कष्टों के भीतर उलझता नहीं और न सांसारिक सम्पत्ति के लिये हिंसादि पाप कर्मों की अन्यायपूर्वक भावना करता है।
वह आर्तध्यान व रौद्रध्यान से विरक्त होता है। उसको धर्म की चर्चा सुहाती है, वह धर्मध्यान का प्रेमी होता है। शुद्ध आत्मा को अनुभव में लाकर आत्मरस पीने का दृढ़ रुचिवान होता है। श्रद्धानअपेक्षा शुद्ध है, चारित्र अपेक्षा प्रतिज्ञारहित है, इसी से अविरत सम्यग्दर्शन का धारी हो रहा है। श्री गोम्मटसार में कहा है -
“जो इन्द्रियों के विषयों का न तो त्यागी है और न त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा का त्यागी है, परन्तु जो जिनेन्द्र कथित तत्त्वों का दृढ़ श्रद्धानी है, वही अविरत सम्यग्दृष्टि है। अपि शब्द से यह सूचित होता है कि वह निरर्थक न तो इन्द्रियों की प्रवृत्ति करता है न हिंसादि पाप करता है तथा उसमें चार गुण भीतर झलकते हैं –
(१) प्रशम-शांत भाव, (२) संवेग-धर्म से प्रेम, संसार से वैराग्य, (३) अनुकम्पा-प्राणी मात्र पर दया, (४) आस्तिक्य-तत्त्वों पर पूर्ण विश्वास, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, की श्रद्धा । यद्यपि वह व्रती नहीं है; तथापि व्रती होने की भावना रखता हुआ बहुत सम्हाल के प्रवृत्ति करता है।