।। उपशांतमोह गुणस्थान ।।

उवसंतो य कषायं, दर्सन मोहंध उवसमं सुधं ।(४०)
संसार सरनि तिक्तं, उवसंतो पुनः सव्वहा सव्वे।।६९७ ।।

अन्वयार्थ – - (दर्सन मोहंध उवसमं सुधं) जहाँ दर्शन मोहनीय कर्म का बिल्कुल उपशम या क्षय हो गया है (उवसंतो य कषायं) तथा चारित्र मोहनीय कर्म, बिल्कुल उपशम हो गया है (संसार सरनि तिक्तं) जो संसार के कारण भावों से रहित हो गए हैं (सव्वहा सव्वे पुनः उवसंतो) जहाँ सर्वथा सर्व शुभ भावों की भी शांति हो गई है, एक वीतराग यथाख्यात चारित्र है, वह उपशांत मोह नाम का ही ग्यारहवाँ गुणस्थान है।

भावार्थ - उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाला साधु दसवें गुणस्थान से ग्यारहवें में आता है । यह साधु या तो द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी या क्षायिक सम्यक्त्वी होता है।

इसलिए सम्यक्त्व घातक सातों प्रकृतियाँ उपशम हो रही हैं तथा चारित्र मोहनीय सम्बन्धी इक्कीस कषायों का यह शुक्लध्यान के बल से उपशम कर चुका है। सर्व प्रकार मोहनीय कर्म के उदय न रहने से यहाँ यथाख्यात चारित्र या नमूनेदार वीतरागता प्रगट है।

यहाँ न अशुभ भाव है न कोई शुभ भाव है मात्र शुद्धोपयोग है, शुक्ललेश्या है।

यहाँ सिवाय साता वेदनीय के और किसी कर्म का आस्रव नहीं होता है। यह भी ईर्यापथ आस्रव है। दूसरे ही समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। कषायों के न होने से स्थिति व अनुभाग नहीं पड़ता है। यह दशा अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहती है। आत्मबल की कमी से फिर लोभ का उदय आ जाता है और यहाँ से गिरकर दसवें में या धीरे-धीरे सातवें तक आ जाता है।

सातवें से फिर एक दफे उपशम श्रेणी चढ़ सकता है या तद्भव मोक्षगामी क्षपक श्रेणी चढ़ सकता है। यदि संसार अधिक हो तो और भी नीचे के गुणस्थानों में यहाँ तक कि मिथ्यात्व में भी जा सकता है।

सुधो सुधोदेसो, सुधो परमप्प लीन संजुत्तो।(४१)
क्षिउ उवसम संसुधो, न्यान सहावेन चरन्ति तवयरनं ।।६९८ ।।

अन्वयार्थ – (सुधो सुधोदेसो) उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती साधु वीतराग हैं वशुद्ध शासन या श्रुतज्ञान के धारी हैं (सुधो परमप्प लीन संजुत्तो) शुद्ध परमात्म स्वभाव में लीनता रूप शुक्लध्यान के धारी हैं (क्षिउ उवसम संसुधो) क्षायिक या द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित है (न्यान सहावेन तवयरनं चरन्ति) ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर निश्चय तपश्चरण कर रहे हैं।

भावार्थ - उपशांत मोह भाव के धारी निग्रंथ साधु निर्मल श्रुतज्ञान के धारी होकर अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होते हुए शुक्लध्यान को ध्याते हैं। आत्मा के स्वभाव में वीतरागता सहित तपश्चरण या रमण कर रहे हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है –

“निर्मली फल सहित जल की तरह या शरद ऋतु में सरोवर के पानी की तरह जहाँ सर्व मोह का उपशम हो गया है, ऐसे वीतराग परिणाम के धारी के उपशान्त कषाय गुणस्थान होता है। जैसे कतकफल से मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी ऊपर निर्मल है या शरद ऋतु में मिट्टी नीचे बैठ जाती है, ऊपर सरोवर का पानी निर्मल होता है। वैसे जहाँ मोह का उदय दबा हुआ है, ऊपर भाव मोह रहित है, सो उपशान्त मोह गुणस्थान है।"