श्री जिन तारणतरण स्वामी विरचित

।। चौदह गुणस्थान ।।

मिच्छा सासन मिस्रो, अविरै देसव्रत सुध संमिधं । (१)
प्रमत्त अप्रमत्त भनियं, अपूर्वकरन सुध संसुधं ||६५८||
अनिवर्त सूक्ष्मवंतो, उवसंत कषाय षीन सुसमिधो। (२)
सजोग केवलिनो, अजोग केवली हुति चौदसमो||६५९।।

अन्वयार्थ – (मिच्छा सासन मिस्रो) १. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र (अविरै देसव्रत सुध संमिधं) ४. अविरत सम्यग्दर्शन, ५. देशव्रत जो शुद्धता सहित है (प्रमत्त अप्रमत्त भनियं) ६. प्रमत्त विरत, ७. अप्रमत्तविरत कहा गया है (अपूर्वकरन सुध संसुधं) ८. अपूर्वकरण जो परम शुद्ध है (अनिवर्त सूक्ष्मवंतो) ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मलोभ (उवसंत कषाय क्षीन सुसमिधो) ११. उपशांत कषाय १२. क्षीणकषाय जहाँ कषाय भले प्रकार क्षय हो गई हैं (सजोग केवलिनो) १३. सयोग केवली जिन (अजोग केवली हुंति चौदसमो) १४. अयोग केवली जिन चौदहवाँ गुणस्थान है।

भावार्थ - • मोहनीय कर्म और योग के सम्बन्ध से चौदह गुणस्थान हैं। • दसवें गुणस्थान तक मोह और योग दोनों का सम्बन्ध है। • ग्यारहवें से तेरहवें - इन तीनों गुणस्थानों का मात्र योग के साथ ही सम्बन्ध है। • चौदहवें गुणस्थान में योग भी चंचल नहीं है। • पहले पाँच गुणस्थान परिग्रहधारियों के होते हैं। • छठे से बारहवें तक परिग्रह त्यागी निग्रंथ साधुओं के गुणस्थान होते हैं। • तेरहवाँ, चौदहवाँ गुणस्थान अरहंत केवली भगवान के ही होते हैं। • सिद्ध भगवान सर्व गुणस्थानों से बाहर हैं। श्री गोम्मटसार जीवकांड में कहा है –

“दर्शन मोहनीयादि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले परिणामों से युक्त जो जीव होते हैं, उन चौदह गुणस्थान जीवों को सर्वज्ञ देव ने उसी गुणस्थान वाला और परिणामों को गुणस्थान कहा है। इन गुणस्थानों से जीव के परिणामों की अशुद्ध व शुद्ध अवस्थाएँ मालूम पड़ती हैं।

मोहनीय कर्म के २८ भेद हैं - तीन दर्शन मोहनीय कर्म १. मिथ्यात्व, २. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व और ३. सम्यक्प्रकृति ।

चारित्र मोहनीय के २५ भेद हैं - १६ कषाय, ९ नो कषाय । अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, संज्वलन क्रोधादि ४, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद - ये नौ नो या इषत् या कम कषाय हैं।

  • अनन्तानुबन्धी व मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
  • केवल अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सासादन गुणस्थान होता है।
  • मिश्रदर्शनमोहनीय कर्म के उदय से तीसरा मिश्र गुणस्थान होता है।
  • मिथ्यात्व एक या तीनों दर्शन मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से तथा अनन्तानुबन्धी के उदय न होने से चौथा अविरत गुणस्थान होता है; क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन की व स्वरूपाचरण की घातक है।
  • श्रावकव्रत को रोकने वाले अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने से पाँचवाँ देशव्रत गुणस्थान होता है।
  • सर्व त्याग को रोकने वाले प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने स प्रमत्तविरत साधु का गुणस्थान होता है।
  • संज्वलन चार कषाय तथा नौ नोकषाय का मंद उदय होने से अप्रमत्त गुणस्थान होता है।
  • संज्वलन कषाय के अति मंद उदय होने पर अपूर्वकरण गुणस्थान होता है।
  • जब चार संज्वलन कषाय व तीन वेद का ही उदय रह जाता है, तब अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है।
  • जब केवल सूक्ष्म लोभ का उदय रहता है, तब दसवाँ सूक्ष्मसाम्पराय नाम का गुणस्थान होता है।
  • सर्व चारित्र मोह के उपशम से ग्यारहवाँ उपशांतमोह व उनके क्षय से क्षीणमोह बारहवाँ गुणस्थान होता है।
  • चार घातिया कर्मों के क्षय से तेरहवाँ सयोगकेवली व योगों के भी न रहने पर चौदहवाँ अयोगकेवली गुणस्थान होता है।

ए चौदस गुनठानं, हुंति ससहाव सुधमप्पानं ।(३)
अप्प सरुवं पिच्छदि, अप्पा परमप्प केवलं न्यानं ||६६० ।।

अन्वयार्थ - (ए चौदस गुनठानं) ये ऊपर कहे प्रमाण चौदह गुणस्थान (ससहाव सुधमप्पानं हुंति) अपने स्वभाव से शुद्ध आत्मा के ही होते हैं (अप्पा अप्प सरुवं पिच्छदि) जब आत्मा अपने आत्मा के स्वभाव का अनुभव करता है, तब (केवलं न्यानं परमप्प) केवलज्ञान को पाकर परमात्मा हो जाता है।

भावार्थ – यद्यपि आत्मा स्वभाव से शुद्ध है; तथापि संसार अवस्था में कर्मों के मैल के निमित्त से ये चौदह श्रेणियाँ (स्थान) जीवों के भावों की हो जाती हैं। इनमें से जिस श्रेणी से यह आत्मा अपने आत्म स्वरूप को अनुभव करने लगता है, उस श्रेणी से चढ़ता हुआ बारहवें के अन्त में केवलज्ञान को पाकर परमात्मा हो जाता है।

तत्वं च दव्व कायं, पदार्थ सुध परमप्पानं ।(४)
हेय उपादेय च गुनं, वर दंसन न्यान चरन सुधानं ||६६१ ।।

अन्वयार्थ - (तत्वं च दव्व कायं) सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय (पदार्थ सुध परमप्पानं) नव पदार्थ तथा शुद्ध परमात्मा को जानकर (हेय उपादेय च गुनं) जो आत्मा से भिन्न तत्त्व है, वह त्यागने योग्य हेय है। आत्मा का जो गुण है वह ग्रहण करने योग्य उपादेय है (वर दंसन न्यान चरन सुधानं) श्रेष्ठ व शुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ही उपादेय हैं।

भावार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव का कर्त्तव्य है कि सात तत्त्व आदि को समझ कर उसमें भेद विज्ञान के द्वारा विचार करे तो विदित होगा कि सात तत्त्व व नौ पदार्थ - १. जीव और २. कर्म पुद्गल (अजीव) के बन्ध व मोक्ष की अपेक्षा से ही बने हैं। ३. कर्मों का आना आस्रव है। ४. कर्मों का बन्धन बन्ध है। ५. कर्म का रुकना संवर है। ६. कर्म का झड़ना निर्जरा है। ७. सर्व कर्मों का छूट जाना मोक्ष है। ८. पुण्य कर्म प्रकृति पुण्य है। ९. पाप कर्म प्रकृति पाप है।

सब कर्म, पुद्गल होने से हेय है। एक शुद्धात्मा उपादेय है। छह द्रव्य व पाँच अस्तिकायों में भी एक शुद्ध जीव द्रव्य या जीव अस्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है।

आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र ही निश्चय रत्नत्रय है, जो आत्मानुभव रूप है, यही मोक्ष का मार्ग है; ऐसा सम्यक्त्वी समझता है।

टंकोत्कीर्न अप्पा, दंसन मल मूढ़ विरय अप्पानं ।(५) ।
अप्पा परमप्पसरूवं, सुधं न्यान मयं विमल परमप्पा।।६६२ ।।

अन्वयार्थ – (टंकोत्कीर्ण अप्पा) टांकी से उकेरी हुई मूर्ति के समान अविनाशी स्वभाव से अमिट यह आत्मा है (दंसन मल मूढ़ विरय अप्पानं) दर्शन मोहनीय कर्म मल की मूढ़ता से रहित यह आत्मा है (अप्पा परमप्प सरुवं) आत्मा परमात्म स्वरूप है (सुधं न्यान मयं) शुद्ध ज्ञानमयी है (विमल परमप्पा) कर्ममल रहित परमात्मा है।

भावार्थ - सम्यग्दृष्टि, आत्मा को शुद्ध निश्चय नय के द्वारा ऐसा अनुभव करता है कि यह सदा रहने वाला है, त्रिकाल एकरूप द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य का स्वभाव कभी मिटता नहीं।

दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से जो मिथ्यात्वभाव होता है वह मिथ्यात्वभाव आत्मा में नहीं है। सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वभाव है; जिससे इस आत्मा को अपने आत्मा के सच्चे स्वरूप की यथार्थ प्रतीति होती है। यह आत्मा निश्चय से परमात्मस्वरूप है, शुद्ध है, ज्ञानमयी है, वीतराग है, कर्ममल रहित, निरंजन, स्वयं व परमात्मरूप ही है।

रूव भेय विन्यानं, नय विभागेन सद्दहं सुधं ।(६)
अप्प सरूवं पेच्छदि, नय विभागेन सार्धं दिटुं॥६६३ ।।

अन्वयार्थ - (भेय विन्यानं) भेद विज्ञान (नय विभागेन सुधं रूव सद्दह) निश्चय नय के द्वारा पर से स्वरूप का श्रद्धान रखता है (नय विभागेन सार्धं दि8) नय विभाग के साथ जो निर्मल दृष्टि है वह (अप्प सरुव पिच्छदि) आत्मा के स्वरूप को यथार्थ देखती है।

भावार्थ - जैन सिद्धान्त में निश्चयनय तथा व्यवहारनय के द्वारा आत्मा को जानने का उपदेश है। व्यवहारनय पर्यायदृष्टि है, नैमित्तिक अवस्था या भावों को आत्मा की है, ऐसा बताने वाली है। इसलिए यह नय अभूतार्थ है - असत्यार्थ है। द्रव्य का सत्य निजस्वरूप नहीं बताती है, जबकि निश्चय नय द्रव्य दृष्टि है। द्रव्य के मूल स्वरूप को अर्थात् उसके स्वभाव को पर से भिन्न बताने वाली है।

व्यवहार नय से देखने पर यह आत्मा वर्तमान में अशुद्ध है, रागीद्वेषी है, कर्म मल सहित है, ऐसी झलकती है। निश्चयनय से यह आत्मा शुद्धज्ञान-दर्शनस्वरूप है, वीतराग है, विकार रहित है, परमानन्द स्वरूप है, परमात्मरूप है। दोनों नयों से पदार्थ को जानकर निश्चय नय के द्वारा आत्मा को अनात्मा से भिन्न जानना भेद विज्ञान है।

जैसे धान्य को निश्चय नय से देखने पर चांवल अलग भूसी अलग दिखलाई देगी। गंदे जल को देखने से जल अलग व मिट्टी अलग दिखलाई देगी। तिलों में तेल अलग व छिलका अलग दिखलाई देगा।

इसी तरह अपने ही आत्मा को देखने से निश्चयनय आत्मा को अलग और कर्मों को व शरीर को अलग दिखलाएगा। इस तरह जो भेद विज्ञान से अपने आत्मा को शुद्ध देखता है, श्रद्धान करता है तथा अनुभव करता है, वही सम्यग्दर्शन का धारी है।