।। प्रमत्तविरत गुणस्थान ।।

अविश्य भाव संजुत्तं, अनुवय भाव सुध संधरनं । (२८)
धम्मं ज्ञानं झायदि, मतिसुत न्यान संजुदो सुधो॥६८५ ।।

अन्वयार्थ – (अविरय भाव संजुत्तं) प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती साधु अविरत भाव से विरक्त हैं महाव्रती हैं (अनुवय भाव सुध संधरनं) बाहरी व्रतों के अनुकूल शुद्ध अहिंसक व निर्ममत्व भाव को भले प्रकार धरने वाला है। (सुधो मतिस्रुत न्यान संजुदो) शुद्ध मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान को रखता है (धम्मं झानं झायदि) और धर्मध्यान को ध्याता है।

भावार्थ - छठवें गुणस्थानवर्ती साधु प्रत्याख्यानावरण कषायों के उपशम से सर्व परिग्रह रहित निग्रंथ है। हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म व परिग्रह - इन पाँच पापों का पूर्ण त्यागी है। पाँच इन्द्रिय व मन सम्बन्धी तथा त्रस-स्थावर के वध सम्बन्धी, ऐसे बारह प्रकार का अविरत भाव, जिसके परिणामों से चला गया है, जो अन्तरंग में शुद्ध आत्मा के रमण में बर्तता है, जिसका मतिज्ञान व श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध है व जो निरन्तर धर्म का ध्यान करता है।

अवहि उवन्नो भावो, वय गहनं भाव संजदो सुधो।(२९)
वैरागं संसार सरीरं, भोगं तिजंति भोग उवभोगं ।।६८६ ।।

अन्वयार्थ - (अवहि भावो उवन्नो) जिसको अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है (वय गहनं भाव संजुदो सुधो) जो महाव्रतों को ग्रहण करता हुआ शुद्ध भाव संयमी है (वैरागं संसार सरीरं भोगं) जो संसार, शरीर तथा पंचेन्द्रिय के भोगों से विरक्त है (भोग उपभोगं तिजंति) अतएव सर्व भोग व उपभोगों का त्यागी है।

भावार्थ - यह महाव्रती साधु व्यवहार में पाँच महाव्रतों को पालता हुआ अन्तरंग में भावों की शुद्धतापूर्वक स्वरूपाचरण चारित्र में लवलीन रहता है। जैसा इसका भेष है, वैसा ही इसका भाव है। यह संसार का लोभ त्यागकर मुक्ति का प्रेमी है। शरीर को अपवित्र नाशवंत जानकर आत्मा को ऐसे शरीर के वास से छुड़ाना चाहता है। इसने इन्द्रियों के भोगों को अतृप्तिकारी जानकर उनका सम्बन्ध त्याग दिया है।

ऐसे पूर्ण वीतरागी साधु के ही अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होकर अवधिज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।

संमत्त सुध चरनं, अवहिं चिंतेइ सुध ससरूवं।(३०)
अप्पा परमप्पानं, परमप्पा निम्मलं सुधं ।।६८७ ।।

अन्वयार्थ - (संमत्त सुध चरनं) यह साधु शुद्ध सम्यग्दर्शन के आचरण को करने वाला है (अवहिं चिंतेइ सुध ससरूवं) अवधिज्ञान का चितवन करने वाला है तथा शुद्ध आत्मा के स्वरूप का अनुभव करने वाला है। (अप्पा परमप्पानं) आत्मा को परमात्मा रूप जानकर (परमप्पा निम्मलं सुधं) निर्मल शुद्ध परमात्मा का अनुभव करता है। ___ भावार्थ - यह साधु निश्चय सम्यग्दर्शन से विभूषित होता है। कभी अवसर पाकर अवधिज्ञान को जोड़कर पूर्व व आगामी भवों की बातें दूसरों को बता देता है। शुद्ध आत्मस्वरूप का भले प्रकार अनुभव करने वाला है, अपने आत्मिक रस में लीन है।

ग्रंथं बाहिर भिंतर, मुक्कं संसार सरनि सभावं।(३१)
महावय गुन धरनं, मूलगुनं धरन्ति सुध भावेन।।६८८ ।।

अन्वयार्थ - (संसार सरनि सभावं) संसार के मार्ग में भ्रमण कराने वाले (बाहिर भिंतर ग्रंथं मुक्कं) बाहरी-भीतरी परिग्रह को त्यागकर (महावय गुन धरनं) महाव्रतों के गुणों को धरने वाले हैं तथा (सुध भावेन मूल गुनं धरन्ति) शुद्ध भावों से मूलगुणों को पालते हैं।

भावार्थ - यह साधु संसार से पूर्ण विरक्त हैं, तब ही संसार के कारण ऐसे ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह को त्यागकर निग्रंथ हो गए हैं।

मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह हैं। क्षेत्र, मकान, गोधन, धान्य, चाँदी, सोना, दासी, दास, कपड़े, बर्तन - यह दस प्रकार के बाहरी परिग्रह हैं।

ऐसे २४ प्रकार के परिग्रह के त्यागी हैं तथा शुद्ध भावों से पाँच महाव्रतों को आदि लेकर अट्ठाईस मूलगुणों को पालने वाले हैं।

पाँच महाव्रत + पाँच समिति + पाँच इन्द्रिय दमन + छह आवश्यक कर्म + स्नान त्याग + दंतधावन त्याग + वस्त्र त्याग + भूमि शयन + खड़े भोजन + एक बार भोजन + केशलोंच - ये अट्ठाईस मूलगुण हैं।

दंसन दह विहि भेयं, न्यानं पंच भेय उवएसं।(३२)
तेरह विहस्य चरनं, न्यान सहावेन महावयं हुंति||६८९।।

अन्वयार्थ - (दंसन दहविहि भेयं) सम्यग्दर्शन दश भेदरूप हैं तथा (पंच भेयन्यानं उवएस) ज्ञान पाँच प्रकार हैं ऐसा उपदेश साधुजन देते हैं। (तेरह विहस्य चरनं) तेरह प्रकार चारित्र पालते हैं। (न्यान सहावेन हुंति महावयं) आत्मज्ञान के स्वभाव में तिष्ठना यह जिनके शुद्ध महाव्रत हैं।

भावार्थ – निग्रंथ साधु स्वयं पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार चारित्र पालते हुए अपने उपदेश में बताते हैं कि सम्यग्दर्शन दस प्रकार का है। उनका स्वरूप पहले कह चुके हैं तथा यह भी बताते हैं कि ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल - ऐसे पाँच भेद हैं।

वे साधु शुद्ध आत्मा के ध्यान में नित्य मगन रहते हैं, यही उनका निश्चय महान् व्रत है।

ध्यानंच धम्म सुक्कं, आरतिरौद्रन दिस्टि दिस्टंतो।(३३)
अप्पा परमप्पानं, न्यान सहावेन महावयं हुति।।६९० ।।

अन्वयार्थ - (ध्यानं च धम्म सुक्कं) जो धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को ही मोक्षमार्ग जानते हैं (आरति रौद्रं दिस्टि न दिस्टंतो) आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान पर अपनी दृष्टि नहीं देते हैं। (अप्पा परमप्पानं) आत्मा को परमात्मारूप जानकर ध्याते हैं। (न्यान सहावेन महावयं हुंति) ज्ञान स्वभाव से उनके महाव्रत होता है। __ भावार्थ - यह छठे प्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु अन्तरङ्ग से ज्ञानपूर्वक महाव्रतों को पालते हैं। धर्म-ध्यान का तो अभ्यास करते हैं; परन्तु शुक्लध्यान को पाने की भावना भाते हैं। शुक्लध्यान आठवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है। आर्त व रौद्रध्यान से अपनी रक्षा करते हैं।

आत्मा को परमात्मा रूप जानकर निरन्तर आत्मा का ही अनुभव करते हैं। निग्रंथ पद छठे गुणस्थान से प्रारम्भ है । गोम्मटसार में कहा है -

“सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानावरण कषाय के उपशम से जिसके पूर्ण संयम है; परन्तु साथ में चार संज्वलन कषाय तथा नौ नोकषाय के उदय से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी है, इसलिए इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं।।

यह महाव्रती सम्पूर्ण मूलगुण और शील भाव से युक्त होते हुए भी प्रगट (अनुभवगोचर) व अप्रगट प्रमाद को रखने वाले हैं। इनका आचरण चित्रल होता है अर्थात् कभी तो यह ध्यानमग्न हो जाते हैं, कभी यह आहार-विहार करते हैं या धर्मोपदेश देते हैं।'

सातवें से लेकर सर्व गुणस्थान ध्यानमयी ही हैं।

इस छठे गुणस्थान में ही मुनि के प्रवृत्ति रूप चारित्र होता है। इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है, फिर सातवाँ हो जावे । सातवें से छठा हो जावे ऐसा बार-बार हो सकता है। पंचम गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त भी है व जीवनपर्यन्त भी (रहता) है।

आगे के सर्व गुणस्थानों का काल अंतर्मुहूर्त है, मात्र तेरहवें का जीवनपर्यन्त है, उसमें चौदहवें गुणस्थान का काल रह जाता है। प्रमादों का विशेष स्वरूप गोम्मटसार से जानना चाहिए।