उग्ग वत तवादि जुत्तं, तव वय क्रिया स्रुतं च अन्यानं । (७) मिच्छात दोष सहियं, मिच्छत्त गुनस्थान व्रत संजुत्तं ॥६६४।।
अन्वयार्थ – (उग्ग वत तवादि जुत्तं) बहुत कठिन व्रत-तप आदि सहित हो परन्तु (मिच्छात दोस सहियं) मिथ्यात्व के दोष से सहित हो तो (तव वय क्रिया-स्रुतं च अन्यानं) तप, व्रत, क्रिया व शास्त्रज्ञान सब मिथ्याज्ञान सहित हैं (व्रत संजुत्तं मिच्छत्त गुनस्थान) वह व्रती होकर भी मिथ्यात्व गुणस्थान वाला है।
भावार्थ - ऊपर कही गाथाओं में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया है। जिसके आपा पर का भेद विज्ञान नहीं है, जो आत्मा को पर से भिन्न अनुभव नहीं कर सकता है, वही मिथ्यात्व गुणस्थान का धारी पर्यायबुद्धि बहिरात्मा है। उसके मिथ्यात्व कर्म व अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय विद्यमान है।
वह चाहे बहुत बड़ा तपस्वी हो - महाव्रत या अणुव्रत का धारी हो, बहुत क्रियाकांड में मगन हो या बहुत शास्त्रों का ज्ञाता हो; तथापि मिथ्यात्व सहित उसका यह सब कार्य अज्ञानमय है। क्योंकि न तो उसको मोक्ष का, न मोक्षमार्ग का सच्चा श्रद्धान है। उसके भीतर विषय कषाय का कोई अभिप्राय अवश्य मोजूद है; जिसके वशीभूत होकर वह व्यवहार चारित्र पाल रहा है। वह आत्मिक रस के स्वाद से बाहर है।
श्री गोम्मटसार में इस गुणस्थान का स्वरूप इस प्रकार कहा है –
“मिथ्यात्व भाव को अनुभव करने वाला जीव, विपरीत श्रद्धान सहित होता है। उसको आत्मिक सच्चा धर्म उसी तरह नहीं रुचता है, जैसे ज्वर से पीड़ित मानव को मधुर रस नहीं रुचता है।
अनादिकाल से जो जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में पड़े हैं, उनके मिथ्यात्व कर्म व अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय है, वे अनादि मिथ्यादृष्टि हैं।
जो सम्यक्त्व को पाकर फिर मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं। उनके किसी के दर्शन मोह की तीनों प्रकृति व चार अनन्तानुबन्धी कषाय इसतरह सात प्रकृति का व किसी के पाँच का ही उदय रहता है।
मिथ्यात्व गुणस्थान ही संसार के भ्रमण का मूल है।"