।। सयोगकेवली गुणस्थान ।।

संजोगे केवलिनो, आहार निहार विवज्जिओ सुधो।(४३)
केवल न्यान उवन्नो, अरहंतो केवली सुधो॥७०१ ।।

अन्वयार्थ – (संजोगे केवलिनो) सजोग केवली भगवान (आहार निहार - विविजिओ सुधो) आहार व निहार दोनों से रहित शुद्ध वीतराग होते हैं (केवल न्यान उवन्नो) जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है (अरहंतो केवल सुधो) वे ही पूज्यनीय अरहंत परमात्मा केवली शुद्धोपयोगी सयोग केवलि जिन गुणधारी हैं।

भावार्थ - जब चारों घातिया कर्म का क्षय हो जाता है, तब निग्रंथ साधु बारहवें से तेरहवें में आकर केवलज्ञानी अहंत परमात्मा सयोगी जिन कहलाते हैं। यहाँ अभी योगों का हलन-चलन है।

इस से उपदेश होता है व विहार होता है। आत्मा में अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य प्रकाशमान है। इसी से शरीर सहित सकल या जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाते हैं।

केवली भगवान को क्षुधा की बाधा नहीं सताती है। न वे भिक्षा के लिए जाते हैं। न वे कवलाहार करते हैं। उनके मात्र शरीर को पोषण करने वाली नोकर्म वर्गणाओं का आहार स्वतः शरीर में उसी तरह हो जाता है, जैसे वृक्षों के लेपाहार होता है।

न उनके मलमूत्र का नीहार होता है। उनका शरीर शुद्ध कपूर की तरह धातु-उपधातु रहित होता है। वे स्फटिक रत्न की तरह तेजस्वी शरीरधारी होते हैं। वे शुद्धोपयोग में लीन हैं। परम वीतराग हैं। उनकी शांत मुद्रा का दर्शन करके देव, मानव, पशु सब तृप्त हो जाते हैं। उनको सर्व ही भव्य जीव भद्र परिणामी पूजते हैं व नमन करते हैं।

श्री गोम्मटसार में कहा है – "जिनके केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान का सर्वथा नाश हो गया है, जिनके नव केवल लब्धियाँ प्राप्त हैं, उसी से उन्होंने परमात्मा नाम पाया है।

वे नवगुण हैं - क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त वीर्य।

वे भगवान, अतीन्द्रिय-असहाय ज्ञान व दर्शन के धारी हैं। योगों से युक्त होने के कारण सयोगी हैं। घातिया कर्मों के जीतने से जिन हैं । ऐसा अनादिनिधन ऋषि प्रणीत आगम में कहा है।"