।। अन्यत्वभावना ।।
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-इसप्रकार मन को समाधानयुक्त करनेवाले को इस शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।‘‘

‘संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ देनेवाले नहीं है‘ - इस तथ्य से अनित्यादि भावनाओं एवं ज्ञानी के चिंतन से भलीभाँति परिचित हो जाने पर भी अज्ञानी को अज्ञानवश एवं ज्ञानी को भी कदाचित् रागवश थोड़े-बहुत इसप्रकार के विकल्प बने ही रहते हैं कि अनित्य सही, अशरण सही, असार सही, साथी न सही; पर शरीरादि संयोगी पदार्थ हैं तो अपने ही; निश्चय से न सही, पर व्यवहार से तो अपने हैं ही; जिनवाणी में भी तो व्यवहार से उन्हें अपना कहा है।

व्यवहार के बल से उत्पन्न इसीप्रकार की विकल्पतरंगों के शमन के लिए संयोगी परद्रव्यों से निज परमात्मतत्त्व पारमार्थिक अत्यंत भिन्नता का अनेक प्रकार से किया गया चिंतन ही अन्यत्वभावना है। इसी चिंतन के बल से व्यवहार पक्ष शिथिल होता है और पारमार्थिक निश्चय पक्ष प्रबल होता है। प्रतिसमय वृद्धिसंगत व्यवहार की निर्बलता और परमार्थ की प्रबलता ही निर्जरा है, जो मुक्ति का साक्षात् कारण है।

आत्मा और शरीरादि संयोगों में परस्पर भिन्नता और अभिन्नता की वास्तविक स्थिति क्या है? - इस बात का सोदाहरण चित्रण करते हुए पंडितप्रवर दौलतरामजी लिखते हैं -

‘‘जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
ते प्रगट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।

यद्यपि आत्मा और शरीर पानी और दूध की भाँति मिले हुए हैं; तथापि वे अभिन्न नहीं है, पूर्णतः भिन्न-भिन्न ही हैं। जब एकक्षेत्रावगाही शरीर भी जीव से भिन्न है तो फिर धन-मकान, पुत्र-पत्नी तो प्रकट ही भिन्न हैं, वे जीव के कैसे हो सकते है?‘‘

इसीप्रकार का भाव ‘पद्यनंदिपंचविंशति‘ में भी व्यक्त किया गया है -

‘‘क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनो।
भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा।।

देह और आत्मा की स्थिति दूध और पानी के समान एकत्रित मात्र है। जब एकक्षेत्रावगाही शरीर और आत्मा ही भिन्न-भिन्न हैं तो प्रत्यक्ष भिन्न स्त्री आदि का क्या कहना?‘‘

पंडित दीपचंदजी कृत बारह भावना में यह बात और भी अधिक स्पष्टरूप से कही गयी है-

‘‘जा तन में नित जिय वसै, सो न आपनो होय।
ते प्रतक्ष जो पर दरब, कैसे अपने होय।।

जिस शरीर में जीव नित्य रहता है, जब वह शरीर ही अपना नहीं होता, तब जो परद्रव्य प्रत्यक्ष पर हैं, वे अपने कैसे हो सकते हैं?‘‘

यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब अन्यत्वभावना में शरीरादि संयोगों से जीव को अत्यंत भिन्न बताना ही अभीष्ट है तो फिर यहाँ यह कहने से क्या साध्य है कि जीव और शरीर पानी और दूध के समान मिल हुए हैं?

भाई! बात यह है कि अनादिकाल से यह अज्ञानी प्राणी यह मानता आ रहा है कि जीव और शरीर एक ही हैं; क्योंकि इसे सशरीर जीव तो सर्वत्र दिखाई देते हैं, पर देह से भिन्न भगवान आत्मा कभी दिखाई नहीं दिया तथा जिनवाणी में भी व्यवहारनय से जीव और शरीर को एक कहा गया है।

समयसार की २७वीं गाथा में साफ-साफ लिखा है -

‘‘ववहारणयो भासदि जीवो देहो हवदि खलु एक्को।
व्यवहारनय से जीव और शरीर एक ही है।‘‘

पर साथ-साथ यह भी लिखा है -

‘‘ण दु णिच्छयस्य जीवो देहो य कदा वि एकठ्ठो।

निश्चयनय से जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते।‘‘

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जब जिनवाणी में व्यवहार से ही सही, जीव और शरीर को एक कहा गया है तो उसे वैसे ही तो नहीं उड़ाया जा सकता। व्यवहारनय से कथित जीव और शरीर की एकता का वास्तविक स्वरूप क्या है? - यह बात भलीप्रकार समझे बिना उनकी परस्पर पारमार्थिक भिन्नता भी सही रूप में समझ में नहीं आ सकती।

जीव और देह की पारमार्थिक भिन्नता समझने के लिए पहेल उनकी व्यावहारिक एकता की वास्तविक स्थिति जानना आवश्यक है, अन्यथा व्यवहारिक एकता की तात्कालिक उपयोगिता के साथ-साथ स्वाभाविक भिन्नता का भी भलीभाँति परिचय प्राप्त नहीं होगा, पारमार्थिक प्रयोजन की भी सिद्धि नहीं होगी; अतः देह और आत्मा की पारमार्थिक भिन्नता के साथ-साथ व्यावहारिक एकता का ज्ञान भी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है; पर ध्यान रहे इनकी पारमार्थिक भिन्नता तो भिन्नता जानने के लिए है ही, व्यावहारिक एकता का स्वरूप जानना भी पारमार्थिक भिन्नता जानने के लिए ही है।

अन्यत्वभावना में मूलभूत प्रयोजन पर से अन्यत्व है, एकत्व नहीं। व्यावहारिक एकता को तो प्रयोजनपुरतः मात्र जान लेना है, वहाँ जमना नहीं है; रमना नहीं है; पर पारमार्थिक भिन्नता को तो जानना भी है, मानना भी है और पर से भिन्न निज में जमना भी है, रमना भी है, निज में ही समा जाना है।

पर से भिन्न निज में समा जाना ही वास्तविक अन्यत्वभावना है। छहढाला के उक्त कथन में ‘जल-पय ज्यों जिन-तन मेला‘ कहकर जीव और शरीर की एकता की वास्तविक स्थिति स्पष्ट की गई है और ‘पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला‘ कहकर पारमार्थिक भिन्नता स्पष्ट कर दी गई है।

उक्त पद में बहुत गहरी बात कही गई है कि जीव और शरीर की एकता वास्तविक एकता नहीं; मात्र मिलावट है, मेला है।

जिसप्रकार मेले में विभिन्न प्रकार के लोग सर्वप्रकार से भिन्न-भिन्न होकर भी एकत्रित हो जाते हैं; उनके एकत्रित हो जाने से वे एक नहीं हो जाते, भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। उसीप्रकार जीव और शरीर सर्वप्रकार से भिन्न-भिन्न होकर भी एकत्रित हो गये हैं। उनके एकत्रित हो जाने से वे एक नहीं हो जाते, भिन्न-भिन्न ही रहते हैं।

जिसप्रकार एकत्रित व्यक्तियों के समूह को मेला कहा जाता है, पर वस्तुतः उन समूहगत व्यक्तियों में प्रत्येक का व्यक्तित्व रंचमात्र भी विलीन नहीं होता, खंडित नहीं होता; स्वतंत्ररूप से अखंडित बना रहता है; क्योंकि अमिल-मिलाप स्वभाववाले व्यक्ति वस्तुतः कभी मिल ही नहीं सकते हैं। मेला तो मेला है, उसमें एकता संभव नहीं है; मेले में एकता खोजना मेले का मेलापन खो देना है।

उसीप्रकार एकत्रित देह और आत्मा को व्यवहार जीव कहा जाता है, पर वस्तुतः देह और आत्मा कभी भी एक नहीं होते, परस्पर विलीन नहीं होते; उनका स्वरूप खंडित नहीं होता, स्वतंत्ररूप से अखंडित ही बना रहता है; क्योंकि अमिल-मिलापवाले जड़ और चेतन पदार्थ कभी मिल ही नहीं सकते हैं। जीव और शरीर का भी मेला तो मेला ही है, उनमें एकता खोजना दोनों के स्वरूप को खंडित कर देना है।

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