।। अशरणभावना ।।
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संवेदनशील बिन्दुओं को स्पर्श कर आचार्यदेव हमें जागृत करना चाहते हैं। मर्मस्थल पर की गई चोट निष्फल नहीं जाती। यही कारण है कि करुणासागर संत मृत्यु की अनिवार्यता एवं अशरणता सम्बंधी मर्म-भेदी सत्य को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत कर कल्पनालोक में विचरने की वृत्ति को झकझोर कर तोड़ देना चाहते हैं। प्रयत्न करके देखें, शाय बच जायें, कोई बचा ले-इसप्रकार की संशयात्मक वृत्ति को या इसीप्रकार के रागात्मक विकल्पों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने की चिन्तनात्मक वृत्ति ही अशरणभावना है।

अनित्य या अशरण भावना के सन्दर्भ में मृत्यु की अनिवार्यता और अशरणता की चर्चा समस्त संयोगों और पर्यायों के वियोग की अनिवार्यता एवं अशरणता के प्रतिनिधि के रूप में ही समझना चाहिए।

अशरणभावना सम्बंधी उक्त विश्लेषण के सन्दर्भ में एक प्रश्न यह भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि अशरणभावना में अशरण ही नहीं, शरण भी बताये गये हैं; अतः यह कहना कि ‘कोई शरण नहीं है‘ - क्या अर्थ रखता है?

उक्त कथन की पुष्टि में निम्नांकित छंद प्रस्तुत किए जा सकते हैं -

‘‘शुद्धातम अरु पंच गुरु, जग में सरनौ दोय।
मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय।।

इस जगत में अपना शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी-ये दो ही शरण हैं। फिर भी इस जीव के मोहोदय के कारण व्यर्थ अन्य कल्पनाएँ हुआ करती हैं।

शरण न जिय को जगत में, सुर-नर-खगपति सार।
निश्चय शु़द्धात्म शरण, परमेष्ठी व्यवहार।।

जीव को जगत में न तो मनुष्य की शरण प्राप्त होती है, न देवताओं की और न विद्याधरों की। निश्चय से तो एकमात्र अपने शुद्धात्मा की ही शरण है और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी भी शरणभूत कहे जाते हैं।

यद्यपि स्थूलदृष्टि से देखने पर ऐसा भ्रम हो जाना असंभव नहीं है, तथापि गहराई से विचार करने पर यह अत्यंत स्पष्ट प्रतीत होता है कि सभी संयोग और पर्यायें अशरण ही हैं; क्योंकि निश्चितक्रमानुसार स्वसमय में होनेवाले संयोगों के वियोग एवं पर्यायों के व्यय को रोकने में पंचपरमेष्ठी और शुद्धात्मा भी तो समर्थ नहीं है, शरण नहीं है; अतः संयोग और पर्याये तो अशरण ही है।

यदि ऐसा है तो फिर जिनवाणी में निश्चय से शुद्धात्मा को और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी या रत्नत्रयधर्म को शरण क्यों कहा है?

इन्हें शरण कहनेका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ये तुझे मरने से बचा लेंगे या संयोगों के वियोगों को रोक देंगे या पर्यायों के परिणमन को अवरुद्ध कर देंगे या जगत को तेरी इच्छानुसार परिणमित कर देंगे।

वस्तु का परिणमन (संयोग-वियोगरूप) तो जब जैसा होना है, वैसा ही होगा; उसमें तो किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन किसी केे भी द्वारा सम्भव नहीं है, न शुद्धात्मा के द्वारा और न पंचपरमेष्ठी द्वारा ही। हाँ, यह बात अवश्य है कि परिवर्तन करने के संकल्प-विकल्पों में उलझे आकुल-व्याकुल प्राणी यदि शुद्धात्मा या पंचपरमेष्ठी का आश्रय लें, तो तत्संबंधी आकुलता-व्याकुलता से मुक्त अवश्य हो सकते हैं।

शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी की शरण का मात्र यही आशय है, इससे अधिक और कुछ नहीं। दोनों बातें अत्यंत स्पष्टरूप से भिन्न-भिन्न हैं -

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(१) मृत्यु से बचने के लिए शरण खोजने की बात।

(२) आकुलता-व्याकुलता से बचकर सुखी होने के लिए शरण खोजने की बात।

शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी-दोनों मे मृत्यु से बचने के लिए कोई शरण नहीं है; किन्तु आकुलता-व्याकुलता से बचकर सुखी रहने के लिए शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी ही शरण हैं।

इसप्रकार हम देखते हैं कि अशरणभावना में जिन्हें अशरण बताया गया हैं, वे जनम-मरण आदि संयोग तो पूर्णतः अशरण ही हैं; अतः अशरणभावना पूर्णतः अशरणस्वरूप ही है, शरण और अशरण के मिश्रणरूप नहीं।

उक्त स्पष्टीकरण के सम्बंध में एक प्रश्न सहजरूप से उपस्थित होता है कि यदि अशरणभावना अशरणरूप ही है, तो फिर उसमें शरण की चर्चा ही क्यों की गई? इस अनावश्यक चर्चा से व्यर्थ के भ्रम खडे़ हो जाते हैं।

भाई! यह चर्चा अनावश्यक नहीं, अत्यंत आवश्यक है। आगम में अनावश्यक चर्चायें नहीं की जाती। उसमें जो भी चर्चा होती है, उसका अपना एक विशेष प्रयोजन होता है। हमें उस प्रयोजन को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।

अशरणभावना का मूल प्रयोजन संयोगों और पर्यायों की अशरणता का ज्ञान कराकर दृष्टि से वहाँ से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए संयोगों और पर्यायों को अशरण बताया जाता है और इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी को शरणभूत या परमशरण बताया जाता है।

अंतर मात्र इतना है कि संयोगों और पर्यायों की अशरणता, दृष्टि को उन पर हटाने के लिए बताई जाती है और शुद्धात्मा को शरणभूत, दृष्टि को उस पर केन्द्रित करने की पे्ररणा देने के लिए बताया जाता है।

अशरणभावना में अकेली अशरणता की चर्चा अपना प्रयोजन सिद्ध करने में असमर्थ होने से अधूरी ही रहती; क्योंकि संयोगों और पर्यायों के अशरण बताये जाने पर दृष्टि को वहाँ से हटाने की प्रेरणा तो मिलती; परंतु परमशरणभूत शुद्धात्मा के भान बिना, शुद्धात्मा को शरणभूत बताये बिना दृष्टि जमती कहाँ? यही कारण है कि दृष्टि के विषयभूत शुद्धात्मा को शरण बताना आवश्यक समझा गया।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अशरणभावना में संयोगों और पर्यायों की अशरणता की चर्चा को पूर्णता प्रदान करनेवाली होने से शुद्धात्मा की चर्चा अनावश्यक नहीं, अपितु परमावश्यक है।

शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त धर्म को भी शरण कहा जाता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका में पंडित सदासुखदासजी लिखते हैं:-

‘‘इस संसार में एक सम्यग्ज्ञान शरण है, सम्यग्दर्शन शरण है, सम्यक्चारित्र शरण है और सम्यक्तप-संयम शरण है। इन चार आराधना बिना अनंतानंतकाल मे कोई शरण नहीं है तथा उत्तमक्षमादिक दश धर्म प्रत्यक्ष इस लोक में समस्त क्लेश, दुःख, मरण, अपमान, हानि से रक्षा करनेवाले हैं।

ज्ञान के घनपिंड, आनंद के कंद, परमशरणभूत निजपरमात्मतत्त्व से अपरिचित प्राणी प्राप्तपर्याय और संयोगों में ही तन्मय हैं। वे पर्यायों के परिवर्तन और संयोगों के विघटन से निरंतर आकुल-व्याकुल हो रहे हैं। व्याकुलता से बचने के लिए यद्यपि वे निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं - शरण खोजते रहे हैं; तथापि स्थिति वहीं की वहीं रही। रहना ही थी; क्योंकि स्वयं मरणशील अशरणस्वभावी पर्यायों और संयोगों को शरण कौन दे, कैसे दे, क्यों दे?

इस समस्या का निदान ही यह अशरणभावना है; जिसमें इस तथ्य का चिंतन किया जाता है, बार-बार विचार किया जाता है कि मरण जिनका स्वभाव है, उन्हें कौन बचावे? अशरण जिनका स्वभाव है, उन्हें कौन शरण दे?

उनका विघटन तो अनिवार्य है-इस सत्य की स्वीकृति में ही शांति है, आनंद है। यदि शांति और आनंद की चाह है तो आनंद के धाम और शांति के सागर आत्मस्वभाव में समा जाओ, वही परमशरण है। आत्मस्वभाव की आराधनारूप धर्म भी शरण है, उसके प्रतिपादक देव-गुरु-शास्त्र भी शरण हैं।

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