।। अशरणभावना ।।
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इन सबकी शरण में जाने से पर्यायों और संयोगों का विघटन तो न मिट सकेगा, पर तज्जन्य आकुलता और अशांति अवश्य मिट जावेगी।

अशरणभावना का सर्वांग स्वरूप स्पष्ट करनेवाली वृहद्द्रव्यसंग्रह की निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -

‘‘अथाशरणनुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठयाराधनश्च शरणं, तस्माद्वहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवत्र्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतनाः गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञा-प्रसादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव महासमुद्रे पोतच्युत पक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भोगकांक्षारूपनिदानबंधादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिस-मुत्पन्नसुखामृतसालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं श्रणागतवज्रपज्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता।

अब अशरणभावना कहते हैं - निश्चयरत्नत्रयपरिणत निजशुद्धात्मद्रव्य और उसके बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठी की आराधना शरण है। इनके अतिरिक्त इन्द्र, चक्रवर्ती, कोटिभट सुभट पुत्रादि चेतन पदार्थ; पर्वत, किला,गुफा, मणि, मंत्र, आज्ञा, महल, औषधि आदि अचेतन पदार्थ तथा दोनों के सम्मिलितरूप मिश्र पदार्थ - ये सब मरण आदि के समय में महा-अटवी में व्याघ्र द्वारा पकड़े गये हिरणशावक की भाँति अथवा महासागर में जहाज से च्युत पक्षी की भाँति शरण नहीं होते हैं - ऐसा जानना चाहिए।

यह जानकर भोगों की वांछारूप निदानबंधादि का अवलम्बन न लेकर स्वसंवेदन से उत्पन्न सुखामृत के धारक शुद्धात्मा का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है, शरण है। जो इसप्रकार की शुद्धात्मा का शरण ग्रहण करता है, वह शुद्धात्मा की शरण में उसीप्रकार सुरक्षित हो जाता है, जिसप्रकार वज्र के पिंजरे में मृगादि व्याघ्रादि से सुरक्षित रहते हैं।

इसप्रकार अशरण भावना का व्याख्यान समाप्त हुआ।‘‘

सभी आत्मार्थीजन निजस्वभाव की शरण ग्रहण कर अनंतसुखी हों - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।

आज नहीं तो कल

त्मानुभवी सत्पुरुषों के सम्पर्क में आकर शुद्धात्मतत्त्व के प्रतिपादक शास्त्रों को पढ़कर आत्मा की चर्चा-वार्ता करना अलग बात है और शुद्धात्मा का अनुभव करना अलग।

अधिकांश जगत तो गतानुगतिक ही होता है। जो जिसप्रकार के वातावरण में रहता है, उसीप्रकार की बातें करने लगता है, व्यवहार करने लगता है; परंतु वस्तु की गहराई तक बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं। अधिकांश तो हाँ में हाँ मिलानेवाले और ऊपर से वाह-वाह करनेवाले ही होते हैं।

जो लोग तत्त्व की गहराई तक पहुँच जाते हैं, उन्हें तो परमतत्त्व की प्राप्ति हो ही जाती है; किंतु जो अपनी स्थूल बुद्धि के कारण परमतत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, उन्हें भी इतना लाभ तो होता ही है कि वे जगत केे वासनामय कषायमय विषाक्त वातावरण से तो बहुत-कुछ बचे रहते हैं, उनका जीवन सहज सात्विक बना रहता है, परिणामें में भी निर्मलता बनी रहती है।

तथापि यदि अच्छी होनहार हो काल पाकर उनकी भी पुरुषार्थ जागृत हो जाता है और आज नहीं तो कल वे भी निजतत्त्व तक पहुँच ही जाते हैं।

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