।। गुरूभक्ति की महिमा ।।

jain temple394

सोमदत्ता को उसके व्यवहार से गहरा आघात लगा पर अबला होने के कारण वह कुछ न कर सकी, तब उसने म नही मन निश्चय किया जिस पैर से तूने मुझे स्त्री होने के कारण मारा है, उसका बदला मैं अभी तोन ले सकी, पर अगले जनम में अवश्य लूंगी। कभी मैं तेरे इस पैर का खाऊंगी तीाी मुझे संतोष होगा।’ ये वैर और स्नेह के संस्कार जन्म-जन्मान्तर तक चलते हैं। कालान्तर में वायुभूति सुकुमाल मुनि हुए और भाभी का जीव सियारनी हुआ और उसने मुनि को ध्यान करते हुए देखकर पूर्व भव के वैर से उनके पैर को खाया।

देखों! लौकिक स्वार्थवश भी दीक्षा लेने से सूर्यमित्र एक दिन केवली बन गए, उन्होंने लौकिक स्वार्थ से गुरूभक्ति की थी फिर भी उनके लिए फलीभूत हो गयी ऐसी इस गुरूभक्ति की महिमा है। शास्त्रों में वर्णन आया है कि प्रयाग में नमि-विनमि ने भगवान ऋषभदेव से राज्य मांगते हुए धरना दे दिया और नाना प्रकार से भगवान ऋषभदेव की भक्ति की, तब वनदेवता का आसन कांपा और उन्होंने उस भक्ति को फलीभूत कर उन्हें विद्याधरों का राजा बना दिया। वास्तव में गुरूभक्ति मिश्री के समान सदैव फलदायी होती है।

मैंने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी के पास रहकर उनकी कठोर तपश्वर्या, सच्ची तपस्या, निश्छल जीवन एवं अनुशासन आदि को देखा है। ऐसे गुरूओं की भक्ति कर आप सब अपने जीवन को सफल करते हुए एक दिन परम पूज्य पद को प्राप्त करें, यही मंगल आर्शीवाद है।

2
1