।। शुद्धाात्मा के अनुभव में जिनशासन ।।
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जिन शुभरागरुप प्रतिक्रमणादि को व्यवहारशास्त्र अमृत कहते हैं, उसे समयसार-मोक्ष अधिकार में निश्चय से विष कहा है। इस कथन का आशय यह है कि जिसे आत्मा के चिदानन्दस्वभाव का भान हुआ है, अतीन्द्रिय अमृत का अनुभव हुआ है किंतु अभी जब तक, उसमें लीन होकर स्थिर नहीं हुआ, तब तक बीच में तो व्यवहार-प्रतिक्रमणादि का शुभराग आता है, वह निश्चय से विषकुम्भ है, क्योंकि उसमें आत्मा का निर्विकल्प अमृत लुटता है।

देखो, यह कुन्दकुन्दाचार्यदेव की वाणी है। उनकी तो रचना ही अद्भुत है। व्यवहार करते-करते धर्म हो जाएगा - ऐसा मानकर जो राग की मिठास का वेदन करता है, वह जीव तो विष के स्वाद में मिठास मानता है; उसे आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्दरूप अमृत का पता नहीं है।

समयसार, मोक्ष अधिकार में शिष्य पूछता है कि प्रभो! आप तो पहले से शुद्ध आत्मा का अवलम्बन करना ही बतलाते हैं किंतु वहां तक तो हम नहीं पहुंच सकते, इसलिए पहले तो हमें यह शुभरागरूप व्यवहार ही करने दीजिए न! व्यवहार करते-करते शुद्धात्मा के आनन्द अनुभवरूप अमृतपद प्राप्त हो जाएगा; इसलिए हमें तो व्यवहार ही अमृत का घड़ा है न?

इसके उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई! तेरा माना हुआ व्यवहार तो मात्र विष का ही घड़ा है; उसे तो हम व्यवहार से भी अमृत नहीं कहतेर। अंतर्मुख होकर राग रहित शुद्धात्मा के अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव हो, वह साक्षात् अमृतकुम्भ है, वही निश्चय से अमृत है और उसके लक्ष्यपूर्वक व्यवहार प्रतिक्रमणादि का जो शुभभाव धर्मी को आता है, उसे व्यवहार से अमृत कहा है; तथापि निश्चय से तो वह भी विषकुम्भ ही है।

अहो! जिसे आचार्यदेव ने विषकुम्भ कहा, उसे जैनशासन कैसे कहा जा सकता है? राग, जैनशासन नहीं है। जैनशासन कहो, जिनेन्द्रदेव का उपदेश कहो, या भगवान की आज्ञा कहो, एक ही बात है। राग करने की आज्ञा, वीतराग भगवान की कैसे हो सकती है। वीतराग भगवान, राग को धर्म कैसे कह सकते हैं? जिन शासन में कहीं भी भगवान का ऐसा उपदेश नहीं है कि राग से धर्म होता है। वीतरागीश्रद्धा, वीतरागीज्ञान और वीतरागी आचरण रूप शुद्धभाव को ही जिनशासन में भगवान ने धर्म कहा है और वहीं भावी भव-भंजक है। पुण्य में भावी भव का भंजन करने की शक्ति नहीं है।

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जिनशासन के सर्व उपदेश का तात्पर्य

जिनशासन उसे कहा जाता है कि जिसके क्षणमात्र के सेवन से अवश्य मोक्ष की प्राप्ति हो अर्थात् तीव का परमहित हो। भगवान का उपदेश जीवों की भलाई के लिए है। ‘पुण्यभाव, धर्म नहीं है; पुण्य से धर्म नहीं होता’ - ऐसा जो जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, वह भी जीवों की भलाई के लिए ही है। पुण्य से धर्म नहीं होता, इसलिए ऐसा नहीं कहते कि पुण्य को छोड़कर पाप में जाना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान कभी भी नीचे गिरने को नहीं कहते, किंतु पुण्य, धर्म नहीं है - ऐसा कहकर रागरहित चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करने को कहते हैं अर्थात् ऊपर उठाते हैं। इस प्रकार संसार मार्ग से छुड़ाकर मोक्षमार्ग में ले जाने के लिए भगवान का उपदेश है।

अहो! भगवान का उपदेश अहितमार्ग से छुड़ाकर हितमार्ग में लगाने का है, तथापि उसका विपरीत अर्थ लेकर ‘पुण्य, धर्म नहीं है; इसलिए पुण्य छुड़ाकर पाप करने को कहते हैं’ - ऐसा मानने वाला तो महान स्वच्छन्दी और अनन्द संसार में परिभ्रमण करने वाला है। ऐसे जीव की तो भगवान का उपदेश सुनने की योग्यता भी नहीं है। भगवान की वाणी तो जीवों के हित के लिए ही है - धर्म की वृद्धि के लिए ही है; जीवों को संसार से छुड़ाकर मोक्ष में ले जाने के लिए ही भगवान का सर्वउपदेश है।

जिज्ञासु-आत्मार्थी तो ऐसा विचार करता है कि अहो! ‘पुण्य, धर्म नहीं है’ - ऐसा कहकर भगवान मुझे राग से भी पार मेरा चैतन्यस्वभाव बतलाकर उसका अनुभव कराना चाहते हैं। इस प्रकार स्वभावोन्मुख होकर वीतरागीश्रद्धा-ज्ञान प्रगट करके, वह अपना हित साधता है।

हित करना हो तो उसका उपाय जानो!

यहां आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि जो रागरहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव है, वही जिनशासन है और राग, वास्वत में जैनशासन नहीं है अर्थात् अपनी स्वभावोन्मुखता से जो शुद्ध परिणाम हुए, उसी में तेरा हित है; राग में हित नहीं है। प्रारंभ में ही राग सर्वथा दूर नहीं हो जाता है। धर्मी को भी राग तो होता है किंतु प्रथम ऐसी पहिचान करना चाहिए कि यह राग मेरे स्वभाव से भिन्न जाति का है; मेरा हित तो सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव में ही है। इस प्रकार यथार्थ समझे तो शुद्धभाव प्रगट करने और राग को टालने का उद्यम करे, किंतु राग को ही टालने का उद्यम किसलिए करेगा? इसलिए हे भाई! तेरा हित कहां है? - यह तो निश्चित कर! हित का उपाय जाने बिना किंतु अभी तक कंचित भी हित नहीं हुआ है; इसलिए यहां संत तेरे हित का सच्चा उपाय बतलाते हैं।

‘हितोपदेश’ जिनशासन में ही है

हित का सच्चा उपाय जिनशासन में ही है। हित का कारण जो शुद्धरत्नत्रय, उसका यथार्थ उपदेश जिनशासन में ही हैं और इसलिए जिनशासन की श्रेष्ठता है। साधारणतः दया-दानादि पुण्य का उपदेश तो सभी देते हैं किंतु वह कहीं हितोपदेश नहीं है। जिनशासन में आत्मा का ज्ञान-आनन्द से परिपूर्ण स्वभाव बतलाकर उसकी श्रद्धा-ज्ञान तथा उसमें लीनता करने का उपदेश है और वही सच्चा हितोपदेश है। पुण्य का शुभराग भी चारित्रमोह का प्रकार है; उस मोह में हित कैसे होगा? वह धर्म कैसे हो सकता है? उसे जैनशासन कैसे कह सकते हैं? जिनशासन में तो मोहरहित शुद्धात्मपरिणाम को ही धर्म कहा है, उसी में हित है और वही जिनशासन है।

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