यह भावप्रभृत की वचनिका हो रही है। इसमें आचार्यदेव कहते हैं कि आत्मा ज्ञान-आनन्दस्वरूप है, शुद्ध ज्ञानचेतना उसका स्वभाव है और पुण्य-पाप, वह अशुद्धभाव है, वह उसका स्वभाव नहीं है। जिसे ऐसे आत्म की श्रद्धारूप शुद्धभाव की भूमिका हो, उसी को धर्म होता है; इसके अतिरिक्त धर्म नहीं होता। धर्म, वह रागरहित शुद्धभाव है और सम्यग्दर्शन उसकी भूमिका है। सम्यग्दर्शन के बिना सब व्यर्थ है। सम्यग्दर्शन सहित की भूमिका में सोलह कारण भावना का भाव आने पर किसी जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है किंतु दर्शनविशुद्धि के बिना तो किसी जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध नहीं होता। दूसरी पंद्रह भावनाएं विशेषरूप से नहीं, तथापि अकेली दर्शनविशुद्धि उनका कार्य कर लेती है और वह दर्शनविशुद्धि, सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होती; इसलिए उन सम्यग्यदर्शनादि शुद्धभावों का ही माहात्म्य है। जैनशासन में राग का माहात्म्य नहीं है किंतु शुद्धभाव का ही माहात्म्य है।
देखो, यहां कहते हैं कि तीर्थंकर प्रकृति की अचिन्तय महिमा है तथा तीर्थंकर भगवान, तीन लोग से पूज्य हैं, किंतु उस तीर्थंकर प्रकृति का बंध किसे होता है? जिसे दर्शनविशुद्धि हो और विरक्त भाव हो - ऐसे जीव को सोलहकारण भावना से वह प्रकृति बंधती है। वहां भी जो राग है, वह कहीं धर्म नहीं है किंतु उसके साथ सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव हैं, वहीं धर्म है और उसी की यथार्थ महिमा है।
तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो, वह भी आस्रव-बंध है, और उसके कारणरूप स्वभाव है, वह भी विकार; उसकी भावना ज्ञानी को नहीं है और अज्ञानी को तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता।
धर्मी को आनन्दकंद चैतन्यस्वभाव की ही भावना है। ऐसे धर्मी को बीच में राग तीर्थंकरप्रकृति बंध जाती है और केवल ज्ञान होने के पश्चात् उसके फल में समवसरणदि का संयोग होताह । भगवान को कहीं समवसरण के प्रति राग या उपभोग का भाव नहीं है किंतु आराधक पुण्य के फल में वैसा योग बन जाता है।
देखो! अभी तो तीर्थंकर भगवान माता के गर्भ में भी न आए हो, उससे छह महीने पूर्व ही देव आकर सुवर्णमयी नगरी की रचना और प्रतिदिन रत्नों की वृष्टि करते हैं। इंद्र आकर माता-पिता का बहुमान करते हैं कि हे रत्नकुक्षिणधारिणी माता! तेरी कुक्षि से तीन लोक के नाथ अवतरित होनेवाले हैं; इसलिए तू तीन लोक की माता है.... फिर भगवान का जन्म होने पर इंद्र और देव आकर महा वैभव से मेरुगिरि पर जन्माभिषेक-महोत्सव करते हैं... भगवान को वैराग्य होने पर जब वे दीक्षा ग्रहण करते हैं, उस समय भी इंद्र और देव महा-महोत्सव करते हैं और केवल ज्ञान होने पर इंद्र, दैवीय समवसरण की रचना करके महोत्सव करते हैं।
भगवान के समवसरण की ऐसी शोभा होती है कि स्वयं इंद्र भी उसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं और कहते है। कि अहो नाथ! यह तो आपके अचिन्त्यपुण्य का प्रताप है! प्रभो! हम में ऐसी रचना करने का सामथ्र्य नहीं है।
तीर्थंकर भगवान को ही पंच कल्याणक का योग होता है। पूर्व काल में सम्यग्दर्शन सहित साधकदशा में विशिष्ट पुण्यबंध हुआ, उसका वह फल है। दर्शनविशुद्धि के बिना किसी जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध नहीं होता; इसलिए सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों की महिमा है।
तीर्थंकरप्रकृति के कारणस्वरूप से सोलहकारण भावनाएं कही हैं, उन सोलह भावनाओं में सबसे पहली दर्शनविशुद्धि है।
(1) दर्शनविशुद्धि
दर्शनविशुद्धि का अर्थ है-जीवादि तत्त्वों के स्परूप का यथार्थ श्रद्धान करे और निर्विकल्प आनन्द सहित आत्मा का अनुभव करके उसकी प्रतीति करे, वह सम्यग्दर्शन है और उस सम्यग्दर्शन पूर्वक ही दर्शनविशुद्धि भावना होती है। ऐसी दर्शनविशुद्धि की भूमिका में ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है किंतु इतना विशेष समझना चाहिए कि वहां सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्वयं बंध का कारण नहीं है किंतु उस सम्यग्दर्शन के साथ अमुक विकल्प उठने पर तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। सम्यग्दर्शन तो संवर-निर्जरा का कारण है; वह कहीं बंध का कारण नहीं है किंतु उसके साथ का दर्शन विशुद्धि आदि सम्बंधी विकल्प, वह बंध का कारण है।
सोलह भावनाओं में यह प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने अंश में राग है, वहीं बंध का कारण है और जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र है, वह तो मोक्ष का ही कारण है; वह बंध का कारण नहीं है; इसलिए ऐसे वीतरागी रत्नत्रय के शुद्धभाव को ही जिनशासन में धर्म कहा है और उसी से जिनशासन की महत्ता है।
(2) विनयसम्पन्नता
तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव की कारणभूत सोलह भावनाओं में दूसरी विनयसम्पन्नता है। सम्यक्त्वी को देव-गुरु-धर्म के प्रति, शास्त्र के प्रति, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रति तथा सम्यग्दर्शनादि धारक संतों के प्रति अत्यंत विनय होती है, उसके प्रति अन्तरंग अनुमोदना होती है। यहां सम्यग्दर्शनसहित के ऐसे भाव की बात है। सम्यग्दर्शन के बिना, मात्र विनय का शुभराग, वह कहीं तीर्थंकरप्रकृति का कारण नहीं होता; वह तो साधारण पुण्यबंध का कारण है। धर्मी को देव-गुरु की तथा सम्यग्दर्शनादि की यथार्थ पहिचान होती ही है; इसलिए उसी के सच्च विनय सम्पन्नता होती है; मिथ्यादृष्टि के सच्ची विनयसम्पन्नता नहीं होती। जिसे राग का आदर है, जो राग से धर्म मानता है, वह वास्तव में देव-गुरु-शास्त्र की आज्ञा की अविनय करता है।
(3) शीलव्रतों में अतिचाररहितपना
शीलव्रतों में अतिचाररहितपना भी सम्यग्दर्शनसहित ही समझना। शीलव्रत का सच्चा भाव सम्यग्दर्शन के बाद की भूमिका में ही होता है, तथापि सम्यक्त्वी को उस शीलव्रत के राग का या उसके फल का बहुमान नहीं है; चिदानन्दस्वभाव का ही बहुमान है। अभी जिसे सम्यग्दर्शन ही नहीं है, उसे शील या व्रत कैसे? और व्रत के बिना अतिचाररहितपने की बात कैसी? सम्यग्दर्शन के पश्चात् निरतिचार व्रतादि के शुभराग द्वारा किसी जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो जाता है, किंतु सम्यग्दर्शनरहित जीव, व्रतादि करे, उसकी यहां बात नहीं है। सोलहकारण भावना में सम्यग्दर्शनरूपी शुद्धभाव की अखंडता है, उस शुद्धभावसहित शुभराग ही तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण होता है; शुद्धभावरहित, शुभ से वैसी उच्च पुण्यप्रकृति का बंध नहीं होता; इसलिए शुद्धभाव की महिमा है- ऐसा यहां बतलाना है।
(4) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
अभीक्ष्णज्ञानोपयोग अर्थात् ज्ञान उपयोग की सूक्षमता; उनका अत्यंत रस! सम्यग्दर्शनसहित बारम्बार निरंतर श्रुत के पठन-पाठन में उपयोग को लगाए, ज्ञान के फल आदि का विचार करे, उसमें सम्यक्त्वी का ज्ञानउपयोग कहीं बंध का कारण नहीं है, किंतु बारम्बार ज्ञान के विचार में रहने से उसके साथवाले शुभराग से तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो जाता है।
यह निश्चयसहित व्यवहार की बात है; इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्दर्शन के बिना शास्त्र पढ़े, उसकी यह बात नहीं है। सम्यग्दर्शन के बिना, मात्र शुभराग से जो पुण्य बंधता है, वह तो ‘लौकिक पुण्य’ है, वह तो साधारण है और सम्यक्त्वी के चिदानन्दस्वभाव की दृष्टिपूर्वक के राग में जो पुण्यबंध होता है, वह अलौकिक पुण्य है; उस आराधकभाव सहित पुण्य को श्रीमद्राजचन्द जी ‘सत्पुण्य’ कहते हैं। सम्यक्तवी को ही सत्पुण्य होता है, तथापि उसे उस पुण्य की मिठास नहीं है। मिथ्यादृष्टि को पुण्य की मिठास है; इसलिए उसके सत्पुण्य नहीं होता।
(5) संवेग
भवभ्रमण से भयभीत होकर मोक्षमार्ग के प्रति वेग अर्थात् उत्साहभाव आना, वह संवेग है। रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग की ओर का उत्साहभाव आए, वह संवेग है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि के ही रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग की ओर का उत्साह होता है, उसके साथ जो शुभरागरूप व्यवहार संवेग होता है, वह तीर्थंकरादि प्रकृति के बंध का कारण होता है और सम्यग्दर्शनादिरूप शुद्धभाव, मोक्ष का कारण होता है।