(6) शक्तितः त्याग
शक्तितः त्याग अर्थात् शक्ति-अनुसार त्याग, लेकिन किसे? वस्तुतः सम्यग्दृष्टि को ही शक्तिनुसार त्याग होता है। वह अंतर में आत्मा की आनन्द शक्ति का भान करके, उसमें एकाग्रता की शक्ति अनुसार त्याग करता है। अज्ञानी, हठ से त्याग करे, उसकी यह बात नहीं है। सम्यग्दर्शन के बिना तो सब व्यर्थ है, उसकी धर्म में कोई गिनती नहीं है। सम्यक्त्वी हो और कदाचित विशेष त्यागी न हो अर्थात् गृहस्थाश्रम में हो तो भी उसे श्रेणिक राजा की तरह तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो सकता है, किंतु मिथ्यादृष्टि जीव, शुभराग से बाह्य में त्याग करके, उससे तीर्थंकरप्रकृति बांधना चाहे, तो उसे नहीं बंध सकती।
यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक्त्वी को भी त्याग में जितना शुद्ध वीतरागभाव है, वह कहीं बंध का कारण नहीं है किंतु उसके साथ के राग से तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो जाता है। वह बंध भी जिसे उस प्रकार की योग्यता हो, उसे ही होता है; सबको नहीं।
(7) शक्ति अनुसार तप
शक्ति के अनुसार तप भी उपरोक्तानुसार सम्यक्त्वी का ही तप समझना चाहिए। वस्तुतः सम्यग्दर्शन के बिना तप नहीं होता। शुद्ध उपयोग द्वारा चैतन्य का प्रतपन, वह निश्चयतप है, वह कर्मों के नाश का कारण है और निश्चयतपसहित जिसे तप का शुभविकल्प उत्पन्न हुआ, उससे किसी जीव को तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। सम्यग्दर्शन को साथ रखकर ही यह बात है।
(8) साधुसमाधि
सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को रत्नत्रय की आराधना का अत्यंत प्रेम है; इसलिए रत्नत्रय के आराधक अन्य धर्मात्मा जीवों की आत्मसिद्धि में विघ्न आता देखकर, उसे दूर करने का भाव आता है; उनकी आराधना एवं समाधि अखंड बनी रहे - ऐसा भाव होता है, इसका नाम साधुसमाधि भावना है।
रत्नत्रय के साधक संतों के प्रति धर्मी के अंतर के बहुमान उछलने लगता है, उनकी सेवा का भाव आता है। स्वयं को उन रत्नत्रय का बड़ा प्रेम है; इसलिए उस भूमिका में अन्य रत्नत्रय के साधक धर्मात्माओं को भी अखंड समाधि रहे - शांति रहे; उसमें विघ्न न आये - ऐसी भावना होती है, और ऐसे उत्तम शुभभाव द्वारा किसी सम्यक्त्वी को तीर्थंकरप्रकृति का बंध भी हो जाता है। सामनेवाले जीवों की समाधि तो उनके अपने भाव से है किंतु इस सम्यक्त्वी को वैसा भक्तिभाव अपनी भूमिका के कारण आता है।
(9) वैयावृत्त्यकरण
मोक्ष के साधक मुनियों की/धर्मात्माओं की वैयावृत्य अर्थात सेवा करने का भाव, सम्यक्त्वी को आता है। यद्यपि धर्म के जिज्ञासुओं को भी वैसा भाव आता है किंतु यहां तो सम्यग्दर्शनसहित की बात है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्यादृष्टि जीव, मात्र शुभभाव से जो वैयावृत्यादि करता है, वह कहीं तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण नहीं हो सकता; वह तो साधारण पुण्यबंध का कारण है। यहां तो सम्यग्दर्शन सहित के विशेष भावों की बात है। तीर्थंकरप्रकृति के कारणभूत इन सोलह भावनाओं का शुभभाव तो सम्यक्त्वी को ही आता है।
(10) अर्हन्तभक्ति
अरहन्त भगवान की भक्ति का यथार्थ भाव जैसा सम्यक्त्वी को होता है, वैसा मिथ्यादृष्टि को नहीं होता। अंतर में सम्यग्दर्शनरूपी शुद्धभाव है, वह तो अरिहन्तदेव की निश्चयस्तुति है, वह कही बंध का कारण नहीं है, किंतु वहां साथ ही अरहन्त भगवान की भक्ति का भाव उछलता है, उस शुभभाव से तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है।
देखो, यहां महिमा तो सम्यग्दर्शन की बतलाना है; पुण्य की महिमा नहीं बतलाना किंतु इस प्रकार का उच्च पुण्य, सम्यग्दर्शनसहित भूमिका में ही बंधता है - ऐसा कहकर सम्यग्दर्शन की महिमा बतलाई है।
तीर्थंकरप्रकृति बंधने से जीव को स्वयं को या पर को लाभ होता है - ऐसा नहीं बतलाना है, क्योंकि उस जीव को स्वयं भी जब उस प्रकार के राग का अभाव होगा, तभी केवलज्ञान होगा और केवल ज्ञान होगा, तभी तीर्थंकरप्रकृति का फल प्राप्त होगा। उसके निमित्त से जो दिव्यध्वनि खिरेगी, उस ध्वनि के लक्ष्य से भी सामनेवाले श्रोता जीव को धर्म का लाभ नहीं होता, किंतु उस वाणी का लक्ष्य छोड़कर अपने ज्ञानानन्दस्वभाव का लक्ष्य करने पर ही उसे धर्म का लाभ होता है और तभी उसके लिए वाणी में धर्म के निमित्तपने का आरोप आता है। इस प्रकार यद्यपि तीर्थंकरप्रकृति के बंधभाव से स्व अथवा पर को धर्म का लाभ नहीं होता, तथापि वह भाव, धर्म की भूमिका में ही होता है और फिर भी धर्मी उसे उपादेय नहीं मानते।
जिस जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध हुआ, वह जीव अवश्य ही तीसरे भव में केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर होता है किंतु उसका निर्णय कहीं अकेले राग द्वारा नहीं हुआ है; सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव के प्रताप से वह निर्णय हुआ।
तीर्थंगकरप्रकृति के आस्रव के कारणरूप सोलह भावनाएं हैं, उनमें से यह दसवीं अरहंत भक्ति है। सोलह भावनाओं में से किसी जीव की कोई भावना मुख्य होती है और किसी की कोई होती है, किंतु सम्यग्यदर्शनसहित दर्शनविशुद्धि तो सब को होती ही है - ऐसा नियम है।
निश्चय से तो सम्यग्दर्शन द्वारा इंन्द्रियातीत ज्ञानस्वभाव को ग्रहण करना, वह अरहंत-भक्ति है; ऐसी निश्चयभक्ति सहित व्यवहारभक्ति की यह बात है। मिथ्यादृष्टि को अकेली व्यवहारभक्ति होती है, उसकी यह बात नहीं है। अभी तो जिसे अरिहन्द भगवान आदि की व्यवहार भक्ति का भाव भी उल्लसित नहीं होता, उसे परमार्थभक्ति अर्थात् सम्यग्दर्शनादि की पात्रता तो होगी ही कहां से?
जिस प्रकार व्यापारी की दृष्टि लाभ पर है। अधिक लाभ और कम खर्च होता हो तो वहां लाभ की दृष्टि में खर्च की परवाह नहीं करता; जैसे, हजार का खर्च और लाख का लाभ होता हो तो वहां खर्च को मुख्य नहीं मानता, किंतु लाभ को ही मुख्य मानकर व्यापार करता है, उसे लाभ का ही लक्ष्य है; उसी प्रकार सम्यक्त्वी के उपयोग का व्यापार आत्मोन्मुख हो गया है, उसे आत्मा के लक्ष्य का लाभ है। सम्यक्त्वी व्यापारी की दृष्टि लाभ पर ही है; स्वभाव की दृष्टि में उसे शुद्धता का लाभ ही होता जाता है। शुभराग होने पर भी उसकी दृष्टि तो शुद्धस्वभाव के लाभ पर ही है।
अपने शुद्ध चिदानन्द स्वभाव पर दृष्टि रखकर सम्यक्त्वी जीव को जिनेन्द्र भगवान का बहुमान-भक्ति-पूजा, जिनमन्दिर तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का उत्सव, तीर्थयात्रादि का शुभभाव आता है, उस राग के निमित्त से कुछ आरंभ-समारम्भ भी होता है, किन्तु धर्मात्मा को तो धर्म के बहुमान का लक्ष्य है; हिंसा का भाव उसका लक्ष्य नहीं है; इसलिए वहां अल्पारम्भ को मुख्य नहीं माना है और स्वभाव दृष्टि के उल्लास में अल्प राग को भी मुख्य नहीं गिना है। अपने परिणाम में धर्म का उल्लास है; इसलिए धर्म का लाभ होता जाता है, उसी की मुख्यता है। वहां अल्प राग तो है किंतु धर्मी का उल्लास उस राग की ओर नहीं है; धर्मी का उल्लास तो धर्म के प्रति ही है।
-ऐसे धर्मी को ही अरहन्त-भक्ति आदि भाव से तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है।
(11) आचार्यभक्ति
अरहन्त भक्ति की भांति आचार्य भक्ति में भी धर्मी को उस प्रकार का भाव आता है। सम्यक् रत्नत्रय के धारक आचार्य कैसे होते हैं? - उन्हें पहिचानने पर उनका बहुमान आता है। सोलह-कारणभावना में तो सम्यग्दर्शन सहित आचार्यभक्ति की बात है।