।। अनिमित्तिक वैराग्य ।।

इस प्रकार कुमार वर्षमान का राजभवन में रहते और बैराग्य-चिन्तवन करते २८ वर्ष ७ मास और १२ दिन का समय ब्रह्मचर्य-अवस्था में व्यतीत हो गया। एक दिन उन्हें अचानक अपने पूर्वभवों का स्मरण हो आया । उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं पूर्वभव में सोलहव स्वर्ग का इन्द्र था, वहाँ मैं २२ सागर तक दिव्य भोगोपभोगों का आनन्द लेता रहा।

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'बानुपज्यो महावीरो, मल्लिः पार्यो यदुत्तमः 'कुमार' निर्गता गेहात, पृथिवी पनयोऽपरे ।। 'बापुज्यस्तथाल्लिनेमिः पावोस गन्मतिः ।

-पद्मपुराण, 2016 7.

सुमारा: पञ्च निष्क्रान्ताः पृथिवीपतय परे ।। - मात्तिकेयानप्रेक्षा, 10 105
'मी मल्ली वीरो कुमारकालम्मि वामपूज्यो ।।

पासो वि यहिदतवों सेराजिणा रज्ज चरिमम्मि । -तिलोयपणानी, 41760
'वीर अरिहनमि पास मल्लि चं वासुपुज्जच ।

ए ए मोतूण जिणे अवसेसा पासिरायाणी ।।
उपकुलेमु वि जाया विमुद्ध बसेसु पत्तियकुलेसु ।
ण य इपिण्यामिया कुमार वासम्मि पब्वइया ।।

-प्राचयक नियुक्ति, 221-222

) 'कल्पमूत्र के पूर्ववर्ती किसी सूत्र में महावीर के गृहस्थाश्रम का अथवा उनकी भार्या यशोदा का वर्णन हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ।

-श्रमण भगवान महावीर, श्री बाल्याण विजय, पृ. 12.

'यशोदा जिस पर्वत पर दीर्घकाल तक तपस्या करके स्वर्ग को गई, वह पर्वत कुमारी पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। (तेरससे न बसे सुपवत विजयचके कुमारी पवते अरहयते ।

(खारवेल शिलालेख, पृ. 14)

स्त्री पाणिग्रहण राज्याभियकोभयरहिता इत्यर्थः । अर्थात् महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ और वासुपूज्य ये पाँच तीर्थकर ऐसे हुए जिनका स्त्री-पाणिग्रहण भी नहीं हुआ और राज्याभिषेक भी नहीं हुमा ।। (कुन्दकुन्द और सनातन जैनधर्म; पृ. 87; नियुक्ति टिप्पण, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 572)

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उससे पूर्व भव में मैने संयम धारण करके पोडशकारण भावनाओं द्वारा तीर्थकर प्रकृति का बंध किया था, जिसका उदय इस भव में केवलज्ञान रूप में होनेवाला है। इस समय संसार में धर्म के नाम पर पाप और अत्याचार फैलते जा रहे हैं, अत: पाप और अज्ञान को दूर करना भी आवश्यक है। जब तक में संयम ग्रहण न करूंगा, तब तक आत्मशुद्धि नहीं कर सकू गा और जब तक स्वयं शुद्ध-बुद्ध न बन जाऊँ, तब तक विश्वकल्याण भी नहीं कर सकता। अतः मोह-ममता की कीचड़ से बाहर निकलकर मुझे आत्म-विकास करना चाहिये ।

तीर्थकर वर्धमान का यह वैराग्य अनिमित्तिक था। वे स्वयंबुद्ध-स्वयंभू थे । उन्हें किसी गुरु के पास अथवा किसी पाठशाला में पढ़ने नहीं जाना था। सभी तीर्थकरों के किसी विषय में कोई भी गुरु नहीं होते। वे स्वयं ही त्रैलोक्य के गुरु होते हैं। वैराग्य भी उन्हें स्वयं होता है । शास्त्रों में वैराग्योत्पत्ति के दो कारण माने है : (१) अनिमित्तक (२) निमित्तजन्य । तीर्थकरों के वैराग्य में पर-सम्बोधन विधि न होने से सभी तीर्थंकरों के वैराग्य अनिमित्तक ही हैं। जिन तीर्थंकरों को सनिमित्तक वैराग्य शास्त्रों में निर्दिष्ट है, उनमें बाह्य पदार्थादि के चिन्तवन, उनके वास्तविक रूपों का विचार आदि को (निमित्त की दृष्टि से) प्रधानता दी गई है। जैसे नीलांजना के नृत्य में नीलांजना का विलय होना आदि । वस्तुतः नीलांजना का विलय तीर्थंकर के स्वयं के ज्ञान की उपज थी और वह ज्ञान उन्हें स्वयं ही (बिना किसी के उपदेश के) हुआ था, ऐसे अनिमित्तक वैराग्य की महिमा जनेतर साहित्य में विशद रूप में गायी गई है।* तीर्थकर वर्धमान महावीर की दृष्टि जब अपने पूर्वभव की विभूति और उसके अपने से संबंध-विच्छेद होने पर पड़ी तब उन्हें संसार असार दिखने लगा और वे विरक्त होने लगे ।

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'दसणविरामबाए, विणयसंपण्णादाए, सोलबदेशु, णिरदिचारदाए, प्राबासएसु अपरिहोणडाए, खणलवारबुज्भणदाए, लद्धिसंवेगसपणदाए, जया, थामे तथा तवे साहणं, पागुनपरिचागदाए साहणं, समाहि संधारणाए साणं, वेज्जावपलजोगजुत्तदाए, अरहत भत्तीए, बहुसुखभत्तीए, पचपचभत्तीए, पबयाणवच्छलदाए, पवयणप्पभावणदाए, अभिक्दणं अभिक्ष्मण णाणोवजोगजत्तदाए, इज्वेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थपरणामगोवं कम्म बंधति ।

-बंधसामित्तिविचम 7 सु. 41

(दर्शनर्विथुद्धि, विनयसंपन्नता, निरतिचारशीलवत, पावण्यक परिहार, क्षणलव प्रतिबद्धता, संगसंपन्नतालन्धि, सपस्वी साधु की वैयावृत्ति, प्राचार्य की वैयावृत्ति, त्यागवृत्ति, साधुनों की समाधि (संगति), अरहत-भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचन-भक्ति, प्रवचन-वात्सल्य, प्रवचन प्रभावना और अभीषण पानोपयोग इन सोलह कारण भावनामों से तीर्थकर नाम-गोल कर्म का बन्ध होता है।)

'बिसविरत्तो समणो छसकारणाई भाऊण ।
वित्वबरणामकम्म बंधइ अइरेण कालेण ।।

-कुन्दकुन्द, भावपाहुड,719,

(विषयों से विरक्त श्रमण सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करी, उनकी भावना करने से शीघ्रही तीर्थकर नामकर्म का बन्ध कर लेता है।)

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