।। जन्म-कल्याणक ।।

नौ मास, सात दिन, बारह घण्टे व्यतीत होने पर चैत्र शक्ला त्रयोदशी को। अर्यमा योग में त्रिशलारानी ने अनुपम तेजस्वी सर्वांग पुत्र को जन्म दिया। तीर्थकर के जन्म-काल में समस्त जगत में शान्ति की लहर बिजली की भांति फैल गई। अगणित यातनाओं में सतत दुःखी नारकी जीवों को भी उस क्षण चैन की सांस मिली। समस्त कुण्डग्नाम में आनन्द-भेरी बजने लगी । सारा नगर हर्ष में निमग्न हो गया। पुत्र जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में राजा सिद्धार्थ ने प्रभूत दान दिया और राजोत्सव मनाया ।

सौधर्म का इन्द्रासन स्वयं प्रकम्पित हो उठा । इन्द्र को अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि कुण्डनाम म अन्तिम तीर्थकर का जन्म हुआ है । वह तत्काल समस्त देव-परिवार को साथ लेकर नृत्य-गान करता हुआ कुण्डलपुर आया और उसने राजभवन में अपूर्व मंगल उत्सब किया । कुण्डग्राम का कण-कण देवोत्सवों से निनादित और अनगजित हो उठा। इन्द्र ने माता त्रिशला की स्तुति करते हुए कहा-

'माता, त जगन्माता है, तेरा पुत्र विश्व का उद्धार करेगा। जगत् का भ्रम, अज्ञान दूर करके विश्व का पथ-प्रदर्शक बनेगा। तू धन्य है। इस जगत् में तेरे समान भाग्यशालिनी माता और कोई नहीं है।'

इन्द्र ने सिद्धार्थ राजा का भी बहत सम्मान किया। तदनन्तर इन्द्राणी उस नवजात बालक को प्रसूतिगह से बाहर ले आई। इन्द्र उस बाल तोर्थकर को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर आरूढ हो, सुमेरु पर्वत पर गया और शिशु जिनका अभिषेक (स्नपन) किया। अभिषेक के पश्चात् जब इन्द्राणी तीर्थंकर कुमार को पोंट रही थी तब वे तीर्थकर के कपाल-जल-विन्दुओं को सुखाने में असमर्थ-सी रही-बे ज्यों-ज्यों जितना-जितना पोंछती थीं, कपोल-जल-बिन्दु त्यों-त्यों अधिक चमकने लगते थे। यह प्रक्रिया होते-होते इन्द्राणी को पर्याप्त आश्चर्य होने लगा परन्तु उनकी प्रान्ति दूर होने में विलम्ब न हुआ, 'मान्ति का स्वयमेव निवारण हो गया । अर्थात के जल की विन्दुएं नहीं थीं अपितु इन्द्राणी के आभूषणों की प्रतिविम्ब मात्र थीं, जो तीर्थकर के स्वच्छ बदन पर चमक कर जल-बिन्दुओं की भ्रान्ति उत्पन्न कर रही थींयतः तीर्थकर स्वभावत: त्रैलोक्य सुन्दर थे । अभिषेक के अनन्तर इन्द्र ने तीर्थकर वर्धमान महावीर को सिंह चिह्न से भूषित किया । तीर्थंकर महावीर की प्रतिबिम्ब आज उसी चिह्न से जानी जाती है।। चिह्न के सम्बन्ध में प्रतिष्ठातिलक में लिखा है कि यह तीर्थकर का बंश-रूढ़ चिह्न होता है । तथाहि---

तीर्थकराणां निजवंश पृथग्विधं संव्यवहारहेतं ।
यल्लाछन तब कृतार्हदीश बिवस्ययोग्यं बिलिखामि पीठे ।

---प्रतिष्ठातिलक, १११ (लांछन-स्थापनाम्)

तीर्थकर के जन्म-पूर्व से ही राजा सिद्धार्थ को वैभव, यश, प्रताप, प्रभाव और पराक्रम अधिक वृद्धि को प्राप्त होने लगे थे और स्वयं बाल तीर्थकर भी द्वितीया के चन्द्र को भांति वृद्धि को प्राप्त होंगे अतः उनका नाम वर्धमान रखा गया ।

चौपाई

जिन बालक पद श्रीड़ा करै । नर-नारी जन-मन अति हरे ।
पांब अटपटे जिन म धरै । घटवन चलन सकल मन हरै ।।
गले माल मुक्ताफल लस । कटि करधनी कमर सुभ कसे ।।
हीरकनी-जड़त किकिनी । रुणझुण चरण होई रब घनी ।।
कर पल्लव में मदरी देई । हिये हरप जन-मन हर लेइ ।।

--कवि मनसुखसागर

बालक वीर जब पाँव-पांव चलने लगे और बाल-बोड़ाएँ करने लगे तब वे नर-नारियों का मनोहरण करने लगे। व पथ्वी पर अटपटे (इधर-उधर पैर रखते थे और जब कभो पटनों के बल दौडते थे. तब सब का मन मोह लेते थे। उनक गले में मोतियों की माला, कमर में करधनी, हीरों से जड़ित किंकिनी शोभायमान थी जिनकी रुन-झुन, रुन-झन गज होती थी। उनके कर-कमल में अगठी शोभित थी। वे सब मानवों के मनों को हषित करते थे ।

कुमार में वाह्य पदार्थों को जानने में जैसी ज्ञानज्योति थी, वैसी ही असाधारण ज्ञानज्योति आध्यात्मिक और स्वानभति के प्रति भी थी । पूर्व-भब से उदीयमान क्षायिक सम्यक्त्व उनको था। ऐसी अनेक अनपम महिमामयी विशेषताओं के वे पुंज थे। ये सब विशेषताएं उनके वीतरागत्व की प्रतीक थीं। आशाधर सुरि ने लिखा है-

बपुरेव तवाचण्टे भगवन् वीतरागताम् ।
न हि कोटरसंस्थेचनौ तमभवति शड्वलः ।।

--अनागार धर्मामृत, पृ० ८६२

हे भगवन, आपका शरीर ही आपकी वीतरागता को प्रकट कर रहा है। आपके शरीर में वीतराग-भाव-दर्शक चिह्न-गुण विद्यमान हैं, जैसे वृक्ष की सरलता से उसके हरे-भरे रहने का अनुमान किया जाता है-कोटर में विद्यमान अग्निवाला वक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता वैसे ही आपमें (सहज-सुन्दर शरीर में) यदि इन गणों का अभाव हो तो आपकी शरीरस्थ आत्मा में सम्यक्त्वादि गणों का अनुमान अथवा प्रादुर्भाव कैसे हो सकता है ? आप सम्यक्त्वी हैं, अतः शारीरिक सदगणों के पंज है, सम्यक्त्वादि गणोपेत है (यह आपकी असाधारण विशेषता है।

तीर्थकर के शरीर का सुन्दर होना स्वाभाविक है, क्योंकि उनके सर्वश्रेष्ठ नामकर्मतीर्थकर प्रकृति का उदय है। तीनों लोकों में सर्वोत्तम परमाणओं से उनके शरीर की रचना होती है, कहा भी है-

* बांधे मुठी अटपटे पाय । को वह छबि बरनी जाय ।।

-पायपुराण ।

'यैःणान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं ।
निर्मापितस्त्रिभवन कललामभूत ।
तावन्त एव खल तेऽप्यणवः पृथिव्यां ।
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ।।

--आचार्य मानतुंग, भक्ता, १२

हे त्रिभवन के एक मात्र सौन्दर्य-सार, जिन शान्तरस के परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे परमाणु भमण्डल पर उतने ही थे । इस विचार का आधार यह है कि जिनाभिषेक के बाद इन्द्र ने बालक का शृंगार किया, उनका वीर नाम रखा गया। उन्हें ऐरावत हाथी पर कुण्डग्राम ले आया गया । तथाहि-

'कंचणकलसणीर महाएविण, चंदणगोसीरहु चच्चेविण ।
पुणु सिगारू कराविउ इदें, णच्चिउणबरस परमाणदे ।
वीरणाहु घोसिवि सुरराएं। .....।।

-नरगेन, वर्धमान कथा ।

स्वर्ण के कलशों से जलाभिषेक करने के उपरान्त बालजिन तन पर चन्दन और केशर का चर्चन किया। अनन्तर इन्द्र ने भगवान का शृंगार किया और आनन्दित होकर नवरस-पूरित नत्य आदि किया। इन्द्र ने उनका नाम 'वीर' नाथ घोषित किया। जिन बालक को माता को सौपकर इन्द्राणी और इन्द्र आदि वापस स्वर्ग लौट गये । कवि मनसुखसागर के शब्दों में-

चौपाई

'जिन, जननी के अंके देइ । ताण्डव जत्य ज शक करे ।।
नगर महोत्सव तब अति भयो । सुरपति जब निजपुर में गयो ।।
सिद्धारथ नप मन हरखंत । उत्सव करि कहुँ लहो न अन्त ।।

इन्द्राणी ने अभिषेक के अनन्तर जिन बालक को जननी त्रिशला की गोद में दिया और इन्द्र ने स्तुतिपूर्वक ताण्डव नृत्य किया। नगर में अत्यन्त विशेष उत्सव हुआ और इन्द्र अपने स्थान को चला गया। सिद्धार्थ राजा अत्यन्त प्रसन्न हुए, उन्होंने उत्सब आदि किये, जिनका वर्णन करते कवि अन्त नहीं पा सकता।

****************************************************************

1. घन्वा सरपहार पदक संवेव कालबकम् ।
पेयूरांगदमध्यपंधरवटीसूत्र च महान्वितम् ।।
चंचवडलकर्णपुरममल पाणिये कंकणम् ।
मंजीर कारक पदे जिनपने: श्रीगंधमुद्राकिलम् ॥

-माणाधर, पूजापाठ, 15

(राजकुमार महावीर के सोलह प्राभूषणों का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है- 1. पोखर, . पट्टहार, . पदक । नयक, 5, पालंबकम, 6. केयुर, 7. अंगद, 8. मध्यबंधुर, 9. कटी मूर्च, 10, मद्रा, I कुखल, 12, कंकणा, 11. मंजीर, 15. कटर्फ, 15. श्रीगंध।)

2. देवत्वय्यबजाने विभवनमखिलं चामजातं मनायं । जातो मुशियम फुमतबहुनयों ध्वस्तमान जातम् । स्बोनद्भाः पवार मटमिहनिवृत्तं चायपुण्याहमाणी गोतलोकानचक्षुर्जय जय भागबज्जीव वर्धमा नन्द । प्रतिष्ठातिलक,917

(हे देव पाज प्रापवे जन्म लेने से सम्पूर्ण लोय मनाप हो गया है, धर्म मूर्तरूप में उपस्थित हा गया है। मिथ्याधर्म मतरूपी तम नष्ट हो गया है. स्वर्ग-मोल के बन्द कपाट खुल गये है, मैं पुगाणाली हुया हूँ। हे लोकापचन भगवन् पाप अमर, आनन्दित हो और बढ़ते रहे ।)

****************************************************************

यह समय पूर्ववर्ती तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के २५० वर्ष वाद तथा ईसा से ७९९ वर्ष पहिले का था ।। तीर्थंकर वर्धमान शुक्लपक्ष को द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे और अपनी बाल-लीलाओं से माता-पिता एवं समस्त परिवार को आनन्दित करने लगे । जन्म से ही उनके शरीर में अनेक अनपम विशेषताएं थीं, जैसे उनका शरीर अनपम-सुन्दर था, शरीर के समस्त अंग-उपांग पूर्ण एवं सटीक थे, कोई भी अंग लेशमात्र हीन, अधिक अथवा छोटा-बड़ा नहीं था। शरीर सुरभित था। पसीना नहीं आता था, महान् बल था। पाचन-शक्ति असाधारण थी, वाणी मधुर थी। ज्योतिष और सामुद्रिक शास्त्र-विहित समस्त १००८ शुभ चिह्न (शंख, चक्र, पद्म, यव, धनुष) आदि से उनका शरीर अंकित था। बे जन्म से ही विशिष्ट अर्थात् अवधिज्ञानी थे । उनके शुभ लक्षणयक्त सुन्दर-सुडौल शरीर और उनकी बाल-सुलभ लीलाएँ जन-जन को आनंदित करती थी।

आपके समान कोई अन्य रूप दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि कदाचित् वे शान्तिपरमाण आपकी रूप-रचना के पश्चात् सावशेष होते तो उनसे निमित कोई रूपान्तर दिखाई देता। तीर्थकर वर्धमान जन-मन मोहते हुए, विविध बाल-लीलाओं को करते हुए शनैः शनैः बढ़ रहे थे। जब उनकी वय आठ वर्ष की हुई, तब उन्होंने बिना किसी अन्य प्रेरणा के ही स्वयं हिसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों का आंशिक त्याग कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण रूप पाँच अणुव्रतों को धारण कर किया।

बालकाल से ही तीर्थ कर की प्रतिभा आश्चर्यकारी थी-वे देवों के साथ विविध प्रकार के कूट प्रश्नोत्तर करते थे और देवगण भी अनुकल रीति से उन्हें प्रसन्न रखते थे; तथाहि-

****************************************************************

1. पापणातीर्थ गन्ताने पंचाशद्विशताब्द के ।
लादप्यन्तरवायुमहाबोरोन जातवान् ।।

-उत्तरपुराण, 271262

2. 'स्वायुरागष्ट वर्षेभ्यः सर्वषा परतो भवन
बबिताष्टकपापाणां तीर्थषा देणसंयमः ।

-गुणभवाचायं, उत्तरपुराण, il 15

'इह विध पाठ बरस के भये । तब मा पाप मनुबत लये।

-पार्श्वपुराण 7116

****************************************************************

चौपाई

गुर बालापन भेष बनाय । जिनवर संग केलि सुखदाय ।।
काव्यकला अरु शलोक बखान । दृष्टकूट बहुविधि मन आन ।।
अंतलंपन छन्द उच्चर । बहरिलापिका बहुविस्तरै ।।
सुरसुनि हरष हिये में धरै । तदनकल हवै सेवा करै ।।

---कवि मनसुखसागर

स्वर्ग के देव वालरूप धारण कर जिन (बालकरूप वीर प्रभ) के साथ सुखदायी क्रीड़ा करते थे । वे तीर्थकर (बालक वीर) के साथ काव्य-कला-छन्द-श्लोक आदि का संभाषण करते थे और उनकी दृष्टि व मन के अन्कल अन्ताप-बहिर्लाप का विस्तार (वर्णन) करते थे। तीर्थकर की चर्चा (सम्भाषण) को सुनकर देवगण हर्षित होते थे और महावीर बालक के अनुरूप उनकी सेवा करते थे।

इस प्रकार तीर्थकर प्रभु वर्धमान महावीर का काल विविध प्रकार के सौम्यसुखद बातावरण में व्यतीत हो रहा था। उनके कार्य-कलापों के कारण उनके अनेक नाम भी पड़ गये। उनके नामों में केवल नाम-निक्षेप ही नहीं अपितु तदनकल वास्तविक गण भी कारण थे।

नामान्तर

'सन्मतिमहतिर्वीरोमहावीरोऽन्त्यकाश्यपः ।
नाथान्वयो वर्धमानो यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ।

-धनंजय नाममाला, ११५

सन्मति : श्री वर्धमान तीर्थकर के असाधारण ज्ञान की महिमा सुनकर संजय और विजय नाम के दो चारण ऋद्विधारक मनि अपनी तत्त्व-विषयक कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिए उनके पास आये, किन्तु वर्धमान तीर्थंकर का दर्शन करते ही उनकी शंकाओं का समाधान स्वयं हो गया। उन्हें समाधान के लिए कुछ पूछना नहीं पड़ा । यह आश्चर्य देखकर उन मुनियों ने वर्धमान का अपर नाम 'सन्मति'3 रख दिया। कहा भी है-

'तस्यापरेयुरथ चारणलब्धियुक्तौ,
भर्तयंती विजय-संजयनामधेयौ ।
नहीक्षणात्मपदिनिसतसंशयाथां,
बातेनतुर्जगति सन्मतिरित्यभिख्याम् ।।

-उत्तरपुराण १२।१७

अतिवीरः एक दिन कुण्डलपुर में एक बड़ा हाथी मदोन्मत्त होकर गजशाला से बाहर निकल भागा। मार्ग में आने वाले स्त्री-पुरुषों को कुचलता हुआ, वस्तुओं को अस्त-व्यस्त करता हुआ वह इधर-उधर घूमने लगा। उसको देखकर कुण्डलपुर की जनता भयभीत हो गई और प्राण बचाने के लिए यत्र-तत्र भागने लगी। नगर में भारी कोलाहल मच गया ।

श्री वर्धमान अन्य बालकों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, मदोन्मत्त हाथी उधर जा झपटा। हाथी का काल जैसा विकराल रूप देखकर खेलने वाले बालक भयभीत होकर इतस्ततः भागे; परन्तु वर्धमान ने निर्भय होकर कठोर स्वर में हाथी को ललकारा। हाथी को वर्धमान की ललकार सिंह-गर्जना से भी अधिक प्रभावशाली प्रतीत हुई। वह सहमकर खड़ा हो गया । भय से उसका मद सूख गया। तब वर्धमान उसके मस्तक पर जा चढ़े और अपनी वज्र-मष्ठियों के प्रहार से उसे निर्मद कर दिया।

तब कुण्डलपुर की जनता ने राजकुमार वर्धमान की निर्भयता और वीरता की अत्यन्त प्रशंसा की और उन्हें वह 'अतिवीर' नाम से पुकारने लगी। इस प्रकार राजकुमार का तीसरा नाम 'अतिवीर' प्रसिद्ध हो गया ।

महावीर: एक दिन संगम नामक एक देव महान् भयानक विषधर सर्प का रूप धारण करके राजकुमार की निर्भीकता तथा शक्ति की परीक्षा करने आया । जहाँ वर्धमान कुमार अन्य किशोर बालकों के साथ एक वृक्ष के नीचे खेल रहे थे, वहाँ वह विकराल सर्प पुकार मारता हुआ उस वृक्ष से लिपट गया। उसे देखकर सब बाल बकरे जैसे मुखवाला संगमदेव जो वर्धमान की निर्भीकता ।से प्रभावित होकर उन्हें तथा उनके बाल-साथियों को कंधे पर बिठाये नृत्य-विभोर है।

(प्रसंग : चामुंडराय कृत वर्धमान पुराणं, कन्नड़ भाषा, पृष्ठ २९१)

****************************************************************

1. 'वटवृक्षमर्थकदामहान्तं सहडिम्मरधिरह या वर्तमानः ।
रममाणमुदीक्ष्य संगमाख्यो विबुधस्त्रासयिसतु माससाद ।।

-वर्द्धमान चरित्न, असग महाकवि,719

'अभयात्मतयानहष्टनेता विवुधस्तण निज प्रकाश्यरूप ।
अभिगिन्यसुवर्णकुम्मतोयः स महावीर प्रति व्यधत्त नाम ।।

-उत्तरपुराण, गुणभट्टाचार्य, 98

'घोर बीरचर्यातप करें। महावीर पाते उच्चरें ।

-मनसुखसागर, 77

****************************************************************

बहुत भयभीत हुए । अपने प्राण बचाने के लिए वे इधर-उधर भागने लगे, चीत्कार करने लगे। कुछ तो भय से मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर भी पड़े, परन्तु वर्धमान कुमार सर्प को देखकर रंचमात्र भयभीत न हुए। उन्होंने निर्भयता से सर्प के साथ क्रीड़ा की और उसे दूर कर दिया। राजकुमार वर्धमान की इस निर्भयता को देख देव प्रकट हुआ और उसने उनका नाम 'महावीर' रख दिया ।

अविचल ब्रह्मचर्य

राजकुमार वर्धमान जन्म से सर्वा ग सुन्दर तो थे ही, जब वे किशोर वय समाप्त कर यौवन में पग रखने लगे, तब उनकी सुन्दरता का क्या कहना? उनके अंग-प्रत्यंग में लावण्य-छटा उमंग भरने लगीं। उनके असाधारण ज्ञान, बल, पराक्रम, तेज तथा यौवन की वार्ता सर्वत्र प्रसिद्ध हो गई । अनेक राजाओं की ओर से पाणिग्रहण सम्बन्धी प्रस्ताव आने लगे।

कलिंग नरेश राजा जितशत्र की सुपुत्री यशोदा सब राजकुमारियों में सुन्दरत्रिलोक सुन्दरी एवं सर्वगुणसम्पन्न कुमारी थीं । अतः राजा सिद्धार्थ और त्रिशला ने वर्धमान का पाणिग्रहण उसके साथ करना चाहा।* वे चाहते थे कि उनका पुत्र आदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित गृहस्थ-मार्ग का अनुसरण करे। यह सब चाहते हुए भी वे कुमार के अलौकिक व्यक्तित्व को भी नहीं भूल पाते थे। कभी-कभी वे बड़े असमंजस में पड़ जाते और सोचने लगते-

'अज्जवि विसय आलिण पयासह, अज्जसकामालाव ण भासइ ।
अज्जवि तिय रूवणउ भिज्जइ, अज्ज अणंग कणिहिण दलिज्जा ।
णारिकहारासि मण होवर, गज सवियारउ कहब पलोबइ।

वर्धमान महावीर युवा हो गये हैं, तथापि आज भी उनके हृदय में विषयों की अभिलाषा प्रकट नहीं हो रही है, वे आज भी काम-युक्त वाणी नहीं बोलते है, आज भी उनका मन स्त्रियों के कटाक्षों से नहीं भिद रहा है, आज भी काम की कणिका उन्हें दलन नहीं कर रही है, स्त्रियों की कथाओं में उनका मन रस नहीं ले रहा है और न वे विकार-भाव से किसी स्त्री की ओर देखते ही है-आदि ।

यौवन के समय स्वभाव से नर-नारियों में काम-वासना का प्रबल वेग से संचार हो जाता है। उस काम-वेग को रोकना साधारण मनष्य के सामर्थ्य से बाहर हो जाता है। मनुष्य अपने प्रवल पराक्रम से महान् बलवान् वनराज सिंह को, भयानक विकराल गजराज को वश में कर लेता है, महान योद्धाओं की विशाल सेना पर विजय प्राप्त कर लेता है; किन्तु उसे कामदेव पर विजय पाना कठिन हो जाता है । ससार में पुरुष-स्त्री, पशु-पक्षी आदि समस्त जीव कामदेव के दास बने हुए है। इसी कारण नर-नारी का मिथुन काम-शान्ति के लिए जीवन-भर विषय-वासना का क्रीड़ा बना रहता है । उस अदम्य कामवासना का लेशमात्र भी प्रभाव क्षत्रिय नवयुवक राजकुमार वर्धमान के हृदय पर दृष्टिगोचर न हुआ ।

जब मोह से आक्रान्त पिता ने वीर कुमार के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। तव वर्धमान ने कहा-'संसार में सुख नहीं। गृहस्थाश्रम बंधन है, पर से उत्पन्न होने वाले, मल-मूत्रादि को प्रवाहित करने वाले, क्षण-क्षण में सैकड़ों वाधाओं से व्याप्त और प्रारम्भ में मधुर दिखने वाले इस इन्द्रिय-सुख को कौन गणी पुरुष सेवन करना चाहेगा? संसार में परिभ्रमण करते हुए इसने अनन्त जन्म, जाति और बंशों को ग्रहण कर-करके छोड़ा है। जगत् में कौन-सा वंश सदा नित्य रहा है और कौनकोन से कुल की सन्तान, माता, पिता और प्रियजन नित्य बने रहे हैं ? मनुष्य किसकिसके मनोरथों को पूरा कर सकता है? इसलिए इस दार-परिग्रह को स्वीकार नहीं करना ही अच्छा है।

पुत्र के उच्च ध्येय, विचार और ब्रह्मचर्य की बात सुनकर राजा सिद्धार्थ और 'रानी त्रिशला कुछ न बोल सके। उन्होंने सोचा-'वर्धमान हमारा पुत्र है, वय में हमसे छोटा है; किन्तु ज्ञान और आचार-विचार में हमसे बहुत बड़ा है, तीर्थकर है । वह हित-अहित की वार्ता तथा कर्तव्य-कार्यों को हमसे अधिक समझता है। हम उसे क्या समझायें ? वह तो संसार में जगत् के जीवों को समझाने, उनका उद्धार करने आया है । वह जिस पुनीत पथ में बढ़ना चाहता है उसमें बाधा डालना हम उचित नहीं।' वे चुप रह गये और उन्होंने कलिंग-नरेश जितशत्रु की कुमारी यशोदा का पाणिग्रहणप्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कुमार को अपलक नेत्रों से देखते रहे ।'

****************************************************************

1. 'पुरिसह तिरिय मुम्बुधरुसारङदेवहहियश दुल्लहो।
बसप्पत्ति जैनकुलवड्वाइधरुसंमार बल्लहो ।।

--नरसेन, बर्द्धमान कथा

2. 'परसंभल पहिय संभउ, खण-खण वाहासब-सहिन ।
आरंभे महरउ इंनियमहधुउ, कोणरुसेवाण प्रहिउ ।।
संसारि भामतई जाई जाइं, गिहियाई पमेल्लिय ताई ताई।
त्तियई गणेसमि आसिवंस, णिच्चाचेजि जगि लजसंस।
केत्तिसंच भणमि बुल-संतईच, जणणी-जण्णा पिय मामिणी ।
पुरेमि मोरह कासु कामु ||

- (राष्ट्रकवि)

'ले पुज्यास्ते महात्मानस्त एव पुरुषा भुवि ।
ये मुखेन समुत्तीर्णाः साधो योवन संकटात् ।

-योगवामिष्ट, 2011 1

3. "निशम्य युक्तार्थवरं पिता गिर पस्पर्ण बालस्य नावालक शिरः ।
अानन्दसदोहसमुल्लसद्वपुस्तया सदार येन्दुभदो वृणः पपुः ।।

-चीरोदय काव्य, 8116,

(तीर्थकर की युक्ति-युक्त वाणी को सुनकर मानन्द-सन्दोह से पुलकित-गरीर पिता ने अपने बालक के नवमलक (केण) वाले सिर का स्पर्श किया और और उनके नेत्र तीर्थकर के मुखरूप चन्द्र से निकलनेवाले अमृत यो पीन लगे।)

****************************************************************

यद्यपि वर्धमान के पिता राजा सिद्धार्थ एक सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र गणतन्त्र के शासक थे । उनके नाना चेटक बैशाली गणतन्त्र के प्रमख नायक थे, अनेक राजाओं के अधीश्वर थे, अतः राजकुमार वर्धमान को सब तरह के राजसुख प्राप्त थे । कोई भी शारीरिक या मानसिक कष्ट उन्हें नहीं था। वे यदि चाहते तो पाणिग्रहण करके वैवाहिक (कामसंबंधी) सुख का उपभोग और कुण्डलग्राम के राजसिंहासन पर बैठकर शासन भी कर सकते थे; परन्तु जिस प्रकार जल में रहता हुआ कमल जल से अलिप्त रहता है उसी प्रकार राजकुमार वर्धमान सर्व सुख-सुविधा सम्पन्न राजभवन में रहकर भी संसार को मोहमाया से अलिप्त रहे। वे अखण्ड बाल-ब्रह्मचर्य से शोभायमान रहे । ठीक ही है-जिनके ज्ञान में वस्तु-तत्त्व का प्रकाश है, जो संसार के दुःखी प्राणियों को धर्म और सुख-मार्ग बतलाने की भावना रखते हैं वे संसार के क्षणभंगर विनाशीक प्रपंचों से विरक्त रहते हैं। तीर्थंकर का ब्रह्मचारी रहना ही ठीक था-उनके पूर्व भी चार तीर्थकर ब्रह्मचारी रहे थे।* महिलाओं में भी प्रजापति आदिनाथ (ऋषभनाथ) की पुत्रियों ने भी विवाह नहीं किया था।