तीर्थकर बर्द्धमान महावीर अब पूर्ण ज्ञानी हो चके हैं, यह जानते इन्द्र को देर नहीं लगी। उसने कुबेर को समवसरण-रचना का आदेश दिया और कुवेर ने भव्य समवसरण की रचना की। समवसरण उस सभा का नाम है, जिसका निर्माण तीर्थकर केवलज्ञानी की दिव्यध्वनि के लिए किया जाता है । इसमें बारह सभाएं होती है और भव्यजीव अपने-अपने लिए निश्चित स्थानों में बैठकर दियध्वनि का आस्वादन करते हैं। जैसे सब विषयों के पृथक-पथक शास्त्र है, वैसे ही एक सभा-शास्त्र भी है। इसमें सभा की व्यवस्था का आद्यन्त पूरा-पूरा विधि-विधान होता है। जो सभाएं सभा-शास्त्र के नियमों की अवहेलना करके निर्मित होती हैं, वे बहुधा असफल होती है जहाँ बैठने-उठने एवं शान्ति स्थापना की व्यवस्था नहीं होती, वे सभाएं और उनके वक्ता प्रायः असफल ही होते है।
तीर्थकर की महिमा का क्या कहना? उनको केवलज्ञान होते ही दस अतिशय प्रत्यक्ष रूप में सामने आ जाते है, यथा-
'योजन शत इक में सुभिख, गगन-गमन, मुखचार। नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कबलाहार ।। सब विद्या ईश्वरपनो, नाहिं बड़े नखकेश । अनिमिष द्ग, छाया-रहित, दश केबल के वेश ।।
इसके अतिरिक्त चौदह अतिशय देवकृत होते हैं, जैसे-
'देव-रचित हैं चार-दश, अर्धमागधी भाष । आपस माही मित्रता, निर्मल दिशि आकाण ।। 'होत फूलफल ऋतु सबै, पृथ्वी कांच समान । चरण-कमल-तल कमल है, नभ त जय-जयवान ।। मंदसुगंध बयारि पुन, गंधोदक की बुष्टि । भूमि विर्ष कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ।। धर्मचक्र आगे रहे. पुनि वसु मंगल सार । अतिपाय श्री अरहंत के, ये चौंतीस प्रकार ।।
तीर्थकर के चार घातिया कर्म के क्षय होने से अनन्त चतुष्टय भी होते है, यथा-
'ज्ञान अनन्त, अनन्त सुख, दरस अनन्त प्रमान । बल अनन्त, अरहंत सी, इष्टदेव पहचान ।।
तीर्थकर के अठारह दोष भी नहीं रहते जैसा कि कुछ लोग उन्हें भूख-प्यास उपसर्ग आदि मानते हैं । भला, जिनको आत्मा सिद्धों के निकट पहुँच रही हो और जो मोह जैसे कर्मराजा का क्षय कर चुके हों उनके ऐसी न्यनताओं की संभावना कैसे हो सकती है ? अठारह दोष, जो अरहंतों के नहीं होते, इस प्रकार हैं-
'जनम जरा तिरखा छुधा, विस्मय आरत खेद । रोगशोक मन-मोह-भय, निद्रा-चिन्ता स्वेद । रागद्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष । नाहि होत अरहंत के, सो छवि लायक मोष ।
तीर्थंकर का सिंहासन समवसरण के मध्य होता है, और उनके आठ प्रातिहार्य होते है। यद्यपि इनसे तीर्थकर का कोई प्रयोजन नहीं (वे तो सिंहासन से भी चार अंगल अधर रहते है-ब परम वीतरागी हैं) तथापि प्रातिहार्य भव्य जीवों को प्रभावोत्पादक होने से देवनिर्मित होते है--महिमा-दर्शक होते है। तीर्थकर का प्रभाव तो उनके वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी होने से होता है । अन्यथा लोक-महिमा तो और भी बहुत से मायावी जुटा लेते हैं--उनसे महिमा नहीं होती। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने एक स्थान पर कहा है—
'देवागम नभोयान चामरादि विभूतयः मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान ।
-देवागम स्तोत्र ।
जय णाहसन्वदेवाहिदेव । किय णायणरिन्दसुरिंद सेव । जय तिवणसामिय तिविह छत्त । अविह परमगुणरिद्धिमत्त ।। जय केवलणाणुविभण्णदेह । वम्महणिम्महण पणटणेह । जय जाइजरामरणारिछेय । बत्तीसगुरिन्दकयाहिसेय ।। जय परमपरंपर वीयराय । सुरमउकोडिमणिधिटुपाय । जय सच्चजीव कारुण्णभाव । अक्खयअणतणयलसहाव ।।
सर्व देवाधिदेव ! इन्द्रों के स्वामी !! हे जिनेन्द्र !!! आपकी जय हो ! आपकी सेवा नाग-नरेन्द्र और सुरेन्द्र करते हैं । आपके त्रिविध छत्र (तीन छत्र) आपके त्रिभुवन-स्वामित्व का ख्यापन करते है-आप त्रिभवन के स्वामी तीन छत्र के धारक हैं। अष्टकर्मों के क्षय होने से अष्ट प्रकार की परम गण ऋद्धि को प्राप्त किये है। आप केवलज्ञान रूपी देह से प्रकाशित है, अथवा केवलज्ञानी है। शरीर से भिन्न है । आपने कामदेव का मथन और वासना का क्षय किया है, आपकी जय हो ! जन्मजरा-मरण का छेद करने वाले बत्तीस इन्द्रों से सेवित हे जिन, आपकी जय हो !! परमउत्कृष्टों में भी उत्कृष्ट, वीतराग आपकी जय हो ! ! आपके चरणों में देवगण अपने मकुटों (सहित मस्तकों) को रखते हैं अधिष्ठित करते है, अर्थात् नमस्कार करते हैं। आपका सर्व जीवों के प्रति कारुण्य, दया-भाव है। आपका स्वभाव आकाशवत्-निरपेक्ष, अभेदरूप से उपकार करना है और आपका स्वभाव (ज्ञान-दर्शनादि) अक्षय और अनन्त है-आपकी जय हो !
स्तुति के पश्चात् इन्द्र और द्वादश सभाओं में स्थित भव्यजीव तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की प्रतीक्षा करते रहे, परन्तु दिव्यध्वनि नहीं हुई और यह क्रम छियासठ दिनों तक चलता रहा। इन्द्र ने विचार किया कि इतने अन्तराल के बाद भी तीर्थकर की दिव्य देशना क्यों नहीं हो रही है ? यह तो ठीक है कि भव्य जीवों के भाग्योदय से ही वाणी होती है । पर, क्या समवसरण में रहना ही भव्यता का परिचायक नहीं? जब कि समवसरण में प्रवेश मात्र परमपुण्योदय से ही होता है। इन्द्र ने विचार किया—
'णिगंथाइय समउ भरतह, केवलिकिरणहो धर विहरंतह ।। गय छासद्धि दिगंतर जामहि, अमराहिउ मणि चितइ तामहि । इय सामगि सयल जिणणाह हो, पंचमणाणपगम गयवाह हो । कि कारण णउ बाणि पयासइ, जीवाइय तच्चाइ ण भासइ ।।
-वर्धमान काव्य, जयमित्तहल्ल, पत्र ८३
तीर्थकर की निर्ग्रन्थ अवस्था में उन्होंने केवलज्ञानरूपी किरण को धारण किया है और विहार करते उन्हें ६६ दिन-रात बीत गये हैं, वे वाणी का प्रकाश कर जीवादि-तत्त्वों की प्ररूपणा क्यों नहीं कर रहे है? इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के बल से जाना कि तीर्थकर की दिव्यध्वनि के ग्रहण करने के लिए किसी प्रधान शिष्य की आवश्यकता होती है। इस समय इन्द्रभति गौतम इस योग्य है कि गणधर बने।
जयधवलाकार ने उक्त विषय का इस प्रकार वर्णन किया है-
"दिव्बज्झणीए किमट्ट तत्थापउत्ती? गणिदाऽभावादो । सोहम्मिदेण तवखण चव गणिदा किण्ण ढोइदो? ण काललद्धीए विणा असहायरस दविदस्स तड्ढोयण सत्तीए अभावादो।"
--जयधवला १, पृष्ठ ७६
'दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति वहाँ (तब तक) क्यों नहीं हुई ?
'गणेन्द्र (गणधर) के अभाव के कारण ।
'सौधर्मेन्द्र ने केवलज्ञानोत्पत्ति और समवसरण-रचना के क्षण ही में गणिद गणधर को क्यों नहीं खोजा अथवा बुलाया?
'काललब्धि के बिना देवेन्द्र इस कार्य के सम्पन्न करने में असमर्थ था । गणधर के बलाने में उसकी शक्ति का अभाव था।
ठीक ही है, जीव के शभाशभ उदय काललब्धि को पाकर ही होते हैं। कर्म के बन्ध में स्थिति-बन्ध भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। स्थिति पूर्ण होने पर ही विपाक होता है। होना जो होगा, जब होगा, जैसा होगा, वह सब काल आने पर ही होगा कहा भी है—
'ज जस्स जम्हि दस जेण विहाणेण जेण कालम्मि । फलत: दिव्यध्वनि होने, गणधर के उपलब्ध होने, इन्द्र के खोज करने, विचारने और भव्यजीवों को देशना का लाभ लेने का काल आ पहुँचा । अतः इन्द्र को गौतम-इन्द्रति को लाने का उपक्रम करना पड़ा।
इन्द्र ने वृद्ध ब्राह्मण' का रूप बनाया और वह वेद-वेदांग के ज्ञाता, महान् प्रतिभाशाली और पांच सौ शिष्यों के गरु इन्द्रभूति-गौतम के समीप पहुंचा तथा इन्द्रभूति गौतम से निम्न पदार्थों के नामसूचक श्लोक का अर्थ पूछा—
'काल्यं द्रव्यषटकं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्या, पंचान्ये चास्तिकाया ब्रत-समितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः । इत्येतन्मोक्षमलं त्रिभुवन-महितोक्तमहंद्भिरीण: प्रत्येति श्रद्धधाति स्पृशति च मतिमान यः स वै शद्धदष्टि: ।।"
-श्रुतभक्ति:
लोक में छह द्रव्य है, नव पदार्थ हैं, षट् काय के जीव हैं, छह लेश्याएँ हैं, पाँच अस्तिकाय हैं । पाँच व्रत , पाँच समितियाँ और चार गतियाँ है। ज्ञान और चारित्र के भेद-प्रभेद है। ये मोक्ष के मूल है, ऐसा त्रिलोकपूज्य-अर्हन्तों ने कहा है। जो पुरुष इनका ज्ञान प्राप्त करता है, इनका श्रद्धान करता है, वही शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है।
इन्द्र के प्रश्न को सुनकर इन्द्रभति-गौतम के आश्चर्य का पारावार न रहा। उन्होंने श्लोक में पूछी गई बातों को स्वप्न में भी नहीं देखा, पढ़ा और सुना था। वह पाँच अस्तिकाय, छह जीव-निकाय, पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचन मातृका, बंध और मोक्ष को भी नहीं जानते थे। फलतः उन्होंने इन्द्र से कहा कि ये तुम्हारे प्रश्न अटपटे और विचित्र है, साथ ही विपरीत और विरूप भी है। इन्द्र बोला-'महाशयहमारे गुरु इस समय विपुलाचल पर विराजमान है, वे तीनों लोकों के जीवों के समस्त गुणों को पर्यायों सहित जानते हैं, वे सर्वज्ञ-सर्वदशी हैं और भूत-भविष्य एवं वर्तमान काल संबंधी पदार्थों को युगपत् जानते हैं। उनका ज्ञान क्षायिक है, अनवरत है।
कृपा कर आप मुझे उक्त श्लोक का स्पष्ट अर्थ समझा दीजिए मैं भूल गया हूँ और आपकी विद्वत्ता को सुनकर आपके पास दौड़ा आया हूँ। मेरे गुरु तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर है और वे ध्यानस्थ मौन है।
इन्द्रभूति-गौतम वृद्ध ब्राह्मण से इलोक सुनकर विचार में पड़ गये कि छह द्रव्य, नव पदार्थ, षट् कायजीव, पड्लेश्या, पाँच अस्तिकाय आदि का मैने आज तक नाम भी नहीं सुना। मैं वेद-वेदांग का ज्ञाता तो हूँ. परन्तु मुझे अहंत दर्शन का ज्ञान नहीं है। तब इस म कस समझाऊ? इसक समक्ष अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना भी मूढ़ता होगी-मेरा अपमान होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने अपनी मान-मर्यादा रखने के लिए और मन में अपनी विजय की कामना कर वृद्ध ब्राह्मण से कहा-'चल मैं तरे गरु से वार्तालाप करूंगा।'
इन्द्र तो यह चाहता ही था कि किसी तरह इन्द्रभूति-गौतम समवसरण में आयें। बस क्या था? उसने 'हाँ' भर दी और इन्द्रभूति-गौतम को समवसरण की ओर ले चला। गौतम ने जैसे ही मानस्तम्भ को देखा उनमें नम्रता का संचार हो गयाउनका ज्ञान-मद कपूर की तरह उड़ गया। वे नत-भाव से आगे बढ़े-समवसरण में पहुँचे और सन्मख विराजमान तीर्थंकर महावीर बर्द्धमान पर उनकी दृष्टि पड़ी। धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा जाग उठी । उन्होंने साष्टांग जिन-वन्दन किया और तीर्थकर के श्रद्धाल शिष्य बन गये । वे इतने प्रभावित हुए कि तत्काल दिगम्बर वेश धारण करते हुए स्तुतिपूर्वक अपने भ्राताओं सहित पंचमहाव्रतों को अंगीकार कर लिया । इसी क्षण गौतम को सम्यग्दर्शन हो गया। उनके मति, श्रुत ज्ञानों ने सम्यक् रूप ले लिया और वे मनःपर्ययज्ञानी भी हो गये। फिर क्या था? इतना होते ही तीर्थकर वर्द्धमान महावीर का मौन भंग हआ-उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी। उनके मल्य गणधर यही गौतम बने । अब गौतम श्रुतकेवली हो गये। गणधर और गणेश दोनों संज्ञाओं से उन्हें संबोधित किया जाने लगा-मंगलं गौतमो गणी।'
तीर्थकर के मानभंग का यह शभ दिन श्रावण वदी प्रतिपदा का दिन था। जो तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् अब तक ६६ दिनों के अखण्ड मौन में रहे वे अब भव्य जीवों को उपदेश देने लगे-वीरशासन का उदय हुआ। ऐसे पुण्यशाली दिन को जनता ने वर्ष का ही नहीं अपितु जन्म की सफलता का दिन माना । यह शभ दिन कई शताब्दियों तक भारतीय जनता में वर्ष का प्रारम्भिक दिन बना रहा। वह श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से अपना नया संवत्सर मानने लगी।
इधर दूसरी और राजा श्रेणिक प्रभूति के भाग्य भी जागे । वे भी सभा में पहुंच । कवि के शब्दों में—
'मगधदेश देसनि-परधान । राजगृही नगरी सुभथान । राजकर श्रेणिक भूपाल । नीतवंत नृप पुन्य, विसाल ॥१॥ छायक-सम्यक-दरसनसार । रूपसील सब गुन आधार । तिनके घर अन्तेवर घना। पटरानी रानी चेलना ।।२।।
जिम्बदीप के दक्षिण में स्थित भारतक्षेत्र में अनेक देश है उन) देशों में प्रमुख देश मगध है। उस मगध देश में राजगृही नगरी शुभस्थान (पद) है । उस नगरी में श्रेणिक नामक राजा राज्य करता है। श्रेणिक राजा पुण्यात्मा है और नीति (शास्त्र) के अनुरूप चलने वाला है। वह क्षायिक -सम्यग्दृष्टि और रूप-शील-गुणों का आधारभूत अर्थात् सर्वगुण-सम्पन्न है। उसके कई अन्तःपुर है। उसकी पटरानी चेलना है।
'जाके गुन बरनत बहुभाय । बिरियाँ लगै कथा बढिजाय । एक दिना निज सभा नरेस । निवर्स जैसे सुरग सुरेस ।।३।। रोमांचित बनपालक ताम | आय राय प्रति कियो प्रनाम । छहरितु के फल-फूल अनप । आग घरे अनुपम रूप ।।४।।
( उस राजा-रानी और अन्त पुर के विविध गुणों के वर्णन में पर्याप्त समय लगेगा और कथा की वृद्धि होगी। ( अतः संक्षेप में ही पर्याप्त है) । एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में इस प्रकार विराजमान थे, जिस प्रकार स्वर्ग-सभा में इन्द्र2 विराजमान होता है। उस समय बन के वन-पालक (माली) ने प्रसन्न और पुलकित होकर सभा में प्रवेश किया और राजा श्रेणिक को प्रणाम किया । उसने वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा , शरद्, हेमन्त और शिशिर छहों ऋतुओं के अनुपम फूल-फल राजा के सम्मुख रखे, अर्थात् राजा को भेंट दिये।)
'हाथजोरि बिनवै वनपाल । विपुलाचल पर्वत के भाल । वर्द्धमान तीर्थकर आप । आये राजन-पुन्य प्रताप ।।५।। महिमा कछु बरनी नहि जाय। इन्द्रादिक सेवै सब पाय । समोसरन संपति की कथा। मोपै कही जाय किमि तथा ।।६।।
( वनपाल (माली) ने हाथ जोड़कर राजा को प्रणाम करके उनसे प्रार्थना की—
महाराज, बिपुलाचल पर्वत के (मस्तक) ऊपर तीर्थकर बर्द्धमान आये हैं। और यह सब आपके (भव्यों के) पुण्य का प्रताप है। उन तीर्थंकर प्रभु की महिमा में वर्णन (कथन) में नहीं आ सकता । इन्द्रादिक उनके चरण-कमलों की सेवा करते हैं। तीर्थकर का अपूर्व समवसरण है, उस समवसरण-विभूति की महिमा मुझसे वर्णन नहीं की जा सकतो अर्थात् में (अल्प बद्धि) उसका बखान कैसे, क्यों कर, कर सकता हुँ-नहीं कर सकता । )
'माली बचन सुने मुखदाय । हरष्यो राजा अंग नमाय । दीने भूषन-बसन उतार । बनमाली लीने सिरधार ।।७।। सात पैड गिरि-सम्मुख जाय । कियो परोक्छ-विनय नरराय आनंद-भेरि नगर में दई। सब ही को दरसन रुचि भई ।।८।।
(माली के सुखद वचन सुनकर राजा फले नहीं समाये, अर्थात अति प्रसन्न हुए। उसने हर्ष में अपने वस्त्राभयण उतार कर (सुखद सन्देश लाने के उपलक्ष्य में ) वनमाली को दे दिये और वनमाली ने उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण किया। तदनन्तर राजा ने विपुलाचल की दिशा में सात पद चलकर तीर्थकर वर्द्धमान को परोक्ष रूप में प्रणाम (वन्दन) किया और नगर में (शुभ सूचना-संबंधी) भेरी बजवाई अर्थात् विपुलाचल पर तीर्थंकर देव के पधारने की घोषणा कराई, जिससे समस्त नगरवासियों को दर्शन की रुचि हुई।)
'चल्यो संग पुर-जन समुदाय । बंदे वर्धमान जिनराय । लोकोत्तर लछमी अवलोक । गये सकल भूपति के सोक ।।९।। थुति आरम्भ करी बहुभाय । बार-बार भुवि सीस नवाय । गौतम गुरु पूजे कर-जोरि। नर को बैठ्यो मद-छोरि ।।१०।।
(राजा श्रेणिक समवसरण की वन्दना के लिए गये और उनके साथ पुर-वासियों का समुदाय भी गया। सबने वर्द्धमान जिन की वन्दना की। समवसरण-संबंधी लोकोत्तर-विभति को देखकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई अर्थात उसकी चिन्ताएँ मिट गई। उसने अनेक प्रकार की स्तुतियाँ की और बारम्बार मस्तक को पृथ्वी पर नवाया--नमस्कार किया । हाथ जोड़कर गौतम गणधर की पूजा की और मद छोड़कर सरल भाव से नर-कोष्ठ में जाकर जिनेन्द्र-स्तुति का गान किया और सपरिवार देशनाश्रवण-हेतु यथास्थान बैठ गया। )
"जिनवचन-रसायनं दुरापं श्रुतियुगलांजलिना निपीयमानम् । विषय-विष तृषामपास्य दूरं कमिह करोत्यजरामरं न भव्यम् ।।
जिनवाणी रसायन है, वह भाग्य से मिलती है। इसे कर्ण-युगल की अंजलियों से भरकर उल्लासपूर्वक पीने वाला कौन पिपासु विषय-विष को दूरकर अजरअमर पद को प्राप्त नहीं करता।
"वीर-हिमाचल से निकसी, ग रुगौतम के मुखकुंड ढरी है। मोह-महामद भेदचली, जग की जड़तातप दूर करी है ॥१॥ ज्ञान-पयोनिधि माहि रली, बहुभंग तरंगनि सौं उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति में अंजुली कर शीष धारी है ।।२।। या जा-मंदिर में अनिवार, अज्ञान अंधेर छयो अति भारी। श्री जिन की धुनि दीपशिखा सम जो नहि होत प्रकाशन हारी ।।३।। तो किहि भाँति पदारथ पाति कहाँ लहते रहते अविचारी। या विधि सन्त कहें धनि हैं, धनि हैं जिन-बैन बड़े उपकारी ।।४।।
-भूधरदास, जैनशतक १५ ।
हे दिव्यध्वनि, त पवित्र गंगानदी की भांति तीर्थंकर महावीर-रूपी हिमालय से निकलकर गौतम गणधर के मुखरूपी कुण्ड में प्रवाहित है। वहाँ से चलकर त मोहरूपी पर्वत को छिन्न-भिन्न कर संसार के जड़तारूपी आतप को दूर करती हई ज्ञानरूपी सागर में जा मिली है। तुझ में सप्तभंग (स्याहादरूपी लहरें उच्छलन करती है। ऐसी पावन गंगा रूपी पवित्र सम्यक-बाणी को मैं कर-कमलों से सदा नमस्कार करता है। इस संसार रूपी मंदिर में अज्ञान का दुनिवार , घनघोर अन्धकार छाया हुआ है, यदि इसमें तीर्थंकर महावीर की दीपक की (अकम्प) लौ-सी दिव्यध्वनि प्रकाशन करती तो विश्व के समस्त पदार्थ कैसे जाने जाते? सन्त पुरुष' कहते हैं कि तीर्थंकर महावीर की दिव्यवाणी उपकार करने वाली है। अतः धन्य है, धन्य है, मंगलमय है।
इधर विख्यात ब्राह्मण विद्वान् इन्द्रभति गौतम तो तीर्थंकर के प्रमुख गणधर बन ही चुके थे। उनके साथ अग्निभूति-वायभूति ब्राह्मण विद्वान् भी अपनी शिष्यमण्डली सहित श्रद्धानी और समवसरण के पात्र बने। इनके शिष्य-प्रशिष्यों की भी कमी नहीं थी, सभी ने समवसरण का लाभ लिया । उधर राजगृही (मगधदेश) के नरेश श्रेणिक (बिम्बसार) भी समवसरण में सपरिवार बैठे थे । अन्य एकादश सभागृह भी खचाखच भरे थे। जो समवसरण अब तक दिव्यध्वनि से शन्य था-उसकी द्वादश सभाओं में अपूर्व उल्लास, उत्साह एवं शान्ति का वातावरण था।
इन्द्रभूति गौतम, जिनकी उपस्थिति दिव्यध्वनि के निमित्त अपरिहार्य थी, जन्मजात ब्राह्मण थे। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के गणपति वृषभसेन थे। उपलब्ध प्रमाणों से ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व काल से ही आध्यत्मिक विद्या के जनक क्षत्रिय रहे और उस विद्या का प्रचार-प्रसार ब्राह्मणों ने किया। इसकी पुष्टि छान्दोग्योपनिषद् के शांकर भाष्य से भी होती है-
'यथेयं प्राक् स्वतः पुरा विद्या बाह्मणान् गच्छति । तस्मात्तु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूत् ।।
-छान्दोग्योपनिषद् ५।३।७
तत्रास्ति वक्तव्यं यथा तेन प्रकारेण इयं विद्या प्राक् त्वत्तो ब्राह्मणान् न गच्छति न गतवती, न च ब्राहाणा अनया विद्यया अनुशासितवन्तः यथा एतत प्रसिद्ध लोके यतः । तस्माद् पुरा पूर्व सर्वेषु लोकेषु क्षत्त्रस्यैव क्षत्त्रजातेरेव अनया विद्यया प्रशासन प्रशास्तत्वं शिष्याणामभूत वभ्व । क्षत्रिय परंपरयैवेयं विद्या एतावन्तं कालमागता। तथाप्येता अहं तुभ्यं वक्ष्यामि । त्वत् संप्रदानावं ब्राह्मणान गमिष्यति । अतो मया यदुक्तं तत्क्षन्तुमर्हसोत्युक्त्वा तस्मै ह उवाच विद्यां राजा ।"
-छान्दोग्योपनिषद्, शंकरभाष्य ५१७
क्षत्रियों से पूर्व अध्यात्म विद्या ब्राह्मणों को प्राप्त नहीं हुई अतएव यह मान्यता युक्ति-युक्त है कि सम्पूर्ण लोक पर क्षत्रियों का हो प्रशासन था। (ऋषभं पाथिवश्रेष्ठ सर्व क्षत्रस्य पूर्वजम् । ब्रह्माण्डपुराण २।१४) गौतम को ब्रह्मविद्या संबंधी प्रश्न करते सुनकर उस क्षत्रिय नपति ने कहा (उसी वक्तव्य को कहते हैं )-यह लोकप्रसिद्ध है कि यह विद्या तुमसे पूर्व ब्राह्मणों को प्राप्त नहीं हुई और न ही वे इस विद्या से अनुशासित हुए। इससे पूर्व समस्त लोक पर क्षत्रिय जाति का ही इस विद्या द्वारा प्रशासन हुआ। यद्यपि क्षत्रिय-परम्परा से ही यह विद्या अब तक प्रवृत्त रही, तथापि अब मैं इसे बताऊँगा। आज से तुम्हारे पश्चात् यह ब्राह्मणों में फैलेगी। अतः मैंने जो कहा उसे क्षमा करना । तदनन्तर राजा ने विद्योपदेश किया ।
समवसरण के शान्त वातावरण में तीथंकरों की दिव्य-ध्वनि (देशना) होती है। एक तो वहाँ साक्षात् तीर्थ कर विराजमान; दूसरे धर्मदेशना का पुण्यस्थान । ऐसे पुण्यस्थल पर शान्ति होना स्वाभाविक है। प्राचीन काल से ही ऐसी परिपाटी रही है कि धर्मस्थान में कोलाहल वर्ण्य रहता था। धर्मसभा अन्ततः धर्मसभा ही है, वह कोई अखाड़ा तो है नहों; फिर जहाँ आत्मशान्ति की ही चर्चा हो, वहाँ बाहा अशान्ति को प्रश्रय कसे समवसरण की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित थी; ऐसी अनुशासनबद्ध कि जहाँ भिन्न जाति के जीव पश-पक्षी, देव-देवियाँ, नर-नारियाँ, सब यथास्थान निर्बाध, शान्त चित्त से बैठ सकें । आज भी यदा-कदा धर्म-सभा की शान्ति (समवसरण की शान्ति का स्मरण कराती हुई) दष्टिगोचर हो जाती है। वहाँ भिन्न जातिसम्प्रदाय के श्रोता मौन बैठे, एकाग्र चित्त से धर्मलाभ लेते हैं। (यहाँ लेखक की दृष्टि १०८ पूज्य मनिश्री विद्यानन्दजी महाराज की प्रवचन-सभाओं पर जाती है-जहाँहजारों लोग धर्म-श्रवण करते हैं।) वास्तव में धर्म-सभा शान्त वातावरण में ही सम्पन्न हो सकती है, क्योंकि मूलतः धर्म का संबंध आत्मशान्ति से है।
समवसरण के सुखद शान्त वातावरण में तीर्थंकर की दिव्य देशना हुई । गौतम गणधर ने उसे सांगोपांग ग्रहण किया और भव्य जीवों को उसके नवनीत का रसास्वादन कराया। उन्होंने अनेक जिज्ञासाओं का समाधान भी किया। सभा-प्रमुख राजा श्रेणिक (बिम्बसार) ने समय-समय पर अनेक प्रश्न किये, जिज्ञासाएं कीं। जिनका उन्हें समाधान मिला । प्रायः सभी स्तर के प्रश्न थे। यद्यपि तीर्थकर की दिव्य देशना अर्धमागधी में ही हुई; तथापि वह सुगम-सुबोध थी; क्योंकि वह प्राकृत-संबंधी प्रकृति की भाषा थी और प्रकृति की भाषा समस्त जीवों को सरलता से बोध देनेवाली होती है। यही कारण है कि सिद्धान्त-रचना और प्रतिपादन में भी प्राकृत को ही सर्व-प्रथम ग्रहण किया गया है—
'बाल-स्त्री-मन्द-मुर्खाणां नणां चारित्रकांक्षिणाम् । प्रतिबोधाय तत्त्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।।
तीर्थकर की ध्वनि जन-भाषा में होती थी-'सर्वार्थ मागधीया भाषा मैत्री च सर्वजनताविषया ।-नंदि ४२। प्रत्येक श्रोता उसे सुगमता से समझ लेता था। उपदेश में तात्त्विक विवेचन तो होते ही थे साथ हो उसमें लोक का विवरण क्षेत्र-भू-पर्वतादिपरिचय, शलाका-पुरुष-इतिहास, गृहस्थ-मनिधर्म आदि की विशद व्याख्या भी अन्तभूत होती थी। आगे चलकर इसी ध्वनि की परम्परा में जैनाचार्यों ने विविध विषयों के विशद ग्रन्थों की रचना की जैसा कि शास्त्रारम्भ में पढ़ा जाता है-
'अस्य मलग्रन्थ कर्तारः श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषांवचोऽनुसारमासाद्य ' ' ' । फलतः जो लोग श्रीमदाचार्य कुन्दकुन्द को भी केवल अध्यात्म का प्रवक्ता मात्र मानते हैं वे भी भ्रम में हैं।
तीर्थ कर महावीर-वर्द्धमान का देशना-काल २९ वर्ष ५ माह २० दिन रहा ।। इस काल में उन्होंने अनेकानेक स्थानों पर विहार किया, देशना की, जन-जन को संबोधित किया। इनमें से प्रमुख देशों के नामों का शास्त्रों में भी उल्लेख हुआ है। यथा—
'इच्छाविरहितः सोऽपि भव्यपुण्योदयोदितः । बिहारमकरोद् देशनार्थान् धर्मोपदेशयन् ॥ काश्यां कामीरदेमा कुरुषु च मगधे कौशले कामरूपे कच्छे काले कलिंगे जनपदमहिते जांगलान्ते कुरादौ ।। किष्किन्धे मल्लदेणे सुकृति जनमनस्तोषदे धर्मवृष्टि । कुर्वन् शास्ता जिनेन्द्रो विहरति नियतं तं यजेऽहं त्रिकालं ।। पांचाले केरले वाऽमतपमिहिरोमन्द्रचेदी दशार्ण- बंगांगान्ध्रोलि कोशीनरमलयविदर्भेषु गौडे सुसह्ये ।। शीतांशुरश्मिजालादमृतमिव समां धर्मपीयूषधारां । सिंचन् योगाभिरामः परिणमयति च स्वान्तशुद्धिं जनानाम् ।।
--प्रतिष्ठा पाठ ५, ६
दिव्यध्वनि की दिव्यता उसकी कथन के शैली-शिल्प से भी है। वह जीवों के संशयों, उनके विपर्यास, अनध्यवसाय का निराकरण करके अपेक्षावाद की दृष्टि से तत्त्व की विवेचना करती है। अनंतधर्मात्मक वस्तु का कथन एकान्तवाद से नहीं होता, उसमें अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंग ही कार्यकारी होते हैं। यही कारण है कि अनेकान्तमयी वाणी को विरोध-मथनी वाणी कहकर नमस्कार भी किया गया है"विरोध मथनम् नमाम्यनेकान्तम् ।" अनन्तधर्मा पदार्थ का सप्तभंगी दिव्यध्वनि से ही प्रकाश हो सकता है। 'अनन्त धर्मष्वपि सम्भवन्तीमहन्तु दिव्यध्वनि सप्तभंगीम् ।” प्रति, ति. ११।१४, पु. ५६९ । जब अन्य वाणियों से सर्वजनमनस्तुष्टि नहीं हो पाती, ज्ञान के विषय में वे बिप्लवग्रस्त रहते है, तब अनेकान्तमयी स्यावाद वाणी समस्त संशयों का निराकरण कर देती है, अर्थात् स्याद्वाद समस्त वादों के लिए उसी प्रकार है जिस प्रकार वन में केशरी (सिंह) के आने पर छोटे-मोटे सब जीव-जन्तु निष्प्रभ हो जाते हैं। स्याहाद की उपस्थिति में अन्य सब वाद प्रभावशून्य हैं। जिनवाणी - स्याद्वाद अनेकान्त-सप्तभंगमयी है, वह अद्वितीय है, इसकी उपमा अन्यत्र नहीं है। कहा भी है-
'कैसे करि, केतकी कनेर एक कहे जाये, आक दूध, गाय दूध अंतर घनेरे है। पीरी होत रीरी पैन रील कर कंचन की, कहाँ कागबानी, कहाँ कोयल की टेर हैं। कहाँ भान-भारो' कहाँ आगिया' विचारो कहाँ- पूनों को उजारो, कहाँ मावस अंधेर है। पच्छ छोरि पारखी निहार नैकुनीके नैन, जैन-बैन और-बैन एतो ही तो फेर है ।।
-भूधरशत्तक
ऐसी अनुपम दिव्य देशना का लाभ जिन जीवों को प्राप्त हो उनका अहोभाग्य है, वे धन्य है। गौतम गणधर ने जो सुना-समझा, वह एकत्रित जीवों को बतायाउसमें गणधर का अपना कुछ नहीं था। यही बात अन्य आचार्यों ने भी स्पष्टतः कही है।
बौर-मुह-कमल-णिग्गय-सयल-सुयग्गहण-पयडण-समस्य । णमिङ्गण गोयमह सिद्धतालावमणु बोच्छं ।।
-गो. जी. ७२८
तीर्थकर की दिव्यध्वनि सर्वांगीण और ॐकार रूप होती है। और उसमें सब जीवों की जिगमिषा (जानने की इच्छा) के समाधान का सामर्थ्य होता है। समस्त प्राणी उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं, और यह सर्वथा संभव है क्योंकि जब शान्त वीतराग मुनिमद्रा को देखकर मन के विकार शान्त होते देखे जाते हैं जबकि हम देख रहे हैं कि दर्शक और शान्त मनि, परस्पर पर्याप्त अन्तर पर है-एक का दूसरे से कोई स्पर्श नहीं है तो फिर ध्वनि तो भव्यजीवों के कर्ण-पटल से टकराकर, तीर्थकर अंग से निःसत ध्वनि-वर्गणाओं का उनसे साक्षात् स्पर्श कराती है। ये वर्गणाएं स्वयं सशक्त और पवित्र हैं, सब कुछ करने में समर्थ है। भला, जिनके प्रभाव से सौ-सौ योजन तक सुभिक्ष हो जाता हो, उनकी ध्वनि-वर्गणाओं का स्पर्श पाकर जिगमिषा पूर्ण सुहागन होती है तो कौन-सी बड़ी बात है ?
कहा ऐसा गया है कि जिनको धुनि है ॐकाररूप । निर-अक्षरमय महिमा अनूप ।' और 'ॐकार धनिसार द्वादशांग वाणी विमल ।' ॐकार पद बड़े महत्त्व का पद है। इसमें पंचपरमेष्ठी का अप्रतिम प्रेरक व्यक्तित्व गुंथा हुआ है। जगत् में भी ॐकार की महिमा गाई गई है। इसीलिए प्राय: सब इसी का पाठ करते हैं। हो सकता है कि इसमें यह भी एक कारण हो कि जो ध्वनि तीर्थंकर के दिव्य शरीर से उद्भूत होकर भव्य जीवों को आनन्ददायक होती है, वह ध्वनि पवित्र होने के कारण (अनुकरण रूप में ही सही) हमें भी आनन्द देती हो?
तीर्थकर की वाणी स्याद्वादमय होती है । कहा भी है—'सो स्याद्वाद मय सप्तभंग । गणधर गथे बारह सुअंग ।'-स्याद्वाद' का अर्थ ही यह है कि पदार्थ की विवेचना समस्त अपेक्षाओं से की जाए। जब सब की अपेक्षाएँ उस वाणी में निहित है तब सब के द्वारा अपनी-अपनी अपेक्षा (स्व+अर्थ) से उसका भाव लेना अशक्य भी नहीं है । लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि जहाँ स्याद्वाद का प्रयोग है, वहाँ समाधान भी सहज हो जाता है । तीखे-से-तीखे विवाद शान्त हो जाते हैं। स्यावाद विषय ही ऐसा व्यापक और गहन गम्भीर है कि जिसका विस्तृत समीक्षण यदि किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ में किया जाए तो उस ग्रन्थ की कई जिल्द अपेक्षित होंगी, अतः इस विषय पर हम फिर कहीं लिखगे; यहाँ तो तीर्थंकर की दिव्य देशना को ही अंकित करना हमारा मस्य प्रयोजन है।
शास्त्रों में वाणी को गंगा की उपमा दी गई है, अर्थात जिस प्रकार लोकगंगा में अवगाहन कर हम अपने तन के मैल को धो लेते हैं, उसी प्रकार जिनवाणी में अवगाहन चित्त को निर्मल कर देता है । भव्यजीव वाणी-रूपी गंगा में स्नान करते हैं । गंगा की कल्लोलों की भांति वाणी में भी नय-रूपी कल्लोले हैं। बाणी-रूपी गंगा भव्य जीवों को ज्ञान में स्नान कराकर उनके पाप-मलों --विकारों को घो डालती है । जैसे—
'यदीया बारगंगा विविधनय कल्लोलविमला। वृहज्ज्ञानांभोभिजगति जनतां या स्नपयति ।।
जिनवाणी-रूपी गंगा में ज्ञानरूपी अथाह जल है। उसका माप करना दूष्कर है, उसका गूंथना असंभव है । भला, जिनकी वाणी का अनन्तवा भाग श्रुतकेवली के भाग में आया हो और क्रमशः जिसके ग्रहण करने में परम्परा या शक्ति की असमर्थता होती गई हो, उस वाणी के रहस्य को प्रकट करना-हम मन्दतम बद्धियों के लिए कैसे संभव हो सकता है? अतः इस विषय में हमारा मौन हीष्ट है। फिर भी जसे पिक अम्बकली के प्रभाव से बसन्त में मधुर शब्द करती है, वैसे ही तीर्थकर और उनकी वाणी में भक्तिभाव ही हमें प्रेरित करते हैं। अतः परम्परागत आचार्यों के कुछ वचन यहाँ अंकित करने का साहस कर रहे हैं।
तीर्थकर वर्तमान की सभा में राजा श्रेणिक मनुज-प्रमुख थे। दिव्यध्वनि के बाद गौतम गणधर प्रश्नोत्तररूप में जिनवाणी का रहस्य लोगों पर उदघाटित करते थे । राजा श्रेणिक ने कई हजार प्रश्न पूछे। उन्होंने गौतम गणधर से इतने दिनों ध्वनि न खिरने का कारण भी पूछा। गणधर ने बताया कि एक कार्य के कई कारण होते हैं। कुछ अंतरंग और कुछ बहिरंग । दिव्यध्वनि न होने में अंतरंग कारण तो भव्यजीवों के भाग्योदय का न होना है और बहिरंग कारण गणधर का अभाव है । कहा भी है-
भविभागन वच-जोगे वणाय, तुम धुनि ह सुनि विभ्रम-नशाय ।
-पं. दौलतराम ।
हे जिनवर, आपकी नमनाशिनी दिव्यध्वनि, भव्यजीवों के भाग्य से और आपके वचन-योग से आपकी ध्वनि होती है । और सब भ्रमों (संशयों) का उच्छेद कर देती है। सच है जब साधारण-से-साधारण लाभ भी बिना भाग्योदय के नहीं होते, तब दिव्यध्वनि-रूपी (मिथ्यातम के नाश में मूलभत) देशना पुण्योदय के बिना कैसे संभव हो सकती है?
गौतम गणधर के अभाव में ६६ दिनों तक दिव्यध्वनि नहीं हुई। श्रेणिक ने कहा-'इन्द्र तो सब जानते थे, उन्होंने गणधर को इतने काल तक क्यों नहीं खोजा? गौतमस्वामी ने कहा-दिव्यध्वनि तथा भव्यजीवों के पुण्य की काललब्धि नहीं आई थी। ठीक है काललब्धि के बिना कुछ नहीं होता; जो जैसा होगा वह काललब्धि पर ही होगा।
तीर्थकर वर्द्धमान महावीर के समय में देश में हिंसा का विकराल ताण्डव था। वातावरण विषाक्त था । यज्ञ-धर्म के नाम पर सैकड़ों निरीह पशओं को अग्नि में होम दिया जाता था, जिसे जैन-वाङमय के प्रकाश में घोर पाप माना गया है। इसलिय प्रचार में आ गया कि 'महावीर ने उस हिसा को रोका ' (किन्हीं आचार्यों द्वारा हआ ऐसा लिपिबद्ध उल्लेख हमारी दष्टि में नहीं आया और न किसी यज्ञभूमि में पहुंचकर वीर प्रभु ने इसका निषेध किया हो ऐसा ही देखने में आया। जैनशास्त्रों के अनसार तो तीर्थकर केवलज्ञान से पूर्व उपदेशश नहीं देते और कवलज्ञान क वाद उनकी दिव्यध्वनि मात्र होती है, वह भी इच्छा-रहित ही होती है। हमारी दष्टि में यह प्रचार केवल जैनाचार में अहिंसा की सूक्ष्म प्रक्रिया के प्रकाश में ही किया गया प्रतीत होता है।
तीर्थकर की दिव्यध्वनि में हिसा की घोर-से-घोर हानियाँ गर्भित थीं, इसे पूर्ण और घोरतम पाप बताया गया था, जैसा कि आचार-शास्त्र के सभी ग्रंथों में मिलता है । यह वास्तविकता का वैसा ही दिग्दर्शन था जैसा कि झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह को लक्ष्य करके समझा गया है, तत्त्वों के वर्णन में समझा गया है। तीर्थकर ने मुनि और श्रावक के आचार, तत्त्व-विवेचन आदि के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म मर्मों का उद्घाटन किया। इस रहस्योद्घाटन में अन्य पूर्व तीर्थंकरों से उनका कोई विरोध नहीं था। जो चीजें जिस रूप में २३ तीर्थ कर की वाणी में थीं, वे ही सब महावीर की देशना में थीं । सर्वत्र एकरूप केवलज्ञान सब में एक जैसा था, अतः महावीर ने किसी व्यक्ति-विशेष, या पदार्थ को लक्ष्य में रखकर किसी बात का विवेचन नहीं किया । हाँ, गौतम गणधर ने अवश्य प्रश्नों के उत्तर दिये थे। अस्तु यह ठीक है कि महावीर द्वारा उपदिष्ट अहिसा का यज्ञादि पर प्रभाव पड़ाहो, और यज्ञ की हिंसक प्रवृत्ति धर्म के स्थान पर अघर्म का नाम पा गई हो।
देशना में सर्वप्रथम मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग फलित किया गया है क्योंकि सब जीव सुख चाहते हैं और सुख का सच्चा स्वरूप मोक्ष है। आत्मा का स्वाभाविक शाश्वत ङ्केस्वासपात्तरण ही है | मोक्ष मार्ग दिखलाने के लिए, मोक्षमता को विपक्षी सांसार की विवेचना भी की गई है, क्योंकि विपक्षी पदार्थ के ज्ञान के बिना वस्तु की यथार्थता समझ में नहीं आती। इस प्रकार देशना इस उभय विधि-विवेचन में पूर्ण हो जाती है । सांसारिक पदार्थ, आचार-विचार आदि सभी बातों के विवेचन को गणधर देव तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने चार अनयोगों में विभाजित किया है। प्रथमानयोग में कथासाहित्य, करणानुयोग में लोक-व्यवस्था, द्रव्यानुयोग में पदार्थों का स्वरूप और चरणानुयोग में मुनिधर्म व श्रावक-धर्म के आचार का वर्णन है। कथा-साहित्य समय-समय में होने वाले महान लोक-पुरुषों के चरित्रों से वद्धिगत होता गया । लोक-व्यवस्था तद्वस्व है, द्रव्य भी तद्वस्थ है-इनमें कोई परिवर्तन नहीं। स्वाभाविक रीति से मुख्य आचार भी ज्यों-का-त्यों है। हाँ, व्यवहाराचार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा को स्थान दिया गया है। इसीलिए आचार-विचार में समय-समय पर अन्तर दष्टिगोचर होता रहा है।