एक समय रात्रि को जब त्रिशला रानी नन्द्यावर्त (राजभवन) में आनन्द से निद्रा-मग्न थी-उन्होंने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह सुन्दर स्वप्न देखे ।' कवि मनसूखसागर के शब्दों में-
'रसमिति मास बितीतिये, मंगल नृत्यसुगान । सितअष्टाषष्टीस्वस्वनि, ऊपानक्षत्र बखान ।। पश्चिम निशि षोडस सुपन, लखे महासुखकार । गजमुख प्रविशत अन्त में सोऽच्यतेन्द्र थितिधार ।। 4
राजा सिद्धार्थ के भवन पर रत्नवृष्टि व मंगल नत्य-गान होते हुए छह माह पूर्ण होने पर आषाढ़ शवला पण्डी का उत्तराषाढ़ नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर म त्रिशला रानी ने सोलह स्वप्न देखे और अन्त में गज को मख में प्रवेश करते हए देखा। तभी अच्युत-इन्द्र अपनी स्वर्ग आय पूर्ण कर रानी के गर्भ में आया । स्वानों को देखकर रानी की नोद खुल गई। वह स्नानादि से निवत्त हो राजा सिद्धार्थ के पास गई और उन्हें सोलह स्वप्न सूनाये । राजा ने अवधिज्ञान से उनका फल जाना और रानी को तीर्थकर पुत्रोत्पत्ति-रूप फल कहा।
चौपाई
प्रात सूर्य सुभ प्राब्द अपार । जै जै रब बहु जन उच्चार ।। तिन करि जिन-माता प्रतिबोधि । उठि मज्जन करि काया सोधि ।। लई सहचरी संग अनेक । मवानी यत हिये विवेक ।। पति के निकट जाय हरपाई । अर्धासन थिति दीनो राई ।। करि आलाप परस्पर जबै । आगम कारन पूछ्यो तबै ।। पहर एक निशि अन्त प्रमान । पोडस गुपन लाखे, सुखदान ।। तिनको फल जंपो मनधार । सुनत श्रवन हित तन-मन हार ।। अवधि-चक्ष सिद्धारथ भूप । लखि वरने फल अधिक अनूप ।।
सूर्योदय से पूर्व प्रातःकाल जब जन (बन्दीजन) जय-जयकार कर रहे थे, उसके द्वारा तीर्थकर-माता त्रिशलारानीको प्रतिबोध (दिन निकलने का ज्ञान) हुआ । व उठों और स्नानादि क्रिया द्वारा उन्होंने अपनी काय-शुद्धि की। उन्होन अपने साथ विवेकशीला और मृदुवचनी अनेक सहचरियों को लिया । वे हर्षयुक्त राजा के निकट गई । राजा ने उन्हें अर्धासन दिया । परस्पर वार्तालाप करते हुए राजा ने आने का कारण पूछा । रानी ने कहा--मने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखदायक सोलह स्वप्न देखे हैं, आप उनका फल कहिये, जिससे कर्ण--मन और शरीर को सुख का अनुभव हो । राजा सिद्धार्थ ने अवधिज्ञान रूपी चक्षुओं से रानी द्वारा देखे गये स्वप्नों का फल कहा ।
धरि गजेन्द्र दरसन से जान । होसी जगपति पुत्र प्रधान ।। महावृषभ पुनि देख्यो सोय । जग जेठो नन्दन तुम होय ।। सेत सिंह दरसन फल भास । अतुल अनंती सकति-निवास ।। कमला-मज्जन तै सुर ईस । कर न्होन कनकाचल सीस ।। पुहुपदाम दो देखीं सार । तिसफल दुविध धर्मदातार ।। ससि ते सकललोक सुखदाय । तेजपुंज सूरज ते थाय ।। मीन जुगल त सब सुख भाज। कुम्भ बिलोकन तै निधिराज ।। सरवन तें सब लच्छनवान । सागर त गम्भीर महान ।।
प्रथम स्वप्न में गजेन्द्र-दर्शन से तुम्हारे जगत् में प्रधान, जगत्पति पुत्र होगा। वृषभ के दर्शन से तुम्हारा पुत्र जगत् में बड़ा होगा । श्वेत सिंह देखने का फल है कि वह अतुल्य-अनन्त शक्ति का धारक होगा । लक्ष्मी-स्नान से उसका अभिषक सूमरु पर्वत पर होगा। दो पुष्प-मालाओं से बह द्विविध धर्मदाता होगा। चन्द्रदर्शन से सकल लोक को सुखदाता और सूर्यदर्शन से तेजपंज होगा । मीन-यगल सुखी होने का प्रतीक है और कुम्भ सर्वनिधियों के स्वामित्व को बतलाता है। सरोवर-दर्शन से तुम्हारा पुत्र सुलक्षण और सागर-दर्शन से महान् गम्भीर होगा।
सिहपीठ ते मृगलोचनी । होय बाल तुम विभुवनधनी ।। सुर-विमान देख्यो सुखपाय । सरगलोक से उपजे आय ।। नागराज-गृह को सुन हेत । जनमै मति-मुक्ति-अवधि समेत ।। रतन-रासि ते गुन-मनि-खान । कर्म-दहन पाबक तै जान ।। गज-प्रवेस जो बदन मझार । सुपन-अंत देख्यौ बर नार ।। 'वर्धमान जिन' 1 जगत प्रधान । गर्भ तुम्हारे उतरे आन" ।।
हे मगलोचनी, सिहासन तुम्हारे पुत्र को त्रिभवन-धनी होता बतलाता है। देव-विमान-दर्शन का फल है कि वह स्वर्गलोक से चलकर तुम्हारे गर्भ में आयेगा। घरणेन्द्र-भवन से मालम होता है कि वह तीन-ज्ञान-धारक (जन्म से ही) होगा। रत्न-राशि पुत्र के गुणभण्डार और अग्नि कर्म-दहन को सूचित करते हैं। स्वप्नान्त में जो तुमने मख में गज-प्रवेश देखा है, उससे तुम ऐसा जानो कि (बाल तीर्थकर) स्वर्ग से चयकर तुम्हारे गर्भ में प्रवेश कर गये।
तीन लोक मंगल सुखकर्न । सेव आर सुरासुर चनं ।। आत्मज उपजै अतिसुखकार । आत्मकाज करि शिवपद धारि ।। गुनि त्रिसला देवी सुखपाई। निजगृह गमन किये सुखदाइ ।। सुभ-मनसा मनि विबुध समेत । आए गरम कल्यानक हेत ।। थापे सिंह पीठ दम्पती । करिअभिषेक हरप सुरपती ।। वस्त्राभरन भेंट बहु देह । निज-निज थानक गमन करे ।
तीनों लोकों में मंगल और सुख का कर्ता, जिसके चरणों की देव-असुर सेवा करगे और जो आत्मकल्याण-मोक्ष को प्राप्त करेगा ऐसा तुम्हारे पुत्र-रत्न उत्पन्न होगा। ऐसा सुनकर त्रिशलादेवी सुख का अनभव करती हुई, राजा के समीप से उठकर अपने गह की ओर चली गई । तदनन्तर इन्द्र अन्य देव-परिवार सहित जिन तीर्थकर के गर्भ-कल्याणक (गोत्सव) मनाने के लिए कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ के घर आया। उन स्वर्ग-देवों ने उभय दम्पति को सिहासन पर बिठाया और इन्द्र ने अभिषेक कर अत्यन्त हर्ष को प्रकट किया। उन्होंने तीर्थकर -माता-पिता को अनेक वस्त्राभरण भेंट किये और अपने स्थान (स्वर्गलोक) को चले गये। अपने घर अत्यन्त सौभाग्यशाली जीव का आगमन जानकर राजा सिद्धार्थ और त्रिशला रानी को बहुत हर्ष हुआ। वे उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें अपने पुत्र के मुख को देखने का अवसर मिलेगा।
स्वर्ग के इन्द्र की आज्ञा से उसी दिन से ५६ कुमारिका देबियाँ त्रिशलारानी की सेवा में तत्पर हो गई-गर्भ-शोधन-क्रिया तो वे पहिले ही कर चुकी थीं। रानी की चिरनियक्त परिचारिका प्रियम्बदा भी रानी की सुख-सुविधा में पूरा योग दे रही थी। प्रियम्बदा ने रानी को किसी भी तरह का शारीरिक तथा मानसिक कष्ट नहीं होने दिया । विविध प्रकार के मनोरंजन करक' त्रिशला रानी का चित्त प्रसन्न रखा, उन्हें उल्लसित रखा।