तीर्थकर महावीर (महा)श्रमण मुनि थे, वे श्रम का गढ़ार्थ भलीभांति जानते थे। संसार बढ़ाने वाले इन्द्रिय-विषयों की ओर बढ़ने का यत्न श्रम होते हए भी आत्मदष्टि से श्रम नहीं होता । श्रम तो मोक्ष-हेतु किये गये प्रयत्नों में है-श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः । इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो स्वयं तपश्चरण करते है, वे श्रमण है। समन् शमन शब्द भी श्नमण के सम-भावी है। अतः दुःखसुख में सम रहना, समस्त जीवों को समान समझना भी इसी परिभाषा में आता है-
'जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सम्वजीवाणं । न हण न हणावेइ य राममणइ तेन सो समणों ।।
--अनुयोगद्दार सूत्र, उपक्रमाधिकार-१
श्रमण-संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति है। तीर्थकर ऋषभदेव भी इसी संस्कृति के युग-पुरुष थे। इतना ही क्यों जैन-शास्त्रों के अनुसार तो अनादि काल से होने वाले पूर्वकालीन तीर्थकर , आचार्य, उपाध्याय और साधुगण सभी इसी संस्कृति के रहे। इस तरह श्रमण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। वर्तमान में उपलब्ध साहित्य में स्थान-स्थान पर श्रमण दिगम्बर मुनियों का उल्लेख पाया जाता है। नग्न दिगम्बर ही 'श्रमण' संज्ञा में आते हैं। तीर्थंकर वर्धमान दिगम्बर मनि थे, तीर्थकर होने के कारण प्रमुखता देने के हेतु उन्हें महाश्रमण भी कहा जाता है। स्थानांगसूत्र में लिपिबद्ध गाथा दिगम्बर वेशधारी (जो अंतरंग-बहिरंग दोनों प्रकार से दिगम्बर हो) को ही श्रमण संज्ञा प्रदान करता है, क्योंकि दिगम्बर वेशधारण के बिना अन्य में ये गण असंभव है, तथाहि-
'उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगण समोझ जो होइ । भमर-मिय-धरणि-जलरह-रवि-पवण समो अ सो समणो ।।
-स्था. सू. ५
( अर्थवत्ति- सलमणो भवति इति प्रतिपदं सम्बध्यते । यः उरग समः परकृताचयनिवासात । गिरिसम: परीषहोपकम्परहित्यात । ज्वलनसमस्तेजस्तपोमयत्वात तणादिष्विव सत्रार्थेष्वतप्त त्वाच्च । सागरसमो गाम्भीर्यात-ज्ञानादिरत्नाकरत्वाच्च, स्वमर्यादानातिकमात्वादपि । नभस्तल समः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् । तरुगणसमः सुखदुःखयोरदर्शित-विकारत्वात् । समरसमोऽनियतवृत्तित्वात् । मुगसमः संसारभयोद्विग्नत्वात । धरणिसम : सर्वखेदसहिष्णुत्वात । जलरूहसम: कामभोगादभवत्वेपि पंकजलाध्यामिव तवं वृत्तेः । रविसम: धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्याविशेषण प्रकाशकत्वात् । पवनसमश्च सर्वत्राप्रतिबद्धत्वात । एवं विधो य स श्रमणो भवति ।)
--अभिधानराजेन्द्र कोष
अर्थात् जिसको वृत्ति सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, रवि और पवन के समान होती है, वे श्रमण श्रेणी में आते है। तीर्थंकर महावीर वर्षमान इसी वत्ति के अर्थात् जिस प्रकार सर्प अपने लिए घर (विल) नहीं बनाता और सर्प के निमित्त अन्य कोई भी बिल का निर्माण नहीं करता-जैसे सर्प अन्य प्राणियों मषक आदि द्वारा स्व-निमित्त निमित, अनुद्दिष्ट घर में निवास करता है, वैसे ही उन श्रमण मुनियों का भी जहाँ कही निवास हो जाता था। उन्हें उद्देश्य करके कोई व्यक्ति उपासरा, या आसरा नहीं बनवाता था और न ऐसा आसरा वे देखते ही थे; यदि उद्दिष्ट आसरे का वे उपयोग करते तो वे श्रमण श्रेणी में न आ पाते। वे जलरुह-कमलवत थे अर्थात् जैसे कमल पुष्प जल में रहते हुए भी जल का उपभोग नहीं करता वैसे वे संसार में रहते हुए भी शरीरादि के शीतोष्ण निवारणार्थ उसके द्वारा आवरण आदि का भोगोपभोग नहीं करते थे, इसीसे उन्हें वातवसना दिगम्बर व्यपदेश प्राप्त था । वे आकाशबत् निरावर ण और निरालम्ब थे। उन्हें संसारवर्द्धक अथवा कामेन्द्रिय विकारगोपन हेतु (अपनी कमजोरी छपाने के लिए) वस्त्रादि की आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि वे निर्विकार थे, उनका मन स्वयं वश में था। वे दीक्षाकाल से ही नग्न थे ऐसा विद्वानों का अभिमत है।*
'श्रमण' और 'दिगम्बर' भाववाचक शब्द है । जो दिगम्बर है, वे श्रमण है और जो श्रमण है, वे दिगम्बर है। श्रमणों को मुनि नाम से भी सम्बोधित किया जाता है । मुनि अवस्था (दिगम्बरत्व) धारण करने से पूर्व मुक्ति भी असंभव है, क्योंकि मुक्ति पूर्ण मौन (गप्ति प्राप्ति ) में होती है और पूर्ण मौन बाह्य अन्तरंग दोनों ही परिग्रह के त्याग से होता है । 'मुनि' शब्द को व्याख्या हम इस प्रकार जान सकते है-
'मौनादि स मुनिर्भबति नारण्यवासनान्मुनिः।
-महाभारत, उद्योगपर्व, ४३।३५
(मौन रखने से मुनि संज्ञा सार्थक होती है, वन में जाकर रहने मात्र से ही नहीं)
वास्तव में अन्तर-बाह्यतुल्यवृत्तिता ही स्वरूप-बोध की सत्य प्रत्यायिका है। यहाँ मौन शब्द का विशेष अभिप्राय यह है कि इन्द्रियादि व्यवहार का क्षयोपशम, उनका मुक हो जाना । जब तक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय की ओर अनुधावन करती हैं, तब तक उनमें चलित भाव रहता है, वहीं स्पन्दन है । 'जनेभ्योवाक तत्स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमः ।' यह परम्परा इन्द्रियों की अमौन अवस्था को प्रकट करने वाली है। मौन शब्द की उपयोगिता लौकिक व्यवहार -जिसमें संसार बढ़ता हो--के त्याग में है ऐसा ऋग्वेद के भाष्य में भी उल्लेख है; तथाहि—
'मौन येन मुनिभावेन लौकिक सर्व व्यवहार विसर्जनेन ।
-सायणभाष्य । १०।१३५।४
लौकिक व्यवहार जो लोक-स्थिति को बढ़ाने वाले हों उनसे मुनि को मौनसर्वथा अछता रहना होता है; और इसी हेतु वे मुनि कहलाते हैं। वास्तव में मौन एक ऐसी क्रिया है जिसमें सर्व-व्यवहार क्रिया का विसर्जन हो जाता है।
मुनिगण जैसे बचन से विरत होते हैं, वैसे ही उन्हें स्वयं मन और काय की क्रिया से भी विरत होने का प्रयत्न करना पड़ता है। आखिर, जैन शास्त्रों में गुप्तियों का जो उपदेश दिया है, वह इसी मौन का उत्कृष्ट स्वरूप है। इस रूप को धारण किये बिना कर्मास्रव नहीं रुकता --संबर नहीं होता और संवर के अभाव में निर्जरा और मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः कर्मक्षपण के लिए मुनि-मौन भाव में रहते हैं । वे मौनभाव से मुनि होते हैं और मुनि होते हैं इसलिए मौनभाव में होते हैं।
महाभारत में मुनि की स्थिति का वर्णन बड़े मामिक ढंग से किया गया है, उन्हें सभी आरंभिक क्रियाओं से विरत कहा गया है-
'एकाचरतियः पश्यनजहाति न हीयते । अनग्निरनिकेतः स्याद् भिक्षार्थ ग्राममाथ येत् ।। अश्वस्तनविधानः स्यान्मुनिर्भावसमन्वितः । लघ्वाशी नियताहारः सकृदन्न निषेविता ।। यस्मिन्बाच: प्रविणन्ति कूपे प्राप्ताः शिला इव । न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत ।'
-महाभारत, शान्तिपव, २३५।५-७
जो देखते हुए एकाकी विचरण करते हैं न किसी का त्याग करते हैं और न किसी से परित्यक्त होते हैं-अर्थात् स्वयं स्नेह अथवा बैर से रहित हैं तथा लोकतिरस्कार के पात्र भी नहीं है। जो गह-रहित हैं, अग्नि-वजित है-अग्नि प्रज्वलित कर इच्छानुसार अन्न-पाक नहीं करते एवं शीत-निवारणार्थ भी उसका उपयोग नहीं करते और भिक्षाग्रहण के लिए ग्राम में आते हैं, वे मनि हैं। जो कल के लिए संजोकर नहीं रखते, न ही उसके संचय की भावना मन में लाते है, मिताहार करते हैं, नियत समय पर तथा हित-मित मात्रा में ही आहार-ग्रहण करते हैं और एक समय ही अन्न-सेवी है, वे मनि हैं। जो अपने प्रति कहे गये कठोर दुर्वचनों, अथवा प्रशंसा-वचनों को सुनकर उनका हर्ष-विषाद नहीं करते, तथा जिस प्रकार कुए में फैका हुआ पत्थर फैकने वाले के पास लौटकर नहीं आता उसी प्रकार वक्ता की सत्-असत् वाणी का प्रत्युत्तर नहीं देते, वे मुनि ही मोक्षाश्रम के पथिक हो सकते हैं।
'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुजेषविगतस्पृहः । बीतरागभयत्रोधः स्थितधीमनिमच्यते ।।'
-गीता, २।५६
दुःखों में उद्विग्न मन न होने वाले, सुखों में स्पृही (इच्छावान् ) न होने वाले, वीतराग अथवा जिनके भय-कोष व्यतीत (समाप्त) है-ऐसी बुद्धि) वाले मुनि' कहलाते है।
गुप्ति मौन का उत्कृष्ट रूप है । मौन अथवा गुप्ति से शुभ-अशुभ सभी प्रकार के कर्मों का आस्रव रुक जाता है। मौन से एकाग्रता होती है-आत्म-जागृति होती है। शास्त्रों में ज्ञान का जो मूल्य है, उससे अधिक मूल्य गुप्तियों का है-अज्ञान का कोई मूल्य नहीं । अंग-पूर्वपाठी गप्ति-रहित ज्ञानी, संसार में भटकते रहते हैं , पर वे ही ज्ञानी जब गुप्तियों में सावधान होते हैं, मुनि होते है-सभी प्रकार से मौनभाव (गुप्ति) में आते हैं तब कोटि-कोटि के और भवों के संचित कर्मों को गप्ति-रूप चारित्र के द्वारा क्षण मात्र में क्षय कर देते है।
अज्ञानी जीव जिन कर्मों की निर्जरा अनेक कोटि वर्षों और भवों में करने में समर्थ हो जाए तो उन सहस्रों और करोड़ों वर्षों-जन्मजन्मान्तरों के कर्मों को विगप्तिधारक (चाहे वह बड़ा ज्ञानी न होकर अल्पज्ञानी ही क्यों न हो ) उच्छ्वास-मात्र काल में क्षय कर देता है, क्योंकि चारित्र के विना मुक्ति नहीं होती। मुनि शब्द भी त्रि-गुप्ति-रूप-चारित्र (मौन-सर्व पर-निवृत्ति) में ही गभित है।
मौन का बड़ा महत्व है-जिसके कारण मनि बना जाता है । व्यवहार में भी इसकी महत्ता है। बाचाल मन प्य अपनी इन्द्रियों और मन को केन्द्रित नहीं कर सकता, उसका उप योग चारों ओर बंटा रहता है। प्रकृति ने भी उपयोग स्थिर रखने म कारणभत मौन रखने में प्राणी की पर्याप्त सीमा तक सहायता की है। हिन्दी के किसी कवि ने कहा है-
बहु सुनना कम बोलना, यह ही परम विवेक । प्रकृति ने भी कर दिये, कान दोय मुख एक ।।
फिर न बोलन के पीछे एक सिद्धान्त भी तो है । जब तक पदार्थों का पूर्ण ज्ञान न हो तब तक मौन भाव भंग करना-बोलना आदि हितकर भी तो नहीं होता। अज्ञान या अल्पज्ञान में अन्यथा भी तो कहा जा सकता है। तथा जो दिखाई देत है वह अचेतन है-वह जानता नहीं, और जो जानता है वह (आत्मा) बोलता नहीं । ऐसी स्थिति में कौन किससे बातें करे ? कहा भी है-
'जं मया दिस्सदे रूप तं ण जाणादि सब्बहा । जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जपेमि केण हैं ।।
-मोक्षपाहुड, २९
जैन मान्यतानुसार तीर्थकर छद्मस्थ अवस्था में उपदेश-धर्मोपदेश अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं देते। बे कैवल्य-पद-प्राप्ति के बाद ही तद्रप देशना करते है। महावीर तीर्थकर अभी छद्मस्थ थे । मति-श्रुत-अवधि तो उन्हें जन्म से ही थे और दीक्षा के अनन्तर उन्हें मनःपर्ययज्ञान भी हो गया था, पर कैवल्य-प्राप्ति होने में विलम्ब था। वे दीक्षा के पश्चात् वारह वर्ष तक मौन अवस्था में अवाक रहे। इसीलिए उन्हें 'महामौनी' और 'आकेवलोदयान्मौनी' जैसे विशेषण दिये गये हैं। बारह वर्ष तक के इस काल में उन्होंने अनेक स्थानों में घोर तप किया।
महाश्रमण-मुनि तीर्थकर महावीर इस प्रकार के मौन-भाव एवं तपश्चरण में पर्याप्त समय विहार करते रहे, आहार-बेला के अतिरिक्त उनका सम्पूर्ण समय एकान्त स्थान-वन, पर्वत, गुफा, नदी, श्मशान, उपवन आदि में व्यतीत होता था। निर्जन स्थान ही उन्हें हितकर थे। वन के भयानक हिंसक पशु जब महावीर तीर्थकर के निकट आते तव व स्वयमव शान्त हो जाते थे। उनके निकट सिह-हरिण न्यौला-सर्प, मार्जार-मूषक जैसे जाति-विरोधी जीव भी बैर-भाव को त्याग कर प्रेम और वात्सल्य से कीड़ा करते थे । तीर्थकर तथा मुनि में ऐसे शान्त एवं सहअस्तित्व भावदर्शक परिणाम उनके आत्मस्थ होने से होते हैं। ध्यानी मुनि की शान्त-मुद्रा-दर्शन-मात्र से सुखोत्पादक होती है, उनकी चेष्टा-मात्र धर्म का उपदेश देती है।
जिस इन्द्रिय-विषय-वासना रूपी संसार में प्राणी जागृत रहते हैं-उनके सेवन की ओर दौड़ते है, उनमें मनिगण शयन करते हैं, अर्थात उनकी ओर से आँखें मद लेते हैं-विरक्त रहते है और जिस आत्म-प्रकाशरूपी दिन-ध्यानादि की ओर प्राणियों की दृष्टि नहीं होती, अर्थात् प्राणी शयन करते हैं, उसमें मनिगण जागृत (सावधान) रहते हैं।
'जा निसि सयलह देहियह जग्गिउ तहि जग्गेइ । जहि पुण जग्गइ सयल जगु सा निसि भणवि सुण्ह ।
-कृन्दकुन्द
इस प्रकार महाश्रमण महावीर कठोर साधना करते हुए देश के विभिन्न भागों के वन-प्रदेशों में साधनारत रहे। कहीं दो तो कहीं चार दिन उनका पड़ाव रहता। व निर्जन, शान्त, साधनोपयुक्त स्थान देखकर ध्यानस्थ हो जाते थे। एक बार उज्जयिनी के निकटवर्ती श्मसान में ध्यानस्थ बैठे थे, रात्रि का भयावह अन्धकार था-हाथ-कोहाथ नहीं सूझता था, कि श्मसानबासी 'स्थाण' नामक रुद्र ने तीर्थंकर की परीक्षा का उपक्रम किया। ठीक ही है-'श्रेयांसि बहुविघ्नानि ।' उत्तम कार्यों में विघ्न आते ही हैं। धीर-वीर ऐसे अवसरों पर भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होते ।। फिर दिगम्बर वेशधारी के लिए तो स्थिरता और भी अनिवार्य है। इसी स्थिरता के हेतु उन्हें परीषह-विजय का अभ्यास करना होता है।
परीषह और उपसर्ग में बड़ा अन्तर होता है । जहाँ परीषह मनि और कर्तव्यमार्ग से च्युत न होने के लिए स्वयं सहन किये जाते हैं, वहाँ उपसर्ग किसी अज्ञानी द्वारा व्रत से च्यत कराने के उद्देश्य से होते हैं। परीषह स्वेच्छा से सहन किये जाते है, उपसर्ग परकृत होते हैं। जिन-शासन में परीषहों की संख्या बाईस बतलाई है और यदि एक साथ सहन किये जाएँ तो इनमें से उन्नीस तक एक साथ सहन करने संभव हैं । दिगम्बर मनि इनके अभ्यासी होते हैं-वे उपसर्ग आने पर कर्मठता का परिचय देते हैं। तीर्थकर महावीर ने भी ऐसा ही परिचय दिया।
श्मसान के तो नामोच्चार में ही भयंकरता समायी हुई है। रात्रि के सन्नाटे में जब चारों ओर आतंक छाया हुआ था, स्थाणरूद्र ने ध्यानस्थ श्रमण महामुनि को देखकर उन्हें विचलित करना चाहा और विविध चेष्टाओं-क्रियाकलापों द्वारा अनेक बीभत्स दक्ष्य उपस्थित किये। उसने अपनी विद्या के बल से भयानक विकराल रूप बनाये और कानों के परदे फाड़ने वाले घोर अट्टहास किये, उसने अपना विकराल मख पं.लाया बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण दाढ़ों का प्रदर्शन किया, रौद्ररूप में नत्य किया, अनेक बैतालों की सेना प्रभु के समक्ष खड़ी कर दी। उसने सर्प, हाथी, सिह और अग्नि आदि के समहों को भी वहाँ ला उपस्थित किया। पाप-कर्म में दक्ष किरात-सेना का भी वहाँ निर्माण हो गया। इस प्रकार स्थाणन्द्र जो कुछ भी विघ्न कर सकता था, उसने किये; किन्तु वह वीर, महावीर, अतिवीर, सन्मति और वर्धमान नामों को सार्थक करने वाले प्रभ को विचलित न कर सका । वे मन्दार-गिरि की भाँति अडिग थे, अकम्प थे। ठीक है—
'अचल चलावे प्रलय समीर । मेर-णिखर डगमगै न धीर ।
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'1. 'महेण भाविदं गाणं दुहे जादे विणयदि । नम्हा जहा बल जोई अप्पा दुनहि भाव।।
--मोक्षपाहब, 62
(दु:खं आने पर अदुःखभावित-दुख से अपरिचित ज्ञान क्षीण हो जाता है। अतः दुःखों में भी ज्ञान को बनाये रखने के लिए मुनि को यथाशक्ति दुःखों रो आत्मा को भावित, सुपरिचित रखना चाहिये।
'पदुःय भावितं ज्ञानं क्षीयते दुःख सन्निधौ । तस्मात् यथावल दुरात्मानं भावयेन् मनिः ।।
--समाधिशतक, 102
'मापिच्यवन निर्जराष परिषोडव्या परीषहाः ।
–तत्वार्थसूत्र, 918
2. कल्पान्तकाल मस्ता चलताचलानाम् किम्मन्दराविशिवरं चलित कदाचित् ।।
-मानतुंगाचार्य।
(प्रलयकाल की वाय छोटे-छोटे पर्वतों को चलायमान कर सकती है, किन्तु सुमेरु पर्वत को हिला नहीं सकती। )
ध्यान ध्यान तभी होता है, जब चित्त की एकाग्रता में हो । चलायमान चित्त, अन्य विकल्पों में जाने के कारण एकाग्रता का लोपी है। आचार्यों ने 'एकाग्र चिन्तानिरोध' को ध्यान कहा है। इसमें मन-वचन-काय तीनों की एकरूपता अपेक्षणीय "है, अन्यथा बगुला भी सरोवर के तट पर स्थिरकाय और एकपाद खड़ा रहता है पर, उसे ध्यानी नहीं कहा जाता । वह टेढ़ा व कपटी कहलाता है, उसके मन में दुर्भावना होती है । इसीलिए कहा गया है कि ध्यानी, योगी व सन्त पुरुष को भीतर-बाहर सम होना चाहिये, मन-बचन काय में एकरूप होना चाहिये---
'मन में होय सो वचन उचरिये । वचन होय सो तन सौं करिये ।'
जहाँ योगों में एकाग्रता नहीं, वहाँ ध्यान सु-ध्यान नहीं, अपितु कु-ध्यान संज्ञा पाता है। ऐसे कुध्यानों को आर्तध्यान और रौद्रध्यान संज्ञाओं से संबोधित किया जाता है । वे दुर्गति के कारण होते हैं। आर्तध्यान के इष्ट-वियोगज, अनिष्ट-संयोगज, वेदनाजन्य, दुःखचिन्तन ये चार भेद हैं। और रौद्र ध्यान के हिसानन्दी, असत्या (मषा) नन्दी, चौर्यानन्दी, अब्रह्मानन्दी और परिग्रहानन्दी ये पाँच भेद हैं। तीर्थकर वर्धमान में इनका पूर्ण अभाव था। वे धर्म ध्यान में मेरुवत् अचल थे। अतः रुद्र के विभिन्न उपसर्ग उन पर अपना प्रभाव न जमा सके।। उक्त प्रसंग को यदि कवियों को भाषा में कहा जाए, तो निम्न उद्धरण पर्याप्त है—
छप्पय
किलकिलंत बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहि । भी कराल विकराल, भाल मदगज जिमि गजहि ।। मुंडमाल गल धरहि, लाल लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुकरहि, करहि निर्दय धुनि हन हन ।। इहि विधि अनेक दुर्भेष धरि, स्थाणरुद्र उपसग किय । तिहुंलोकबंद्य जिनचन्द्र प्रति, धूलि डाल निज सीस लिय ।।
आचार्य ने उक्त उपसर्ग का वर्णन बड़े मामिक एवं हृदयस्पर्शी रूप में इस तरह किया है-
'उज्जयिन्यामथान्येास्तच्छ्मणानेतिमुक्तके । बधमानं महासत्वं प्रतिमायोगधारिणम् ।। निरीक्ष्य स्थाणुरेतस्य दौष्ट्या यं परीक्षितुं । उत्कृत्यकृत्तिकास्तीक्ष्णा: प्रविष्ट जबराण्यलं ।। व्यात्ताननाभिभीष्माणि नृत्यन्ति विविधलयः । तर्जयन्तिस्फुरध्वानः साहासरीक्षणः ।। स्थूल वेतालरूपाणि निशिकृत्वा समन्ततः । पराण्यपि फणीन्द्रेभसिंहबन्यनिलैः समं ।। किरात संन्यरूपाणि पापैकाजन पंडितः । विद्याप्रभावसंभावितोपसर्गर्भयावहै ।। स्वयं स्खलयितुं चेतः समाधेरसमर्थकः । स महातिमहावीराख्यां कृत्वा विविधः स्तुतीः ।।
जब रुद्र थक गया तब उसने महावीर-अतिवीर की स्तुति की और अपने स्थान को चला गया । ध्यान पूर्ण कर महाश्रमण महावीर वर्धमान उठे और प्रातःकालीन सिद्ध-भक्ति से निवत्त हो आगे, चल दिये।
तपस्वी तीर्थकर वर्धमान वनों में घोर तपश्चर्या करते रहे। वे विहार करते हुए अनेक बन, ग्राम और नगरों में जाते और निकटवर्ती बनों में निश्चल ध्यान लगाते । वे आहार के हेतु नगर में भी प्रवेश करते थे । तपश्चर्या के इस काल में वे अनेक ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मटब, द्रोणमुख आदि में गये। वे एक बार वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में पहुँचे और वहाँ के निकटवर्ती वन में ध्यान धारण किया । ध्यान-निवृत्त हुए तो नगरी में प्रवेश कर आहार की मुद्रा में चले ।
नगर में एक सेठ के घर सती चन्दना तलघर में बन्दी (कंदी) की भाँति दिन व्यतीत कर रही थी। उसने सुना कि तीर्थकर वर्धमान मनि नगर में पधारे हैं।
उसके मन में भावना हुई कि मै आहार-दान द्, किन्तु वह तलघर की जेल में पड़ी थी, बेड़ियाँ उसके पाँवों में थीं। वह चिन्ता में पड़ गई, परन्तु उसके पुण्य का उदय आया और उसकी भावना फलीभूत हुई । ठीक भी है-'यादशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति नादशी संयोग से मनिराज उधर ही आ गये । चन्दना के बन्धन टूट गये और उसने शद्धिपूर्वक नवधा भक्ति से उन्हें पड़गाहा । देने को उसके पास था ही क्या ? वह तो प्रतिदिन भोजनार्थ मिलने वाले अन्न को ही शुद्ध बनाकर खाती थी। अन्न पक्व तैयार था, उसने उसो से मनिधी का सत्कार किया। नभ से रत्न-वृष्टि हुई। सारा नगर सती चन्दना की जय-जयकार से गूंज उठा। लोगों ने उसकी स्तुति (प्रशंसा) की और उस सम्मान दिया।
चन्दना थी तो चेटक राजा की पुत्री, किन्तु उद्यान में झूलते समय एक विद्याधर द्वारा उसका अपहरण हुआ था । जब उसके चंगल से छटी तब दुर्भाग्यवश उस सेठ के घर दासी के रूप में जाना पड़ा । वह नवोढ़ा सुन्दरी थी, सेठानी ने इस शंका से कि कहीं यह मरे पति की प्रेम-पान न बन जाए, उसे तलघर में रख दिया था। अभागिन चन्दना आज भाग्यशालिनी बन गई, उसने तपस्वी महावीर को आहार दिया-उसकी दासता की वडियाँ कट गई, उसका उद्धार हो गया। सेठानी चन्दना सती के परों म पड़ गई और अपने दुर्भावों की क्षमायाचना करने लगी। चन्दना बोली-'जीव को सुख दुःख देने वाला अन्य कोई नहीं। जैसे इस जीव ने पूर्वजन्म में कर्म किये है, वैसे ही फल इसे भोगने पड़ेंगे । अन्य तो उसमें निमित्त मात्र होते हैं-
'पुराकृतं कर्म यदात्मना पुनः फलं तदीयं लभते शुभाशुभम ।'
सती चन्दना की उदारता एवं प्रभाव के सामने सेठानी पानी-पानी हो गई। उसने बारंबार चन्दना को सराहा । ठीक ही कहा है-
'शीलमाहात्म्यसंभूत पृथु हेमशराविका । शाल्यन्नभाववत्कोद्रवोदना विधिवत्सुधीः ।।
-उत्तरपुराण ७४१३४६
शील के माहात्म्य से सती चन्दना का मिट्टी का पात्र (शराव) सुवर्ण का बन गया और कोद्रव के साधारण चावल शालि-तंदुल बन गये और चन्दना ने तीर्थकर को आहार दिया।
वे स्त्रियाँ धन्य है जिन्होंने शील रूपी आभषण की सुरक्षा की । चन्दना को तीर्थकर वर्द्धमान के समवसरण में गणिनी (आर्यिका) मुख्या बनने का सुयोग भी मिला । उत्तरपुराण में सती चन्दना के परिचय में जो श्लोक मिलते हैं, उनसे उक्त घटना पर पूरा प्रकाश पड़ता है कि चन्दना कौन थी और उन पर किस प्रकार उपसर्ग (कष्ट) का प्रसंग आया । यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए उसके कुछ अंश उद्धृत किये जा रहे है—
'कदाचिच्चेटकाख्यस्य नृपतेश्चन्दनाभिधां । सुतां वीक्ष्य बनक्रीडासक्तां कामशरातुरः । कृतोपायोगृहीत्वैनां कश्चिद्गच्छन्नभश्चरः पश्चात्भीत्वास्वभार्याया महाटब्यां व्यसर्जपत् ।। बनेचरपतिः कश्चित्तत्रालोक्य धनेच्छ्या । एनां वृषभदत्तस्य वाणिज्यस्य रामापयत् ।। तस्य भार्या सुभद्राख्या तया संपर्कमात्मनः । वणिक: शंकमानोऽसौ पुराणकोद्रवोदनं ।। आरनालेन संमिथं शरावे निहितं सदा । दिशतीशृंखलाबन्ध भगिनी तां व्यधाब्रुषा ।। परेर्वत्सदेशस्य कौशांबीनगरान्तरम् । कास्थित्य विशतं तं महावीर विलोक्य सा ।। प्रत्युत्नजती बिच्छिन्न शृंखलाकृत बंधना । लोलालिकुल नीलोफकेशभाराच्चलाचलात् ।। विगलन्मालतीमाला दिव्यांबर विभूषणा । नवारकापुण्येशा भक्तिभार भरानता ।। शील माहात्म्पसभूत पृथुहेम शाराविका । शाल्यन्नभाववत्कोद्रकोदना विधिवत्सुधीः ।। अन्नमश्राणयत्तस्मै तेनाप्यामचर्यपंचकं । बन्धुभिश्च समायोगः कृतश्चन्दनया तदा ।।
-उत्तरपुराण, ७४।३३८-३४७
चन्दना चेटक राजा की पुत्री थीं, ये तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान की मौसी थीं। एक बार जब ये वन में झूला झल रही थीं, इन्हें कोई कामातुर विद्याधर उठा ले गया। उस विद्याधर की स्त्री ने जब उसे देखा तो भार्या के भय से वह विद्याधर चन्दना को मागं क भयंकर वन में छोडकर भाग गया। वहीं किसी भील ने चन्दना को पकड लिया और धन के लोभ में उसे वृषभदत्त सेठ को बेच दिया । वृषभदत्त की भार्या को सेठ और चेटक की पुत्री* चन्दना के प्रति अनिष्ट संबंध की शंका हो गई जिसका परिणाम यह हुआ कि सती चन्दना को बन्दीगृह में रहना पड़ा। सती चन्दना के सतीत्व ने अन्ततः अपना प्रभाव दिखलाया। उसे तीर्थकर महावीर वर्धमान को आहार देने का सुयोग मिला और उसके शील की प्रशंसा हुई। सच है-
'हारोभारो रानापि बन्धनं नूपुराणि निगड़ानि । शीलरत्नेन यस्या युवत्या न भूषितमंगम् ।'
जिस यवती का अंग शील धर्म से विभाषित नहीं है, वह कितने ही शृंगार कर ले उसकी शोभा-महिमा नहीं होती। हार उसके लिए भार है, रशना (करधनी) बन्धन है और नपूर बेड़ियों के समान है।
वास्तव में स्त्री-जाति में शील का होना परमावश्यक है; जैसे पुरुष ब्रह्मचर्य के प्रभाव से देवों द्वारा पूज्य हो सकता है, वैसे नारी शील के प्रभाव से त्रैलोक्य वन्द्य हो सकती है । चन्दना के आदर्श शील ने उस ऊंचा उठा दिया, वह देवों द्वारा भी पुज्य हई।
आहार के पश्चात् श्रमण महामुनि महावीर वर्द्धमान वन की ओर प्रयाण कर गये । वे स्थान-स्थान पर वन-पर्वतों में ध्यानस्थ हो जाते । इस प्रकार की तपस्या से उनके कर्मों की पर्याप्त निर्जरा होती रही; परन्तु वे समस्त कर्मों से निवृत्त होने में प्रयत्नशील थे, उनके ध्यान का क्रम चलता रहा ।