।। जैनधर्म की प्राचीनता ।।

जैनधर्म और उसकी परम्पराएँ प्राचीनतम है। अनेक भारतीय विद्वान् इस तथ्य की पुष्टि कर चुके हैं। प्राचीन भारतीय वाङमय में जो सामग्री उपलब्ध है और विभिन्न उत्खननों में भूगर्भ से जो भग्नावशेष प्राप्त हुए है, वे भी इसकी परम्पराओं को बेद-पूर्व सिद्ध करते हैं। वैदिक पद्मपुराण में जैनियों के चौबीस तीर्थकरों के होने की बात कही गई है। यगप्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके वाद के तेईस तीर्थंकरों में से कतिपय तीर्थंकरों के नामों का वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों में बड़े गौरव के साथ उल्लेख हुआ है। हनुमन्नाटक में वांछित फलप्राप्ति हेतु जैनों के परमोपास्य अर्हत्-तीर्थंकरों की वन्दना की गई है। आचार्य विनोबा भावे, श्री बाचस्पति गैरोला, स्व. श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' और श्री बुद्धप्रकाश प्रभृति विद्वान् जैनधर्म को अत्यन्त प्राचीन सिद्ध कर चुके है।

महाभारत में विष्णु के सहस्रनामों में अनेक जैन तीर्थंकरों के नामों का स्मरण किया गया है। मोहन-जो-दडो से प्राप्त सामग्री के आधार पर तीर्थंकरों एवं जैनत्व के प्रभाव की भलीभांति पुष्टि हो चकी है। भाषा के आधार पर भी यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत की प्राचीन भाषा, और लिपि-ब्राह्मी श्री ऋषभदेव तीर्थंकर की पुत्री ब्राह्मी के नाम से प्रचलित रही है। अधिक क्या कहें? इस देश का प्रचलित नाम भारत श्रीऋषभदेव के पत्र भरत की देन है-इस देश का नाम उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है। उक्त कथन के संदर्भ में प्रचर प्रमाण उपलब्ध है, जिनका दिग्दर्शन कराना हर किसी के लिए सर्वथा अशक्य है, फिर भी, पाठकों की जानकारी के लिए कुछेक उद्धृत करना अत्यन्त आवश्यक है।

अस्मिन्वैभारतवर्ष जन्म वै श्रावके कुले ।
तपसायुक्तमारमानं कशोल्पाटनपूर्वकम् ।
तीर्थकराएचतुविंशत्तथा तैस्तु पुरस्कृतम् ।
छायाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमात्र प्रदेणिकम् ।।

-वैदिक पद्मपुराण; 8131389-90

'यथा ऋषभोवर्धमानपच ताबादी यस्य स ऋषभ बर्धमानादिः ।
दिगम्बराणां शास्ता सर्वज्ञ आप्तपच ।

-बौद्धजन्य, न्यापविन्दु टीका 3131

वैदिक युग में नात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैनधर्म ने ही किया। जैनधर्म के प्रवर्तक महात्माओं को तीर्थंकर कहा जाता है। ज्ञान का प्रवर्तन करने वाले वीतराग महात्मा ही तीर्थकर कहलाये । धर्मरूपी तीर्थ का निर्माण करनेवाले ज्ञानमना मनिजन ही तीर्थकर थे : 'तरति संसारमहार्णव येन निमित्तेन तत्तीर्थ मिति'।

ये तीर्थकर महात्मा संख्या में चौबीस हुए। जिनमें सर्वप्रथम ऋषभदेव और अन्तिम महावीर थे । उनका क्रम इस प्रकार है- (१) ऋषभदेव, (२) अजितनाथ, (३) संभवनाथ, (४) अभिनन्दननाथ, (५) सुमतिनाथ, (६) पद्मप्रभु, (७) सुपावनाथ, (८) चन्द्रप्रभ, (९) सुविधिनाथ (पुष्पदन्त), (१०) शीतलनाथ, (११) श्रेयांसनाथ, (१२) वासुपूज्य, (१३) विमलनाथ, (१४) अनन्तनाथ, (१५) धर्मनाथ, (१६) शान्तिनाथ, (१७) कुन्थुनाथ, (१८) अरहनाथ, (१९) मल्लि, (२०) मुनि सुव्रतनाथ, (२१) नमिनाथ, (२२) नेमिनाथ, (२३) पाश्र्वनाथ, (२४) वर्धमान महावीर। ऋग्वेद, अथर्ववेद, गोपथब्राह्मण, भागवत आदि भारतीय साहित्य के प्राचीन, मध्ययगीन ग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव के उल्लेख सर्वत्र बिखरे हुए है, जिनसे उनकी अतिप्राचीनता और उनके व्यक्तित्व की महत्ता सिद्ध होती है । इसी प्रकार दूसरे तीर्थकर भगवान अरिष्टनेमि भी वैदिक यग के महापुरुष प्रतीत होते है।

"महाभारत-कालीन तीर्थकर नेमिनाथ जैनधर्म के सम्मान्य ऐतिहासिक पुरुष रहे है। जैनधर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के नाम पर सारनाथ जस पवित्र तीर्थ की स्मति आज भी जीवित है । इन चौबीस तीर्थकर महात्माओं में अन्तिम पार्श्वनाथ और महावीर ही ऐसे हैं जिनकी ऐतिहासिक जानकारी ठीक रूप में उपलब्ध है।"

श्री वाचस्पति गैरोला इतिहास-विषय के जाने-माने विद्वान् है । उक्त प्रसंग से तीर्थकर, श्रमण-मुनि और जैनधर्म के काल से संबंधित भारतीय मान्यताएँ प्रकाश में आजाती है।

विद्वान् लेखक ने उक्त उद्धरण में जैनियों के चौबीस तीर्थकरों के नामोल्लेख-पूर्वक तीर्थकर शब्द की जो व्यत्पत्ति दी है उससे इस बात की और भी पुष्टि होती है कि तीर्थंकरों की परम्परा अनादि है। संसार में सदा ही सन्त, महात्मा, त्यागी, तपस्वी होते रहे हैं और उनके पार करने में निमित्त भत तीर्थकर प्रत्येक काल में उपस्थित रहे है। डा. श्री बद्धप्रकाश, डी. लिट् ने भी तीर्थंकरों की परम्परा को प्राचीन सिद्ध करते हए उन्हें ही विष्ण और शिव के रूप में मानने की बात कही है। उन्होंने विरुण व शिव के नामों का तीर्थकरों के नामों से मेल भी विठाया है। वे लिखते हैं-

आद्य शंकाराचार्य ने भी स्पष्ट रूप में जैन और उनके उपास्य अर्हन्तों को स्वीकार किया है और अर्हन्तों की विचार-सरणि का उल्लेख किया है। वे तीर्थकर, सम्यग्दर्शन, अहंत् और जैन शब्दों को स्वीकार करते हैं। 1

"जैनधर्म बौद्धमत की अपेक्षा कहीं प्राचीन है। बद्ध ने अपने लिए जो मार्ग चना है, वह बिल्कुल नवीन मार्ग नहीं था। वह जैन साधना में से निकला था और योग कृच्छाचार एवं तपस्या की परम्परा भी जैन साधना से ही निकली। इस प्रकार जैन साधना जहाँ एक ओर बौद्ध साधना का उद्गम है, वहीं दूसरी ओर वह शैवमार्ग का भी आदिस्रोत है।

"यह सुविदित है कि जैनधर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भगवान महावीर तो अन्तिम तीर्थकर थे। मिथिला प्रदेश के लिच्छिवी गणतंत्र से, जिसको एतिहासिकता निविवाद है, महावीर का कौटम्बिक सम्पर्क था। उन्होंने श्रमण-परम्परा को अपनी तपश्चर्या द्वारा एक नयी शक्ति प्रदान की, जिसकी पूर्णतम परम्परा का सम्मान दिगम्बर आम्नाय में पाया जाता है। भगवान महावीर से पूर्व २३ तीथंकर और हो चके थे। उनके नाम और जन्म-वत्तान्त जन-साहित्य में सुरक्षित है। उन्हीं में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर थे, जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। जैन-कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है । ऋषभनाथ के चरित्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार से आता है, और यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा होगा? भागवत में ही इस बात का उल्लेख है कि महायोगी भरत ऋषभदेव के शत-पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हों से यह देश भारतवर्ष कहलाया।"

उपलब्ध साहित्य में ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है । दिगम्बर परम्परा और उसके यगादिप्रवर्तक ऋषभ और श्रमण दिगम्बर मुनियों का उसमें स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है। इससे भी तीर्थकर-परम्परा प्राचीनतम सिद्ध होती है। प्रसिद्ध इतिहास-ज्ञाता डा. मगलदेव शास्त्री के शब्दों में:

"ऋग्वेद के एक सूक्त (१०।१३६) में मनियों का अनोखा वर्णन मिलता है। उनको वातराना-दिगम्बर, पिशंगा बसते मला -मत्तिका को धारण करते हए पिंगल वर्ण और केशी, प्रकीर्णक श इत्यादि कहा गया है। यह वर्णन श्रीमद्भागवत (पंचम स्कन्ध) में दिये हुए जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के वर्णन से अत्यन्त समानता रखता है। वहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ऋषभदेव ने बातरशना श्रमण मुनियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से अवतार लिया था।''

यद्यपि तीर्थकर महावीर के प्रादवि को आज पर्याप्त समय व्यतीत हो चका है, तथापि तीथंकर ऋषभदेव को परम्परा स्थिर रखने और इस काल में उसे प्रगतिशील व लोकोपकारी बनाने के लिए उन्होंने हमें-देश को सर्वस्व दिया है। सन्देह नहीं कि तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित (प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के अर्थात् जैनधर्म के) सिद्धान्त .सर्व विश्व का कल्याण करने में समर्थ है-देश को स्वतन्त्र सार्वभौम सत्ता की प्राप्ति होना, जैन-तीर्थंकरों की परम्परा में उत्पन्न (तीर्थकर वर्षमान महावीर द्वारा प्रतिपादित) अहिसा-धर्म का ही फल है। सभी जानते है कि महात्मा गांधी ने अहिंसा को आधार मानकर हिसक आन्दोलन का संचालन किया था। श्री टी. एन. रामचन्द्रन के शब्दों में-

"महावीर ने एक ऐसी साध-संस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण अहिंसा पर आधारित थी। उनका 'अहिंसा परमो धर्म:' का सिद्धान्त सारे संसार में २५०० वर्षों तक अग्नि की तरह व्याप्त हो गया। अन्त में इसने नव भारत के पिता महात्मा गांधीजी को अपनी ओर आकर्षित किया। यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि अहिंसा के सिद्धान्त पर ही महात्मा गांधी ने नवीन भारत का निर्माण किया " ।

भारत के महान् सन्तों, जैसे जैनधर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव एवं भगवान महावीर के उपदेशों को हमें पढ़ना चाहिये । आज उन्हें अपने जीवन में उतारने का सबसे ठीक समय आ पहुंचा है; क्योंकि जैनधर्म का तत्त्वज्ञान अनेकान्त (सापेक्ष पद्धति) पर आधारित है और जैनधर्म का आचार अहिंसा पर प्रतिष्ठित है। जैनधर्म कोई पारम्परिक विचारों, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओं पर अन्धश्रद्धा रखकर चलने बाला धर्म नहीं है, वह मुलतः एक विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है। उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। क्योंकि जैनधर्म का भौतिकी विज्ञान और आत्मविद्या का क्रमिक अन्वेषण आधनिक विज्ञान के सिद्धान्तों से समानता रखता है।

जैनधर्म ने विज्ञान के सभी प्रमख सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन किया है। जेसे: पदार्थ-विद्या, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान, और काल, गति, स्थिति, आकाश एवं तत्त्वानसन्धान । श्री जगदीशचन्द्र वसु ने बनस्पति में जीवन के अस्तित्व को सिद्ध कर जैनधर्म के पवित्र धर्मशास्त्र भगवतीसूत्र के वनस्पतिकायिक जीवों के चेतनत्व को प्रमाणित किया है। "

इस प्रकार तीर्थकरों की परम्परा और उनकी दिव्य देशनाओं के प्राचीनमौलिक एवं विश्वजीवोपयोगी होने के अनेक प्रमाण उपलब्ध है। इनम से कतिपय का दिग्दर्शन पर कराया गया है। अतः यह भ्रान्ति दूर कर लेनी चाहिये कि 'जैनधर्म वर्धमान महावीर से प्रारंभ है, या बौद्ध और हिन्दूधर्म की शाखा मात्र है। तीर्थकर वर्धमान महावीर ने जैनधर्म का मार्ग दर्शाया अवश्य, पर वह मार्ग नवीन नहीं, अपितू इस यग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव प्रभृति पार्श्वनाथ तीर्थकर-पर्यन्त सभी द्वारा प्रदर्शित प्राचीनतम धर्म है। जैनियों के चौबीस तीर्थकरों की जो परम्परा विद्यमान है, इस प्रकार इस काल में तीर्थंकरों का धर्म तीर्थकर महावीर तक निर्बाध प्रवाहित होता रहा है। तीर्थंकर महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे।