।। मोक्ष : अव्यबाध सुख ।।

'मुक्ति' और 'मोक्ष' शब्द धर्म-साहित्य के पारिभाषिक शब्द है। ये शब्द धर्म-शास्त्रों से ही प्रसिद्धि में आये है। कई दर्शनों में यद्यपि इनके अन्य पर्यायवाची शब्द “निर्वाण' आदि का भी उल्लेख है और कई दर्शनकारों ने इसे 'वैकुण्ठ धाम' के नाम से भी संबोधित किया है, तथापि वे इसके मख्यार्थ तक पहुँचने में असमर्थ रहे है। मक्ति के स्वरूप में उन्हें भ्रम भी रहा है। जैसे-जैसे हम विभिन्न दर्शनकारों के अभिमतों पर विचार करते है, उनमें तीखा अन्तविरोध दिखायी देता है। मोक्ष के निर्दोष स्वरूप के संबध में यहाँ आचार्य पूज्यपाद के अभिमत का संक्षेप में उल्लेख किया जाता है। मोक्ष के स्वरूप के विषय में उनका कथन है कि-

'निरवशेषनिराकृतकर्म-मन-कलंकस्याशरीरस्यात्मनो
चिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधमुखमास्यन्तिकभवस्थान्तरं मोक्ष ।'

-सर्वार्थसिद्धिः।

जब आत्मा कर्ममल-कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है, तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अब्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।

अन्य दर्शन : परस्पर-विरोध

आचार्य की दृष्टि से मोक्ष का यह स्वरूप है, परन्तु मोक्ष के अत्यन्त परोक्ष होने से बहुत से लोग इसकी अनेक प्रकार कल्पनाएँ करते हैं, जैसे सांख्य, पुरु ष का स्वरूप चैतन्य मानते हैं, परन्तु वे उस चैतन्य को ज्ञेय के ज्ञान से रहित मानते हैं, जो शून्य-ज्ञानत्व अथवा असर्वज्ञत्व की पुष्टि मात्र है और निराकार होने से उनका अस्तित्वमात्र, नास्तित्व का परिचायक है।' वैशेषिक पुरुष की गुण-रहित अवस्था, अर्थात् बुद्धि (ज्ञान) आदि के उच्छेद हो जाने को मोक्ष मानते हैं, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि असाधारण लक्षण से द्रव्य का कभी उच्छेद मानना वस्तु की सत्ता का सर्वथा लोप करना है। ऐसे ही क्षणिक वादी बौद्धमतावलम्बी जीव का सर्वथा नाश होना मोक्ष मानते हैं, जो असत् को सत् अथवा सत् को असत् मानने जैसा है।

मोक्ष यानि छुटकारा , सत्ता-लोप नहीं

मोक्ष या मुक्ति का अर्थ छटना है, नाट होना या सत्ता-लोप नहीं है । निर्वाण का भाव भी ऐसा ही है। आजकल तो निर्वाण का अर्थ साधारण पुरुष की मृत्यु होने से भी लिया जाने लगा है, जो सर्वथा अनुचित है। वास्तव में भारत के प्राचीन दर्शनों में दो विरुद्ध कोटि के पदार्थों को स्वीकार किया है : (१) चेतन (२) अचेतन । चेतन का रूपान्तर से प्रभावित रहना 'संसार' और विभाव से छटकारा 'मोक्ष' है । ऐसा मानने से सत् और असत् , चेतन और अचेतन दोनों के स्वभाव या सत्ता का व्याघात नहीं होता। गीता में भी इसी अस्तित्वाभाव और नास्त्यनुत्पाद के सिद्धान्त की पुष्टि की गई है ।। और जैन-दर्शन ने इसे आद्यन्त निर्दोष रखा है, कहा भी है-

'बन्धहत्वभावनिर्जराभ्यां कत्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।

-तत्त्वार्थसूत्र, १०।२

बन्ध के कारणों का अभाव और पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होने से इस जीव का समस्त कर्मा से छटकारा हो जाना मोक्ष है।

जिस प्रकार अनादि से खदान में पड़ा सुवर्ण मिट्टी आदि के कारण अपनी शुद्ध पर्याय को नहीं पाता और अग्नि आदि के संस्कारों से उसका शुद्ध रूप निखार को प्राप्त होता है, उसी प्रकार आत्मा भी कर्ममल के दूर होने पर शुद्ध ज्ञानादि अवस्थाओं में प्रकट हो जाता है । आत्मा की ऐसी अवस्था को उसका 'मोक्ष' कहा जाता है। 'मोक्ष' या 'मुक्ति' का अर्थ छ टना है। निर्वाण का भाव हमें पूर्ण अभाव में न लेकर लोकभाषा में 'कर्मरूपी बाणों से रहित' अर्थ में लेना चाहिये, अर्थात् 'निर्गताः वाणाः यस्मात् तत् ।' जिस प्रकार बाण शरीर को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा को पीड़ा देने के कारण वाण ही हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से तो निर्वाण का अर्थ मक्तमुक्ति-मोक्ष, संसार-परिमण से विराम और शद्ध अवस्था में अवस्थान ही है-अस्तित्व का लोप नहीं। इस स्थिति में पहुंचने के बाद किसी का संसार में आना नहीं होता।

प्रक्रिया : मोक्षोपलब्धि की

जैन दर्शनकारों ने सात तत्त्व माने हैं : (१) जीव, (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बन्ध, (५) संवर, (६) निर्जरा, (७) मोक्ष । वे मानते है कि जीव से अजीब का अनादि सम्बन्ध है और इस संबंध में प्राराम्भ के छह तत्वों का घटन निरन्तर होता रहता है। जिस काल जीव का इस घटन से छटकारा हो जाता है, यह अपने शुद्धपरमशद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है और इसे जीव की मोक्ष या मुक्त अवस्था कहते हैं। उक्त प्रक्रिया को दृष्टान्त के द्वारा इस प्रकार जाना जा सकता है । मान लीजिये, एक नदी में नाव पड़ी है और उस नाव में एक छिद्र है, उस छिद्र से नाव में पानी प्रविष्ट होता है और नाव में इकट्ठा होता रहता है। मल्लाह इस पानी को निकालता भी जाता है, पर छिन्द्र के बन्द न होने से नाव में पानी का आना सर्वथा रुद्ध नहीं होता । इसका फल यह होता है कि नाव अपनी पूर्व अवस्था में ही रहती है-जितना पानी उसमें से निकलता है, उतना पानी उस में और आ जाता है। जब नाविक छिद्र को बन्द कर देता है और पूर्व-संचित पानी को निकालता है तब नाव का सारा पानी निकल जाता है और नाव पूरी तरह जल के ऊपर आ जाती है। उसे आगत और अनागत जल से सर्वकाल के लिए मुक्ति मिल जाती है।

ऊर्ध्वग, स्वभावत:

ठीक इसी प्रकार जीव अनादि काल से परम्परागत चले आये मोह-रागद्वेषादि के कारण नवीन कर्मों को संचित करता है और यथासमय उन्हें दूर भी करता रहता है। आस्रव, बन्ध और निर्जरा की ये क्रियाएँ निरन्तर चलती रहती हैं । इसी क्रिया में जीव का संसार-भ्रमण होता रहता है, परन्तु जब वह मोह को कृश करते हुए ज्ञान के बल से चारित्ररूपी खड़ग से इन कर्मों का सर्वथा क्षय करने में समर्थ होता है, तब इसे मुक्ति मिल जाती है। और यह जीव स्वभावतः ऊवं गमन करता है, अर्थात् कमीभाव के अन्तिम समय में यह स्वाभाविक अवस्था में पहुँच जाता है, क्योंकि जिन कर्मों के कारण यह संसार में भ्रमण करता है, उनके संस्कार इसके ऊपर जाने में पूर्व प्रयोगापेक्षया कारणभूत होते हैं। जैसे कुम्हार (कुम्भकार) चाक को दण्ड के प्रयोग द्वारा घुमाता हैं और दण्ड हटा लेने के बाद भी चाक घूमने की (गमन-क्रिया) क्रिया जारी रखता है, वैसे जीव भी पूर्व संस्कार-बश समयावधि मात्र गमन करता है। परन्तु इसका गमन ऊर्ध्व दिशा में ही होता है, क्योंकि इसको मल से छुटकारा मिल जाता है और वह हल्का (मात्र स्व-स्वभावरूप) हो जाता है। जैसे मिट्टी से लिपटी हुई तूंबी जल में डालने से जल-तल में रहती है और मिट्टी का लेप निःशेष होने पर ऊपर को ही गमन करती है, या एरण्ड का बीज पकने पर ऊपर के आवरण के चटकने पर जैसे स्वभाव से ऊपर जाता है, वैसे ही यह जीव कर्म रूपी आवरण के हटने पर स्वभावतः ऊर्ध्व गमन करता है । अथवा जैसे अग्नि स्वभाव से ऊर्ध्व दिशा में अपनी शिखा को धारण करती है--कभी दिशान्तर में नहीं जाती। यदि जाती है तो वह अल्पकाल जबकि वायु आदि अन्य विभाव

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* बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ।

--तत्वार्थसून 1011

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उसे प्रभावित करें। बाह्य कारणों के बिना तो उसका स्वभाव ऊपर ही जाना है।' इस जीव का गमन लोकान्त भाग तक होता है, आगे गति का अभाव है । "

इस प्रकार के मुक्तात्मा अपनी परम विशुद्धि के कारण सर्वदा, सदाकाल मुक्त अवस्था में ही परमशद्ध, निरंजन, निविकार रूप में रहते हैं और उनके कर्मराहित्य होने से समस्त गुण-प्रकाशमान रहते हैं। कहा भी है-

'अट्ठविह-कम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा।
अछगुणाकिदकिच्चा लोयगणिवासिणो सिद्धाः ।।

-गोमट्टसार (जीवकाण्ड)

(ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय से रहित, शान्तरूप निरंजन-निविकार, नित्य और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसूख, अनन्तवीर्य, सम्यक्त्व, अगरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व गुण सहित, तथा कृतकृत्य, लोकानबासी सिद्ध होते हैं।)

परिनिर्वाण : पाँच लघु-अक्षर-काल

तीर्थकर बर्द्धमान-महावीर ने (जब वे अपनी देशना से निवृत्त हुए और चार अघातिया कर्मों को निःशेष करने में तत्पर हुए) शुक्लध्यान द्वारा पाँच लघुअक्षर प्रमाणकाल में नश्वर-औदारिक शरीर से मुक्ति-सदा-सदाकाल के लिए छटकारा पाया। उनका परमौदारिक शरीर कपूर की भाँति जुड़ गया । शरीर का जो भाग-नखकेश शेष रहा, उसका संस्कार इन्द्रादि देवों ने किया । इन्द्र के मकुटमणि से निकली अग्नि ने अगर-कपूर, चन्दनादि रचित चिता को क्षण-भर में भस्म कर दिया। यह दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्या का था जबकि तीर्थकर वर्द्धमान महावीर पावानगर के विविध द्रुममण्डित रम्य उद्यान में कायोत्सर्ग स्थित हए और उन्होंने स्वाति नक्षत्र में अजर-अमर मोक्ष-पद उपलब्ध किया। दिव्य देशना के पश्चात् तीर्थकर को केवल दो दिन योगनिरोध करना पड़ा और वे कायोत्सर्ग मद्रा में स्थिर रहे। कहा भी है-

'उसहो चौद्दस-दिबसे दुदिणं वीरेसरस्स सेसाणं ।
मासेण या विणियित्ते जोगादो मुत्ति-संपण्णो ।।
उसहो या बासुपज्जो मी पल्लंक वद्भया सिद्धा ।
काउस्सग्गेण जिणा सेसा मत्ति समावण्णा ।।

-तिलोयपण्णत्ति, ४।१२०९-१२१०

(आदि तीर्थकर वृषभदेव १४ दिन, वीर-बर्द्धमान २ दिन, और शेष तीर्थकर एक मास के अन्तिम योग द्वारा मुक्ति को प्राप्त हुए । तीर्थंकर ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ पर्यकासन में और शेष जिन-तीर्थकर कार्योत्सर्ग खङ्गासन से मुक्ति को प्राप्त हुए।

जन्म : दो सुमंगलों का

तीर्थकर को जिस दिन निर्वाण-पद प्राप्त हुआ उस दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान का लाभ हुआ। इस प्रकार दो ज्योतियों के प्रकाशित होने के समाचार नगरदेश में विद्युत् की भांति फैल गये । लोगों के हर्ष का पाराबार न रहा । वे झुण्ड-केझुण्ड दौड़ चले उस ओर, जहाँ दो सुमंगलों ने जन्म लिया-एक वीर निर्वाण और दूसरा गणधर को केवलज्ञान । उन्होंने एकत्रित होकर आत्म-ज्योति और केवलज्ञानज्योति प्रकाशित होने की स्मृति-स्वरूप लौकिक प्रकाशपुंज दीपावली* मनाने का आयोजन किया । जो लोग इस पुण्योत्सव में सम्मिलित होने से बच गये वे घर-घर, डगरडगर दीपावली मनाकर अपने भाग्य को सराहते रहे। यह प्रथा आज भी दीपावली के रूप में भारत में सर्वत्र प्रचलित है ।

समवसरण की मधुस्मृति

दीपावली पर्व आज समस्त भारतवर्ष में मनाया जाता है और इस दिन को बड़ा भाग्यशाली माना जाता है । लोगों में लक्ष्मीपूजन का महत्त्व माना जाता है और इस दिन से पूर्ववर्ती त्रयोदशी को भी 'धनतेरस' नाम से पुकारा जाता है। लोग घरों को तरह-तरह के शोभा-दृश्यों और खिलौनों से सजाते और अमावस्या के दिन लक्ष्मी पूजन करते हैं। वास्तव में जैन मान्यतानुसार धनतेरस वह पवित्र दिन है जिस दिन तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान ने मोक्षरूपी धन याने ध्यान पकड़ा, उन्होंने योग-निरोध किया । लोक परिणटी में इसे सांसारिक धन का रूपक बनाकर इसकी स्मृति स्थायी रखने के लिए लौकिक धन बर्तन, रुपया-पैसा आदि के संग्रह व नवीनीकरण से जोड़ लिया गया। तीर्थकर और गौतम गणघर के केवलज्ञान रूपी प्रकाश के प्रतीक दीपक प्रज्वलित होते हैं। आज मिट्टी के विविध खिलौने हाथी-घोड़ा आदि तिर्यंच पशपक्षियों एवं मानव-जाति-संबंधी खिलौनों की घरों में सजाने और उनके बीच चारों और दीपक प्रज्वलित करने की प्रथा जिन-तीर्थंकर के (दिव्यज्ञान-ज्योति-पूर्ण) समवसरण की मधर स्मति है-समवसरण कद्वार सभी जीवों के लिए समान रूप से खुले हुए थे । जैसे तीर्थकर ने सर्व साधारण में ज्ञान-ज्योति विखरायीं उनकी दिव्यदेशना से लाख-लाख ज्ञान-नेत्र खुले, वैसे आज भी विश्व को ज्ञान-ज्योति की आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के बिना कल्याण नहीं होता। यही कारण है कि प्रवचन के अभ्यास, मनन और चिन्तन को शास्त्रों में मुख्य बतलाया गया है । कहा भी है—

'पवयणसारख्भासं परमप्पाझाणकारणं जाण ।
कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मरखवणे हि मोवखसौक्वं हि ।।

-रयणसार-११

'णाणब्भासविहीणो सपरं तच्च ण जाणए कि पि ।
माणं तस्स ण होड दुताव ण कम्म खइ ण मोक्खो ।।

-रयणसार-१४

'अज्झयणमेव जाणं पंचेदियणिग्गहं कसायं पि ।
तत्तो पंचमकाले पवयणसारख्भासमेव कज्जा हो ।।

न बीज, न वृक्ष

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मुक्त जीव अपने स्वाभाविक शाश्वत सुख में अनन्तकाल विराजमान रहते हैं और जन्मादि परिम्नमण के कारणभत कर्मों के सर्वथा अभाव होने से उनका मुक्ति से पुनरागमन नहीं होता। कहा भी है-'कारणाऽभावे कार्याऽभावः ।' जब कारण नहीं होते, तब कार्य भी नहीं होता--'बीजाभावे तरोरिख ।' जैसे बीज के अभाव में वृक्ष नहीं पैदा हो सकता। तीर्थकर वर्द्धमान महावीर भी उस अनन्त सुख में सदा-सदा के लिए विराजमान हो गये ।

लोक: अन्तहीन

कई लोगों को ऐसा भ्रम हो जाता है कि यदि संसार के जीव मक्ति को प्राप्त करते रहें और वहाँ से वापिस न आवे तो किसी समय संसार ही खाली हो जाएगा; इसलिए व मुक्ति से पुनरावृत्ति मानते हैं, परन्तु व काय-कारण भाव पर दष्टि नहीं देते। उन्हें सोचना चाहिये कि क्या कभी तुष-हीन शुद्ध चावल बोये जाने पर अंकुर दे सकते हैं? जैसे तष धान्य के उत्पादन में कारण है वैसे ही संसार परिभ्रमण में कर्म कारण हैं । जब कमों का सर्वथा अभाव हो जाता है तब जन्म-मरण रूप संसार भी शुद्धात्मा के नहीं रहता। रही बात--लोक (संसार) के खाली होने की। सो शास्त्रों में कहा है-'अनन्ता वै लोकः ।' लोक अनन्त है। अनन्त का स्पष्ट अर्थ है'न विद्यते अन्तो यस्य तत्' जिसका अन्त न हो । लोक में जैसे, समय है। यह अनन्त बीत चुका है, बीत रहा है और बीतता ही रहेगा, पर इसका कभी अन्त नहीं हो सकेगा जंस शन्य म से शन्य या दशमलब में से दशमलब निकालने पर शन्य और दशमलव शेष रहा है, वैसे ही अनन्त में से अनन्त जाने पर भी अनन्त ही शेष रहते हैं, अतः संसार की समाप्ति का प्रश्न ही नहीं रहता।

निर्वाण-भूमि 'पावा'

तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर की निर्वाण-भूमि 'पावा' मल्लदेश स्थित है। इनके निर्वाण के समय हस्तिपाल राजा व लिच्छिवी, बज्जी, काशी कौशल आदि १८ गणराज्यों की उपस्थिति थी। वे पुरुष धन्य हैं जिन्होंने पुण्य-पुरुष के निर्वाण दर्शन किये। उनसे स्पशित भूमि ही पवित्र है। काश, हम उस भूमि पर सही तरीके से पहुंचकर, सही भावों में आने का प्रयत्न कर सके तो हमारा पूर्ण कल्याण हो सकता है:

'श्रासादिदोषाज्झितमुद्धजाति, गुणान्वितं मौलिमणि यथैव ।
वृत्तात्मक भावलयाभिरामं कुत्तत्रियं मूनि दधाभि वीरम् ।।