।। देशना-रेखा ।।

'णमो सिद्धाण' यह पद जैन-दर्शन का चरम लक्ष्य है और सिद्धत्व की साधना में धर्म की शरण ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। "सिद्ध का तात्पर्य कृतकृत्य और सर्वकर्मविप्रमोक्ष के उस भाव में है जो साध और अरहन्त के पदों के पश्चात होता है। अरहन्त, सिद्ध, और साधु ये मंगलोत्तम और शरणभूत हैं। तीर्थकर ने इसी परम्परा को स्थिर रखने और आगे बढ़ाने में योग दिया है । तीर्थकर महावीर की देशना को उनके प्रमुख गणधर गौतम स्वामी ने इस प्रकार शब्दबद्ध किया कि उसमें जीव की अनादिकालीन मलिनता से लेकर उसके शुद्ध-सिद्ध होने की समस्त पर्यायों-गतिविधियों का समावेश हो गया। उन्होंने कहा-'यह संसार अनादि है, इसमें षड्व्यों के निवास का स्थान 'लोक' कहलाता है । जीव राग-द्वेष-मोह को कारण इस लोक में चारों गतियों में परिभ्रमण करता, जन्म-मरण करता है। इससे छुटकारा पाने के लिए उसे प्रतिक्षण 'पंच णमोकार मंत्र' एवं 'मंगलोत्तमशरण पाठ का मनन-चिन्तन और तदनुरूप आचरण करना चाहिये । वे कहते है—

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2.निरवशेषनिराकुतकर्ममलकालकस्साशरीरस्यात्मनोचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमभ्याबाधसुखमात्यतिकमवस्थान्तरं मोक्षं:।

--पूज्यपाद स्वामी

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"अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और लोक के सर्वसाधुओं को नमस्कार हो । लोक में अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली-कथित धर्म ये चार मंगल है। अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली कथित धर्म ये चारों, लोक में उत्तम है। मैं अरहंत, सिद्ध, साध और केवली-कथित धर्म की शरण जाता हूँ-शरण को प्राप्त होता है।।

(उक्त मंत्र एवं पाठ जैनों के सभी समुदायों में समानरूप से हिमालय से कन्याकुमारी तक और अन्यत्र भी एक जैसे ही पाये जाते हैं । अतः इन सभी सम्प्रदायों में मलभत तत्त्व समान-एक ही हैं। काल-दोष से कालान्तर में विभिन्न पंथ बन गये । यथाजातमद्रा प्रकृति को भी स्वीकार है; अतः मोक्षमार्ग में बही आदरणीय है।

साध-संस्था मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है-इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की आभा प्रतिफलित है और इसी आभा के बल पर साधजन, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत और सिद्ध जैसे उत्कृष्ट पदों को पा सकते हैं। साधु-पद की भूमिका में श्रावकाचार की पूर्णता है। अर्थात् श्रावकाचार (मुनि होने के लिए) अभ्यास-मार्ग है, अतः मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह श्रावक बने और धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए, क्रमशः सिद्ध पद तक पहुंचे। ऊपर जिन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और सम्यक्चारित्र का उल्लेख किया, उनका संक्षेप इस प्रकार है-'क्योंकि ये तीनों रत्न कहलाते हैं और श्रावक तथा मनि दोनों में मलरूप से कार्य करते हैं, अत: इन्हें जान लेना भी आवश्यक है। सुप्रय क्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता से संयक्त आत्मा को मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है।

सम्यग्दर्शन : जीव आदि तत्त्वों-पदार्थों का श्रद्धान निश्चय ही सम्यग्दर्शन है और वह स्वभाव तथा पर-निमित्तों से-दो प्रकार से होता है। कहा भी है-तनिसर्गादधिगमाद्वा "तत्त्वार्थसूत्र १३तत्व का अर्थ है-तस्यभावस्तत्त्वं । यः पदार्थ यथावस्थित: तस्य तथैव भवनं । सवार्थसिद्धिः । जो पदार्थ स्वाभाविक जिस रूप में है उस पदार्थ का विकार-रहित-अपने स्वरूप मात्र में होना पदार्थ का अपना-तत्व निजभाब है। उसमें पर-कृत-व्याधि, अर्थात मलिनता का समावेश नहीं । उक्त प्रकार से सभी पदार्थ स्व-रूप में निश्चित है। इन पदार्थों में दढ प्रतीति रखना, श्रद्धान में अकम्प रहना सम्यग्दर्शन है।

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1. पामो अरहनाणं णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं ।
णमा उवण्शायाणं णमो लोए सब्यसाहूण ।।
बत्तारि मंगल, घरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, माह मंगल, केवलीपगणतो धम्मो मंगल । चत्तारि लागुत्तमा ।
अरहता लीगृत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमो, माहू लोगुत्तमो, केवलि पाणात्ती धम्मो सोगतमा । चत्तारि सरणं पकज्जामि ।
परहंते मगरणं पवजानि, सिद्ध सरणं पवज्जामि, सार मरण पबज्जामि केलि पणाल धम्म मरण पावज्जामि ।

2. 'सुप्रमुवतैः स्वयं साक्षात् सम्पगलोधसंयमैः ।
विभिरेवापवर्गधी पनालेयं प्रयति ।। 1।।

3. 'यजीवादि पदार्थानां श्रद्धानं तजि वर्शनम् । निसर्गणाधिगप्पाषा तभव्यस्यैव जायते ।।2।।

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सात तत्त्व : विद्वानों ने जीव, अजीध, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को तत्त्व कहा है ।। यदि इनमें पुण्य-पाप भी जोड़ लिये जाएँ तो ये ही नौ पदार्थ नाम पाते हैं । विश्व (तीनों लोकों ) में इनके अतिरक्त अन्य कुछ शेष नहीं है-इन्हीं में विश्ववर्ती पदार्थों का समावेश हो जाता है।

जीवतत्व : जीव का लक्षण उपयोग-ज्ञान-दर्शन है और ये दोनों अनन्तात्मक हैं। कहा भी है-'उपयोगो लक्षणम्" स द्विविधोऽप्टचतुर्भेदः । -तत्वार्थ-सूत्र । उपयोग का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि-'चैतन्यानुविधायी परिणामः उपयोगः।' –सर्वार्थ, । जीव का चैतन्यान विधायी परिणाम उपयोग है । यह उपयोग जीव-जाति-मात्र में सदा काल पाया जाता है और जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता। मुक्त जीव सदाकाल एकरूप-निज उत्पाद्-ध्रौव्यरूप स्वभाव में है और संसारी जीव चतुर्गति रूप बाह्य पर्यायों में भ्रमण करते हुए स्व-पर दोनों विवक्षाओं से उत्पाद्व्यय-घोव्यरूप चैतन्य परिणामयुक्त है। अर्थात् मुक्त (शुद्ध) जीव दर्शन, ज्ञान, आनन्द, शक्तिपूर्ण, जन्म-मृत्यु आदि से होने वाले क्लेशों से रहित (सिद्ध है। इन्हें परमात्मा भी कहते हैं। और संसारी जीव गति के भेद से मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारक इन चार भेदों में विभक्त हैं, जो कर्मों के अनुसार जन्म-मरण को धारण करते हैं। स्थल रीति से हम सात तत्वों और नौ पदार्थों को पद्व्यों में गभित कर सकते है और षड्द्रव्य जीव-अजीव के अन्तर्भूत कहलाते हैं। योगीश्वरों ने जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये छह द्रव्य बतलाये हैं। जीव के अतिरिक्त पाँच द्रव्य अचेतन हैं, पुद्गल को छोड़ पाँच द्रव्य अमतिक है, तथा सभी पदार्थ वस्तुतः उत्पाद्-व्यय-धोव्य स्वभाव वाले हैं ।

अजीव तत्त्व : अजीव तत्त्व में पुद्गल रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला है। रूपी है और अणु व स्कन्ध ऐसे दो भेदों वाला है। धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों को गमन

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1. जीवाजीवासवाबन्धः सबरी निर्जरा तथा ।
मोक्षाचतानि सप्तैय तत्त्वान्यचमनीषिणः ।। 3 ।।

2. "सिखस्त्वेकस्वभावः स्यादरबोधानंदशक्तिमान् ।
मुत्यूत्पादादिजन्मोत्यक्ने णाचविच्युतः ।।4।।

3. 'चतुर्धाति भेदेन भिचन्ते प्रागिनः परम् ।
मनुष्यामरतिर्यंचो नारकापच यथायथम् ।।5।।

4. धर्माश्यमनभ कालाः पुद्गलैः सहयोगिभिः ।
अन्याणि षट् प्रणीतानि जीवपूर्वाण्यनुक्रमात् ।।6।।

5. 'अचिपा विनाजीवममूर्ती पुद्गल बिना।
पदार्था वस्तुतः सर्वे स्थित्युत्पत्तिम्पमारमकाः ।।7।।

6. 'अणुस्कन्धविभेदेन भिन्नाः स्युः पुद्गला दिया।
मूविणरसस्पर्शगणोपेताश्च रूपिणः ।।8।।

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में तथा अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहकारी है और लोक-मात्र में व्यापक हैं। आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यजाति मात्र को स्थान देता है और लोक-अलोक सर्वत्र व्याप्त है तथा स्वप्रतिष्ठित है। काल द्रव्य पदार्थों के पर्याय-परिणमन में कारणभूत है।2

आस्रव तत्व : मन-वचन-काय की क्रिया योग कहलाती है और तत्त्वज्ञानियों ने उसी त्रिया को आस्रव कहा है । 'कायवाङमनः कर्मयोगः' 'स आस्रवः'। –तत्त्वार्थसूत्र । इस आस्रव के द्रव्यास्रव, भावास्तव ये दो प्रकार हैं। दोनों प्रकार के आस्रवों की निवृत्ति के लिए गुप्ति का विधान किया गया है –'सम्यग्योगनिग्न हो गुप्तिः । -तत्त्वार्थसूत्र ९।४

बन्ध तत्त्व : योगों के होते हुए जीव यदि कषाय-युक्त होता है तो वह सब ओर से कर्म के होने से योग्य पुद्गल (कार्माण) वर्गणाओं को ग्रहण करता है और उनके बन्ध को करता है। इसी को जिनेन्द्रदेव ने बन्ध कहा है । बन्ध के प्रकृतिबन्ध , स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध ये चार भेद हैं। ---प्रकृतिस्थित्यनभागप्रदेशास्तद्विधयः ।' -तत्त्वार्थ सूत्र । ८२

संबर तत्व : अनादिकाल से कम-बन्धन में जकड़े हुए संसारी जीव में पूर्वकर्मप्रकृतियों-राग-द्वेषादिक को निमित्त बनाकर जो कर्म--पुण्य-पाप (शुभ-अशुभ) रूप में आते हैं उनका रुकना अर्थात् सम्पूर्ण आस्रव का रुक जाना संवर है । यह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है ।' संवर किये बिना निर्जरा निष्फल है, अर्थात् मोक्ष नहीं है, अतः मुमुक्षु को संवर पर लक्ष्य देना चाहिये ।

निर्जरा तत्व : संवरपूर्वक पूर्व संचित कर्मों का तप-धर्म आदि द्वारा जीर्ण करना निर्जरा है । निर्जरा सविपाक और अविपाक दो प्रकार की है। सविपाक में कर्मफल देने के बाद झड़ते हैं और अविपाक में बिना फल दिये झड़ जाते हैं। जिस निर्जरा से जीव के जन्म-मरण रूपी संमार के कारणभूत कर्म झड़ जाते हैं, मुनिजनों ने उस निर्जरा को कार्यकारी (वास्तविक हितकारी) 'निर्जरा' कहा है ।" 6

मोक्ष तत्व : योगी मनियों ने मोक्ष को जन्म-सन्तति से उलटा निष्कलंक , निराबाध, सानन्द और स्व-स्वभाव से उत्पन्न होने वाला कहा है। तीर्थंकर की दिव्य देशना का चरम लक्ष्य भी भव-व्याधि से छुटकारा दिलाना है। मोक्ष के प्रसंग में मत-मतान्तर मुल मार्ग से भटक गये है, उन सब का निराकरण करने के लिए आचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सिद्ध-दशा मोक्ष का और मोक्ष-दशा सिद्धत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं-दोनों में अभेद-अभिन्नता है, अतः भव्यजीव का प्रयत्न मोक्ष-प्राप्ति में होना चाहिये। उक्त प्रकार सप्त तत्त्वों का श्रद्धान शंकादि २५ दोषों से रहित और अण्टगुण सहित करना ही सम्यग्दर्शन है। उक्त सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान में कारणभूत है, अतः सम्यग्दर्शन को मोक्ष का मूल बताया गया है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र मोक्ष के मार्ग नहीं बन सकते ।

सम्यग्ज्ञान : सम्यग्ज्ञान मोक्ष-मार्ग में द्वितीय रत्न है। केवली (अरहंत) अवस्था का ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान पूर्णतः सम्यग्ज्ञान है। इसके पहले के ज्ञान यदि सम्यग्दर्शनयुक्त हैं, तो वे भी अपनी-अपनी मर्यादा में सम्यक है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय-सहित ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। मिथ्याज्ञान भव-मण के कारण हैं । जिसमें त्रिकाल-गोचर अनन्त पदार्थ अपनी गुण-पर्यायों सहित अतिशयता के साथ प्रतिभासित होते हैं, उस ज्ञान को ज्ञानियों ने (पूर्ण) सम्यग्ज्ञान कहा है। सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है।" जिन ज्ञानों में सम्यग्दर्शन नहीं होता, वे ज्ञान कुज्ञान या मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं। मिथ्याज्ञान कुमति, कुवत और कुअवधि के भेद से तीन प्रकार के है। भव्य जीवों को चाहिये कि वे सम्यग्ज्ञान का आश्रय लें और मिथ्याज्ञान का परिहार कर ।

सम्यकचारित्र : सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का आत्ममात्र से एकीभतत्व है, पर सम्यकचारित्र आत्मा के अतिरिक्त बाह्याचार से भी सम्बन्धित है। अतः आचार्यों ने इसे दो विभागों में विभक्त किया है-एक अन्तरंग और दूसरा बाह्य । जैसे अहिंसा, सत्य आदि रूप परिणाम अन्तर के भाव है और तद्रूप मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया उसके बाह्य फलित परिणाम हैं। अतः चारित्र में जीव को द्विधा यत्नाचार करना पड़ता है। जैन वाङमय में यद्यपि सम्यग्दर्शन को प्रधानता दी गई है तथापि बल चारित्र पर दिया गया है। जहाँ सम्यग्दर्शन की उपलब्धि स्वाधीनता से परे है, वहाँ चारित्र यत्न-साध्य है। आचार्यों ने चारित्र का लक्षण इस प्रकार किया है जो विशुद्धि का उत्कृष्ट धाम है और योगियों का जीवन है, सर्व प्रकार की पाप-प्रवृत्तियों से दूर रहने का लक्षण है, वह सम्यक्चारित्र है ।1

सम्यग्दष्टि जीवों के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में चाहे जो और जैसे निमित्त रह हों, पर सम्यग्दर्शन की दशा सभी स्थानों पर सम रूप है। यह बात स के विषय में नहीं है। सम्यक चारित्र आंशिक और विशेष, विशेषतर, विशेषतम ब पूर्ण सभी प्रकार का हो सकता है । इसीलिए वाह्यचारित्र में श्रावकाचार, साध्वाचार ऐसे दो प्रमुख भेद करने पड़े हैं। इन आचारों में भी श्रावक की प्रतिमाएं व पुलाक आदि के भेद (मुनियों में) कर दिये गये है। श्रावक एक देश पाप-निवत्ति करता है, तो मुनि का त्याग सर्वदेश (पूर्ण रीति से) होता है । वास्तव में चारित्र का उद्देश्य संवर है, पर व्यवहार में शुभ आस्रव में भी इसका उपयोग आगमोक्त है। इसीलिए श्रावक का जितना चारित्र है, वह अधिकांशतः पुण्यास्रव का कारण है और मनियों का चारित्र शुभास्त्रव और संबर दोनों का हेतु है। तप-रूप चारित्र निर्जरा का भी कारण है।

हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से एकदेश विरत होना अणुनत है और सर्वदेश विरत होना महावत । नीचे दिये गये ब्रतों के लक्षणों का यथायोग्य-श्रावक ब मनियों को दृष्टि से--ज्ञान कर लेना चाहिये।

पाँच वत्त-- हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच पाप है। इनसे विरत होने को दयाल आचार्यों ने व्रत (एकदेश-त्याग अणुव्रत, सर्वदेश-त्याग महाव्रत) कहा है।

अहिंसा : जिसमें मन-वचन-काय से अस और स्थावर जीवों का घात स्वप्न में भी न हो, उसे अहिंसा महाबत नामक प्रथम महावत कहा है । 3 (हिंसा के एकदेश त्याग को अहिंसा अणव्रत कहते हैं।)

सत्य : करुणा से भरे आकुलता-रहित ग्राम्यादि असभ्यता-संबंधी दोषों से रहित, गौरव सहित और अविरुद्ध-याथातथ्य जैसे-के-तैसे वचन सत्य कहलाते हैं । ऐसे ही बचन की शास्त्रों में प्रशंसा की गई है ।4

अचौर्य : जो पुरुष बुद्धिमान है और संसार-समद्र से पार जाने की इच्छा रखता है, वह मन-वचन-काय से निःशंकित होकर बिना दी हई वस्तु को ग्रहण नहीं करता-- अचौर्य व्रत पालन करता है।

ब्रह्मचर्य : जिसका आलम्बन करके योगिजन परम आत्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं, और जिसको धीर-वीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं, वह ब्रह्मचर्य व्रत है। (पर-स्त्री व पर-पुरुष के प्रति नियम खण्डित न करना भी ब्रह्मचर्य व्रत है।

अपरिग्रह (परिग्रह-परिमाण) : बाह्य चेतन-अचेतन रूप दो प्रकार के परिग्रह है और अंतरंग में पर-पदार्थों में (चेतना द्वारा) निजबुद्धि होना परिग्रह है। साधजन पूर्ण परिग्रह के त्यागी होते हैं और गृहस्थ-जन परिग्रह-भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण करते हैं। इस परिग्रह को मन-वचन -काय से त्याग रखना अपरिग्रह व्रत है।

मुनियो के पाँच महाव्रत और गृहस्थ श्रावकों के पाँच अणुव्रत होते है । गृहस्थों के लिए तीन गणव्रत और चार शिक्षाप्रत और भी होते हैं। इस प्रकार गृहस्थों के कुल बारह व्रत होते है। इससे पूर्व गृहस्थ को निचली दशा में ही मद्य-मांस-मधु का त्याग भी पाँच अणुव्रतों के साथ जरूरी होता है । ये अष्ट मलगुण कहलाते हैं। सर्वसाधारण को जआ. मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और पर-स्त्री का पूर्ण रीति से त्याग करना चाहिये । साधजन गुप्ति, समिति, धर्म, अनप्रेक्षा और परीषह-जय में साबधान रहते हैं, चारिन में पूर्ण सावधानी रखते हैं। इससे आस्रव का निरोध होता है। "आस्रव निरोधः संवरः स गुप्तिसमितिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः ।' (तत्त्वार्थ , ९।१-२) । मनिजन तप भी करते हैं, उससे निर्जरा भी होती है । 'तपसा निर्जरा च ।' –तत्त्वार्थ . ९।३ । जो क्रियाएँ मनियों के संबंध में ऊपर कही गई है, उनका अभ्यास गृहस्थ भी कर सकते हैं। जानकारी के लिए उनका संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है-

गुप्ति : मन-वचन-काय से उत्पन्न पापयुक्त प्रवृत्तियों का प्रतिषेध करनेवाले प्रवर्तन (मन-वचन-काय की क्रियाओं) को रोकना गुप्ति है— 'सम्यग्योगनिग्रहोगप्तिः ।

-तत्त्वार्य. मनगुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गप्तियाँ हैं। -

समिति : संयमी ज्ञानियों ने ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ कही है। समितियों से यत्नाचार को बल मिलता है और हिंसा का परिहार होकर आत्मशुद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है।

दशधर्म : जिनेन्द्र देव ने धर्म दश प्रकार का कहा है। धर्म के अंश-मात्र सेवन से भी व्रती (क्रमश: बढ़ते-बढ़ते) मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ होता है। ये धर्म दश विध हैं : क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिचन्यब्रह्मचर्याणिधर्माः । -तत्त्वार्थ ।

क्रोध, मान, माया, लोभ आत्मा के शत्रु है। जब तक इनका सद्भाव है आत्मा की शुद्ध अवस्था प्रकाश में नहीं आती, अतः भव्य जीवों को इनका भी परिहार करना चाहिए। ये कपाय कहे जाते हैं क्योंकि ये आत्मा को कसते है यानी दुःख देते हैं।

क्रोध : क्रोध रूपी अग्नि जीवों के यम-नियम और इन्द्रिय-शमन भाव रूपी बगीचे को प्रज्वलित होकर भस्म कर देती है।

मान : मानसे प्रष्ट हुए पुरुष नीच गति के कारणभत खोटे कर्मों का संचय करते हैं और नीच गति को बाँध लेते हैं। कुल, जाति, प्रभुत्व, ज्ञान, बल, ऋद्धि, तप और शरीर संबंधी आठ मद है--इनसे बचना चाहिये ।

माया : मायाचार (छल-कपट) मोक्ष के मार्ग में रुकावट है, नरक रूपी गृह का प्रवेश द्वार है, शीलरूपी शालवृक्ष के वन को (जलाने के लिए) अग्नि है, ऐसा जानना चाहिये ।

लोभ : पापी नीच प्राणी लोभ से वांछित फलों की प्राप्ति तो कर ही नहीं पाता अपितु उसके जीने के प्रयास भी मृत्युगोचर हो जाते हैं, अर्थात् लोभ से उसकी मृत्यु तक हो जाती है ।

इन्द्रियविजय : जिन मढ़ पुरुषों ने इन्द्रियों को वश में नहीं किया और चित्त को नहीं जीता, वे मढ़ स्वयं ही दोनों लोकों में ठगे गये, वे पथ-भ्रष्ट हैं।

बहिरात्मा : जिस जीव के शरीर आदि पर-पदार्थों में भ्रम से आत्म-बुद्धि हो जाती है, अर्थात जो बाह्य-अन्य पदार्थों को अपना, या अपने रूप मानता है और आत्म-स्वरूप को उनसे भिन्न नहीं करता वह जीव बहिरात्मा होता है। ऐसे जीव को मुक्ति नहीं मिलती।

अन्तरात्मा : जिसके आत्मा में ही आत्मा का निश्चय होता है और जो बाह्य भावों का त्याग कर देते हैं वह अन्तरात्मा है । अन्तरात्मा जीव नमरूपी अंधेरे को दूर करने को सूर्य के समान है।

परमात्मा : कर्म के लेप से रहित, शरीर-रहित, शुद्ध, सिद्धस्वरूप, अविनाशी, सुखरूप, निर्विकल्प परमात्मा का स्वरूप है। सिद्ध (मक्त) जीव निकल परमात्मा और अरहंत सकल परमात्मा कहलाते हैं।

उक्त तीनों प्रकार की आत्म-दृष्टियों में परमात्म-दृष्टि उत्तम, अन्तरात्म दृष्टि मध्यम और बहिरात्म दृष्टि अधम है। अतः मुमुक्षु जीवों को अन्तरात्मा होकर परमात्मा बनने का उद्यम करना चाहिये । कहा भी है—

बहिरातमता हेय जान, तजि, अन्तर आतम हूजे ।
परमातम को ध्याय निरंतर, जो निज आतम पूजे ।।

-दौलतराम ।

परमात्मपद 'स्व' में ही है और वह स्वावलम्बन से ही प्राप्त हो सकता है, निखर सकता है। पर-द्रव्य के आश्रय में होना अथवा 'पर' को 'स्व' में आश्रय देना, दीर्घ संसार का कारण है । ऐसा विचार कर मोक्षार्थियों को समस्त पर-द्रव्यों और उनकी पर्याय कल्पनाओं से रहित होकर अपनी आत्मा का निश्चय करना चाहिये। यथा-

'हे प्राणी, तू काम-भोगों से विराम ले । शरीर में आसक्ति छोड़ । समताभाव को धारण कर समताभाव केवलज्ञान-लक्ष्मी का स्थान है।" हे जीव त द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन कर, जिससे तुझे वास्तविकता का बोध हो।

अनित्य भावना : पुत्र-स्त्री-धन और बन्ध चले जाते हैं और जो है वे भी चले जाएंगे। शरीर आदि भी चले जाने वाले हैं, फिर त इनके लिए वृथा खेद क्यों करता है? जीवों की आयु अंजुली के जल के समान क्षण-क्षण क्षीण हो रही है और यौवन कमलिनी के पत्ते पर पड़ी बद के समान तत्काल ढलक जाता है।

अशरण भावना : जब यह काल जीवों के विरुद्ध होता है। तब हाथी, घोड़े, रथ, सेना, औषधि और मंत्र सब व्यर्थ हो जाते हैं। मत्य से बचाने वाला -शरण देनेवाला कोई दूसरा नहीं है।

संसार भावना : चार गति रूप महान् भवरवाले तथा दुःख रूप बडवानल से प्रज्वलित इस संसार-समुद्र में जगत् के दीन-अनाथ प्राणी निरंतरमण करते रहते हैं । 'संसरणं संसारः । -तत्त्वार्थः ।

एकत्व भावना : यह जीव मित्र-स्त्री, पुत्र आदि के लिए नाना कर्म करता है लेकिन उसका फल अकेला ही भोगता है और नरकादि में अकेला ही जाता है।

अन्यत्व भावना : इस जगत् में जो जड़-चेतन पदार्थ है और प्राणी से संबंध रूप दिखते हैं, वे सब सर्वत्र अपने (आत्मा के) स्वरूप से विलक्षण हैं।

अशुचि भावना : यह शरीर रुधिर-मांस से व्याप्त है। हाड़ों का पंजर है । नसों से बँधा हुआ दुर्गन्ध-युक्त है। तू इस शरीर की प्रशंसा कैसे और क्यों कर रहा है?

आस्रव भावना : जैसे समुद्र के मध्य स्थित जहाज में छिद्रों द्वारा जल आता है वैसे योगों द्वारा इस जीव के शुभ-अशुभ कर्मों का आस्रव होता है।

संबर भावना : जिस समय विचार-समूह को छोड़कर मन अपने आत्मस्वरूप में निश्चल हो जाता है, उसी काल मनि के परम संवर होता है।

निर्जरा भावना : संयमी मनि वैराग्य-पदवी को प्राप्त होकर जैसे-जैसे तप ङ्केकारते हैं। वैसे-वैसे दुर्जय फमों का पाप करते है ।

धर्म भावना : जिसके द्वारा जगत् पवित्र किया जाता है और जगत् का उद्धार होता है, जो दया से आर्द्र है, उस धर्मरूपी कल्पवृक्ष को मेरा नमस्कार हो ।

लोक भावना : लोक स्वयं-सिद्ध अनादि है, यह अनश्वर है। किसी का बनाया हुआ भी नहीं है। इसमें जीवादि पदार्थ भी निरन्तर अनादि-अनिधन हैं।"

बोधिदुर्लभ भावना : ज्ञानरूपी-रत्न पुरुष को पुन:-पुनः प्राप्त होना उसी प्रकार से कठिन है, जिस प्रकार समुद्र में हाथ से गिरा हुआ महामूल्य रत्न प्राप्त होना कठिन है ।

आत्म-शक्ति की अपेक्षा सब जीव समान है, अत: 'आत्मनः प्रतिकलानि परेषां न समाचरेत् ।' का सिद्धान्त अपनाना चाहिये । कर्माधीन होने के कारण जीवों में जो क्लेश और कषायादि दृष्टिगोचर होते हैं, वे वैभाविक परिणतियाँ है। वैभाविकता मिटने पर सभी स्वभाव में आ सकते हैं और परमात्मपद-मोक्ष तक पा सकते हैं। जीवों का कर्तव्य है कि वे संसार के प्राणि-मात्र के प्रति मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव का आश्रय करें। सामायिक पाठ में भी इन्हीं भावनाओं पर बल दिया गया है । 'सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं ! –'मैत्रीभाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे ।

मैत्री -भावना : सूक्ष्म-बादर, बस-स्थावर जीव जिन सुख-दुःखादि अवस्थाओं में हैं और नाना प्रकार की ऊँच-नीच योनियों में हैं, उनमें महत्त्वपूर्ण समीचीन भावना रखना मत्री-भावना' है ।1

प्रमोद-भावना : तप-श्रुत, यम-नियम से युक्त ज्ञानचाक्षष; इन्द्रिय, मन और कषायविजयी, तत्त्वाभ्यास-पटू और चारित्र से पूरित आत्माओं (पुरुषों) को देख कर हर्षित होना 'प्रमोद-भावना है।

कारुण्य-भावना : जो जीव दीनता से, शोक-भय-रोगादिक की पीड़ा से पीड़ित हों तथा वध-बंधन-सहित हो, अथवा जीवन की वांछा रखते हों, रक्षा की याचना करते हों। क्षधा-तषा, खेद, शीत, उष्ण से पीड़ित हों, निर्दयी जीवों द्वारा पीड़ित हों, मरण के भय को प्राप्त हों ऐसे जीवों को देखने-सुनने से उनके दुःख दूर करने के उपाय की बद्धि, चिन्तवन 'करुणा-भावना है ।3

मध्यस्थ भावना : क्रोधी, निर्दयी, क्रूरकर्मी, मघ-मांस-मद्यसेवी , व्यभिचारी, अत्यन्त पापी, देव, शास्त्र, गरु के निन्दक, आत्मप्रशंसक और नास्तिकों में उपेक्षाभाव अर्थात् उदासीनता रखना 'मध्यस्थ भावना' है।

भव्य जीवों को चाहिये कि यदि श्रावक श्रेणी में है तो नित्यप्रति अपने दैनिक षट्कर्मों का ध्यान रखें और यथायोग्य रीति से उन्हें पूरा करें, यथा--'देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चैव गहस्थानां षट् कर्माणि दिने-दिने ।। आत्मस्थ होने के लिए जिनदेव ने ध्यान का विधान किया है, सो ध्यान चार प्रकार है-उनमें धमध्यान उत्तम और शुक्ल-परमशुक्ल उत्तमोत्तम है। उत्तमोत्तम ध्यान मोक्ष का कारण है और यह अन्तम हूर्त काल मात्र होता है । धर्म-ध्यान प्रतिक्षण किया जा सकता है । इन ध्यानों को परमेष्ठी मंत्रों के माध्यम से भी किया जा सकता है। पर इनमें स्थान तथा द्रव्य-क्षेत्र -काल-भाव की परिमार्जना कर लेना चाहिये। ध्यान के लिए ऐसा स्थान उत्तम होता है, जहाँ रागादि दोष निरन्तर कम होते रहें। क्योंकि ध्यान में स्थान की भी विशेषता होती है । जिस-जिस आसन से सुखरूप बैठकर (स्थिर होकर) अपना मन निश्चल रह सके, उसी को ग्रहण करना चाहिये।

तीर्थकर महावीर की देशना में तो केवलज्ञान की झलक रही उसका वर्णन तो श्रुतकेवली भी पूर्ण न कर सके । कुल मिलाकर देशना का तात्पर्य (कर्तव्य के प्रति) इतना ही था कि जिस भांति भी रागादिक की मन्दता हो, आत्मा स्वाश्रित हो, किसी को बाधा न पहुँचे इस प्रकार उद्योग करते रहना चाहिये । उद्यम से जीव, यदि वह भव्य है तो, कभी-न-कभी मक्ति को अवश्य प्राप्त करेगा; कहा भी है—

'हे आत्मन, त आत्मप्रयोजन का आश्रय कर, मोहरूपी वन को छोड़ । बैराग्य का चिन्तवन कर। निश्चय ही शरीर और आत्मा के भेद को बिचार । धर्मध्यानरूपी अमृत-समुद्र के मध्य स्नान करके (क्रमशः) मुक्ति-सुख को देख ।'

गौतम गणधर ने इसी प्रकार की और भी बहुत-सी विवेचनाओं को किया, उन सबका गुथना श्रुतकेवली के वश की ही बात है । हाँ, इतना अवश्य है कि हम तो उसके प्रति सद्भावना ही रख सकते है। श्री शुभचन्द्राचार्य के शब्दों में—

'सर्वज्ञ वीतराग प्रभु का शासन प्रशान्त, अतिगम्भीर संपूर्ण ज्ञान का भण्डार और भव्यजीवों को मात्र आधार है। यह सर्वजदेव का शासन सदा-सदा अमर रहे, जयवन्त हो ।

दिव्य देशना के बाद तीर्थंकर वर्धमान महावीर ध्यानस्थ हो गये और अघातिकर्मों के क्षपण की ओर बढ़े । उनका ध्यान परमशक्ल ध्यान था, जिसके कारण वे

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1. 'पत्र रागादयो दोषा अजस्र यान्ति लाघवम् ।
नव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः ।।। 59।।

2. 'येन येन सुखासीना विदध्युनिश्चलं मनः ।
तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिबन्धुरासनम् ।। 60।।

3. 'प्रात्मायें श्रेय मुंच मोहगहन मिव विवेक कुरु ।
वैराग्यं भग भावयस्वनियत भेदं शरीरात्मनों ।।
उत्तमध्यानमुधासमुद्रकुहरे कृत्वावगाहं परं ।
पश्यन्नन्तसुखस्वभावकलितं मक्तेमखाम्भोरहम् ।। 61 ।।

4. 'पाशीर्वादात्मकमंगल-प्रशांतमतिगम्भीरं विश्वविद्याकुलगृहम् ।
भन्यैक मारणं जीयाचीमरावंशजासनम् ।।62।।

-शुभचन्द्राचार्य

(टिप्पणी- पलोकों में दी गई देशनारेखा का नित्य प्रति पाठ करना चाहिये।)

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सिद्ध वन सके। उन्होंने मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग स्व-सहज स्वाभाविक रीति से अपनाया।