भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 13-14 ।।

काव्य : 13

वक्त्रं क्व ते सुरनरोरग नेत्रहारि,
निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥१३॥

कहाँ आपका मुख अतिसुन्दर, सुर-नर-उरग नेत्रहारी।
जिसने जीत लिये सब जग के, जितने थे उपमाधारी॥
कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमा, रंक-समान कीट सा दीन।
जो पलाश-सा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन॥१३॥

काव्य : 13 पर प्रवचन

बहुत से लोग कहते हैं कि भगवान का मुख चन्द्रमा के समान है – परन्त हे देव! हमें उस उपमा से सन्तोष नहीं होता। केवलज्ञान की दिव्यप्रभा से झलकती आपकी निष्कलङ्क मुद्रा के सामने चन्द्रमा की क्या गिनती है?

चन्द्रमा तो कलङ्कवाला है, (उसमें काले-काले दाग दिखते हैं) और आप तो राग-द्वेषरहित निष्कलङ्क हो।

चन्द्रमा का तेज तो दिन में सूखी घास के समान एकदम फीका और पीला पड़ जाता है, जबकि आपका तेज तो दिन या रात, सदा काल एक समान ही रहता है।

केवलज्ञान का तेज तो सदैव अनन्त काल तक ऐसा का ऐसा रहता है और शरीर हजारों-लाखों-करोडों वर्षों तक रहे तो भी अन्त तक उसका तेज ऐसा का ऐसा रहता है, कभी फीका नहीं पड़ता; इसलिए कहाँ चन्द्रबिम्ब और कहाँ आपका मुखमण्डल! आपकी परम उपशान्त दिव्य वीतरागी मुद्रा तो ऊर्ध्वलोक के सुरेन्द्र; मध्यलोक के नरेन्द्र; और अधोलोक के नागेन्द्र-धरणेन्द्र – ऐसे तीनों लोक के जीवों के नेत्रों को मुग्ध करनेवाली है और तीन लोक सम्बन्धी समस्त उपमाओं को जीतनेवाली है। आपके दिव्यरूप की समानता कर सके - ऐसा तीन जगत् में कोई नहीं है।

प्रभो! आपका आत्मा तो परम शान्त है और उस शान्ति की प्रभा आपकी मुद्रा में भी दिखायी देती है। जैसे, मीठे तालाब का पानी पीने में ठण्डा और उसके समीपवर्ती हवा भी ठण्डी! उसी प्रकार प्रभु का आत्मा तो शान्तरस में मग्न और देह की मुद्रा भी शान्त ! चन्द्रमा में तो काले धब्बे दिखते हैं परन्तु प्रभु की मुद्रा में कोई कलङ्क नहीं है; राग-द्वेष का कोई भी दाग प्रभु में नहीं है। ऐसे प्रभु को देखने के बाद जगत् की कोई वस्तु, मुमुक्षु के चित्त को हर नहीं सकती, क्योंकि सर्वज्ञप्रभु की तुलना कर सके - ऐसी कोई वस्तु जगत् में है ही नहीं। समवसरण के मध्य विराजमान साक्षात् तीर्थङ्कर परमात्मा के दर्शनों का महाभाग्य तो महापुण्यवन्त को ही प्राप्त होता है; साधारण जीवों को उनकी अद्भुत शोभा का ख्याल नहीं आता। प्रभु के मुख पर अतीन्द्रिय सुख की छवि दिखती है, उसे देखकर मुमुक्षु को आत्मा का सुखस्वभाव प्रतीति में आ जाता है।

प्रभो! सूर्य-चन्द्रमा की उपमा से आपकी सच्ची पहचान नहीं हो सकती। सूर्य-चन्द्रमा में रहनेवाले ज्योतिषीदेव भी आपके सेवक हैं। ऊपर के इन्द्र, मध्य में मनुष्य और नीचे के नागेन्द्र – ऐसे तीन लोक के जीव आपको देखकर मुग्ध हो जाते हैं। बेचारे नारकी जीवों को तो आपके दर्शनों का सौभाग्य ही प्राप्त नहीं होता है।

अहा! आपकी मुद्रा की शान्ति, वीतरागता, गम्भीरता – ये सब अनुपम हैं... अद्भुत है। 'मेरे भगवान इतने सुन्दर...!' ऐसे भगवान का वर्णन करते भक्तजन थकते नहीं हैं। संसार में माता अपने पुत्र की प्रशंसा कर-करके राग का पोषण करती है, यहाँ धर्म में वीतरागदेव की प्रशंसा कर-करके भक्तजन अपनी वीतरागी भावना को बढ़ाते हैं। अहो प्रभो! आपके निष्कलङ्क रूप को देखकर, ध्यान करने से हमारे आत्मा में से भी कलङ्क दूर हो जाता है।

हे देव! आपका मुख, चन्द्रमा के समान कलङ्कित नहीं है; आपकी नाक कोई तोते की चोंच जैसी टेढ़ी नहीं है; आपकी आँख कोई हिरनी की आँख जैसी भयभीत नहीं है, वह तो अन्तर्मुख स्थिर है; आपकी आवाज कोई कोयल जैसी नहीं है, उससे भी अत्यन्त मधुर है; आपकी मुखमुद्रा कमल के समान मुरझा नहीं जाती, सदैव प्रसन्न रहती है – इस प्रकार लोक के सर्व पदार्थों की उपमा को हर लेनेवाले आप, सर्वोत्तम -सर्वाङ्ग सुन्दर हो। जगत् के पदार्थों में किसी न किसी प्रकार का दोष होता है, जबकि आप तो सर्व प्रकार से दोषरहित, सर्व गुणसम्पन्न हो; इसलिए निरूपम, अर्थात् उपमारहित हो।

प्रभु के आत्मा में राग नहीं है और शरीर में रोग नहीं है। आत्मा में सबसे उत्तम केवलज्ञान दशा हो गयी है और शरीर में सबसे उत्तम परमौदारिक दशा हो गयी है – ऐसे दोनों प्रकार से, अर्थात् अन्तर और बाह्य में सर्वोत्कृष्टपना बताकर भगवान की स्तुति की है।


काव्य : 14

सम्पूर्ण-मण्डल-शशांङ्ककला-कलाप
शुभ्रा गुणास्त्रि भुवनं तव लंघयन्ति।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥१४॥

तव गुण पूर्ण-शशांक कान्तिमय, कला-कलापों से बढ़के।
तीन लोक में व्याप्य रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढ़के॥
विचरें चाहे जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार।
कोन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार॥१४॥

काव्य : 14 पर प्रवचन

हे देव! पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान आपके उज्ज्वल गुण तीनों लोक में व्याप्त हो गये हैं अथवा तीन लोक के लाँघकर सिद्धलोक में पहुँच गये हैं। सत्य ही है, आपके जैसे परमात्मा को नाथरूप में स्वीकार करके जिसने उनका आश्रय किया, उसके गुणों को तीन लोक में सुखपूर्वक संचार करने से कौन रोक सकता है ? प्रभो ! हमारी साधकपरिणति ने भी आपके जैसे महापुरुष का, अर्थात् अन्तर में परमात्मभाव का आश्रय लिया है; इसलिए हमें अब मोक्ष में प्रवेश करने से कोई नहीं रोक सकता।

हे प्रभो ! सर्वज्ञता, क्षायिकसम्यक्त्व, पूर्णानन्द इत्यादि गुणों ने आपका आश्रय लिया, जिससे तीन लोक में उनकी महिमा का विस्तार हो गया है। जैसे, बड़े राजा-महाराजा के दूत को राजदरबार में प्रवेश करने से कोई रोक नहीं सकता; वैसे ही साधकजीव कहते हैं कि हम सर्वज्ञ परमात्मा के दूत हैं, हमें इच्छानुसार मोक्षमार्ग में विचरण करने से कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि हमने बड़ों का आश्रय लिया है।

प्रभो! हमें तो तीन लोक में सर्वत्र आपके गुण ही फैले हुए दिखायी देते हैं। दोष तो आपसे डरकर विचारे न जाने कहाँ भाग गये हैं ? अहा प्रभो! आप की तो क्या बात ! जहाँ आपका आश्रय लिया, वहाँ (हमारे) आत्मा में भी सभी गुण विकसित होने लगे हैं और दोष दूर होने लगे हैं - इस प्रकार साधकदशा वृद्धिङ्गत होने लगी है।

जब प्रभु का जन्म हुआ अथवा केवलज्ञान हुआ, तब तीन लोक में दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया और जीवों को साता हुई, तब आश्चर्यपूर्वक जिनमहिमा का चिन्तन करते हुए बहुत जीवों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। इस प्रकार प्रभु के प्रताप से तीन लोक में गुणों का विस्तार होने लगा। प्रभु के गुणों की कीर्ति तो तीन लोक में व्याप्त होकर, अन्य जीवों में भी प्रभु के निमित्त से गुणों का विस्तार होने लगा। इस प्रकार भक्त को तीन लोक में प्रभु के गुण ही दिखायी देते हैं।

कोई कहे कि 'इसमें पराधीनता नहीं आती?'

- नहीं; क्योंकि भगवान का भक्त, भगवान के समान अपने आत्मा में भी गुणों की परिपूर्णता देखता है और उस पूर्णस्वभाव के आश्रय से उनकी साधना, अर्थात्, सम्यक्त्वादि गुणों में वृद्धि होती है। ऐसी स्वाश्रय की भावनापूर्वक यह भगवान का गुणगान है। भक्ति में तो 'भक्त की भाषा' होती है; इस कारण उसमें कोई पराधीनता की बुद्धि नहीं है, यह तो भगवान के प्रति विनय है।

हे नाथ! आपको केवलज्ञान होने पर आपके आनन्द की तो क्या बात ! चौदह ब्रह्माण्ड में आनन्द की हिलोर आती है; देवताओं के दिव्यासन डगमगा उठते हैं और देवों के वादित्र स्वयमेव बजने लगते हैं, आकाश से रत्नवृष्टि होने लगती है। प्रभो! इन सब में हमें तो आपके गुणों का ही प्रभाव दिखायी देता है। आपके जैसी आश्चर्यकारी बाह्यलब्धि भी अन्य कुदेवों को नहीं हो सकती; अन्दर के गुणवैभव की तो बात क्या !

आपके केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की महिमा जगत में प्रसिद्ध है, तीन लोक में क्या सत्पुरुष उन्हें नहीं जानते? यहाँ जब आपके मोक्षगमन की तैयारी होती है, तब दुनिया में आनन्द के बाजे बजते हैं.... सर्वत्र आह्लाद और प्रह्लाद फैल जाता है।

हे जिनेन्द्र! आपके गुणवैभव की कीर्ति के समक्ष इन्द्र या चक्रवर्ती का वैभव तथा कीर्ति भी तुच्छ लगते हैं। वे चक्रवर्ती और इन्द्र भी आपकी सेवा करते हैं और आपकी सेवा के फल से ही उन्हें इन्द्रपना और चक्रवर्तीपना मिला है; इसलिए वहाँ भी हमें तो आपके गुणों की ही महिमा दिखायी देती है। जगत् में ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जहाँ आपके गुणों का गुणगान न होता हो। हम भी जहाँ जाएँगे, वहाँ आपके गुणों के ही गीत गायेंगे और गाते-गाते मोक्ष में आयेंगे। हमारे पास दोष का नामो -निशान भी नहीं रहेगा। देखो, वीतराग के भक्त की अन्दर की पुकार! प्रभो! हम सर्व गुणसम्पन्न आपके उपासक बन गये.... अब हमारे में कोई दोष कैसे रह सकता है ? हमारे गुणों के विस्तार को रोकने के लिए जगत् में कोई समर्थ नहीं है।

ज्ञानी के अतिरिक्त ऐसी अद्भुत गुणभक्ति दूसरा कोई नहीं कर सकता और सर्वज्ञ भगवान के अतिरिक्त दूसरा कोई झेल नहीं सकता। जो भगवान के गुणों को और उनके समान निजात्मस्वभाव को नहीं पहचानता, वह उनकी स्तुति या उपासना कैसे कर सकता है ? और जो स्वयं मोही-अज्ञानी होता है, वह ज्ञानी की वीतरागभक्ति कैसे झेल सकता है? इसलिए वास्तव में ज्ञानस्वभाव की अनुभूतिरूप सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञान ही सर्वज्ञ भगवान की सबसे पहली स्तुति है। ऐसी भावस्तुति करनेवाले को शास्त्र में 'जिन' कहा है।

अरे जीव! भगवान आत्मा का ऐसा गुणगान करना तो सीख! उसकी महिमा तो कर! तो तेरे भव का अन्त आ जाएगा और तू मोक्षपुरी के मार्ग में आ जाएगा। संसार में सर्वोत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धि का भव करनेवाले सम्यग्दृष्टि देव और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करनेवाले मध्यलोक के मुनिवर, या नीचे सातवें नरक में रहनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव – ये धर्मात्मा भी परमात्मा का गुणगान करते हैं।

तीव्र मिथ्यादृष्टि जीव तो परमात्मा को पहचानता ही नहीं, उसकी क्या गिनती? दृष्टिवान जीवों को तो सर्वत्र भगवान के गुणों की महिमा दिखायी देती है, अन्धे (दृष्टिहीन) जीवों को नहीं दिखायी दे तो उसका क्या करें? दृष्टिहीन को तो पैर के पास निधान हो तो भी दिखायी नहीं पड़ता।

प्रभो! आपको देखते ही हमारी तो अन्तरदृष्टि खुल गयी है, हमें अन्तर में चैतन्यनिधान दिखायी देने लगा है। अब, उस निधान को प्राप्त करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। हम आपके नन्दन हुए, वारिस हुए, सर्वज्ञपद के युवराज हुए; अब मोक्षपद प्राप्त करने में क्या बिलम्ब ! इस प्रकार साधक को अपने मोक्ष की नि:शङ्कता हो गयी है। सर्वज्ञपद की सत्ता का निश्चय हुआ, तब स्वयं में वह पद दिखने लगा। उस सर्वज्ञस्वभाव के आश्रय से मैं भी सर्वज्ञ हो जाऊँगा और मेरे ज्ञान का विस्तार भी तीन लोक में व्याप्त जाएगा - ऐसी नि:शङ्कतापूर्वक साधक जीव, मोक्ष को साधते-साधते यह भक्ति करते हैं।