भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 29-30 ।।

काव्य : 29

सिंहासने मणिमयूख-शिखाविचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्वलसदंशुलता - वितानं
तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः॥२९॥

मणि मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन।
कान्तिमान कंचन सा दिखता, जिस पर तव कमनीय वदन॥
उदयाचल के तुङ्ग शिखर से, मानो सहस्त्र रश्मिवाला।
किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला॥२९॥

काव्य : 29 पर प्रवचन

तीर्थङ्कर भगवान के आठ प्रातिहार्य-अतिशय हैं, उनमें दूसरा सिंहासन है, उसका यह वर्णन है।

सिंहासन पर विराजमान प्रभु को देखकर स्तुतिकार कहते हैं कि हे देव! जैसे सुवर्णाचल पर्वत पर उदित सूर्य, अपनी हजारों स्वर्णिम किरणोंसहित आकाश में सुशोभित होता है, वैसे ही दिव्य मणि-रत्नों की किरणों से जगमगाते स्वर्ण के सिंहासन पर स्वर्ण-शरीरवाले आपको विराजमान देखकर भव्य जीवों का चित्त प्रसन्नता से खिल उठता है।

समवसरण के मध्य मणिरत्नों से जड़ित दैवीय सिंहासन है; उस पर गन्धकुटीरूप कमल की रचना है, उसकी शोभा आश्चर्यकारी है। उस कमल पर भगवान विराजमान होने से उसे 'कमलासन' भी कहते हैं (जय कमलासन... सुन्दर शासन भासत नभद्वय बोधवरं) परन्तु विशेष आश्चर्य की बात यह है कि भगवान तो इस दिव्य-सिंहासन को या गन्धकुटि को स्पर्श किये बिना, उससे अलिप्त, चार अंगुल ऊपर आकाश में निरालम्बीरूप से विराजते हैं।

'जैसा निरालम्बन आत्मद्रव्य, वैसा निरालम्बन जिन-देहा।'

तीर्थङ्करदेव को आत्मा की पूर्ण पवित्रता के साथ पुण्य भी अतिशय-आश्चर्यकारी होता है। वे किसी के मकान में रहते हैं या उनके लिए किसी से आसन लाना पड़ता है और फिर अन्त समय में वापस सौंपना पड़ता है – ऐसी हीनपुण्यता उनकी नहीं होती। उनका श्रीविहार और आसन तो गगन में होता है और उनके आस-पास सिंहासन आदि दिव्य वैभवों की रचना सातिशय पुण्ययोग से हो जाती है।

अहो परमात्मा! ऐसा उत्कृष्ट पुण्यफल का परिपाक और उसके बीच भी आप एकदम अलिप्त ! ऐसी अद्भुत वीतरागता तो आप में ही सुशोभित होती है। आपके समीप में, अर्थात् शुद्धात्मा के समीप हमारे अन्तर में भी वीतरागता जाग उठती है। अहा! आत्मा का स्वभाव कैसा रागरहित सुशोभित होता है ! पारसमणि का स्पर्श तो लोहे को मात्र सोना बनाता है (और वह भी यदि उसमें जंग न हो तो.... !) परन्तु उसे अपने समान पारस नहीं बनाता, जबकि हे प्रभो! आपका स्पर्श, अर्थात् अनुभव तो हमें आपके जैसा परमात्मा बना देता है।

हे देव! आप हमें परमात्मपना देनेवाले महान दाता हो। अहा प्रभो! सिंहासन पर अलिप्त आपको देखते ही हमें तो ऐसा लगता है कि हमें मोक्ष का सिंहासन मिल गया हो, क्योंकि हमारे हृदय के सिंहासन में आप विराजमान हो; इसलिए हे नाथ! आपका ध्यान करते-करते हम भी आपके जैसे बन जाएँगे। इस प्रकार आपका भक्त आपके जैसा बन जाता है, इसलिए पारसमणि की अपेक्षा आपका समागम श्रेष्ठ है - 'वो लोहा कंचन करे, प्रभु करे आप समान...' भगवान का भक्त, स्वयं भगवान बन जाता है - यह जिनशासन की बलिहारी है।

अहा प्रभो! आप सिंहासन को स्पर्श करके नहीं बैठते, उससे अद्धर अलिप्त विराजते हो, इससे हम ऐसा समझते हैं कि जिस सिंहासन को आपने छोड़ दिया, वह आपके पीछे आता है; भले ही राजसिंहासन के बदले देवसिंहासन आया।

आप तो पुण्य और उसके फल का भी आदर नहीं करते। इस प्रकार पुण्य / राग का भी हेयपना प्रसिद्ध कर रहे हो। आप तो रागरहित मोक्षसिंहासन पर बैठनेवाले हो। राग, आत्मराजा के बैठने का पद नहीं है; आत्मराजा के बैठने का सिंहासन तो शुद्ध चैतन्य का बना हुआ है। हे जीवो! तुम शुद्ध चैतन्यरूप जिनपद में आरूढ़ होओ और राग से अलिप्त रहो - ऐसा भगवान प्रसिद्ध कर रहे हैं। ये राग-पुण्य के फल, भले ही संसार के अन्तिम छोर तक आत्मा के पीछे-पीछे आयें परन्तु मोक्ष में उनका प्रवेश नहीं है,क्योंकि वे आत्मा का निजपद नहीं है, अपद है – ऐसा, हे भव्य जीवो! तुम जानो, और शुद्ध चैतन्यमय निजपद में आरूढ़ होओ।

वीतराग की भावना से भक्त कहता है कि हे देव! आपकी शोभा कोई दिव्य सिंहासन के कारण नहीं है, अपितु आपकी निकटता के कारण सिंहासन की शोभा है। हमें सिंहासन की महिमा नहीं लगती, हमें तो सिंहासन से अलिप्त आपकी सर्वज्ञता की और वीतरागता की महिमा भासित होती है। इस प्रकार भक्त, सर्वत्र भगवान की महिमा को ही देखता है।

[आठ प्रातिहार्यों में से दूसरे सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन पूर्ण हुआ।]


काव्य : 30

कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं,
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्।
उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झरवारिधार
मुच्चै स्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्॥३०॥

ढुरते सुन्दर चैंबर विमल अति, नवल कुन्द के पुष्य-समान।
शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥
कनकाचल के तुङ्ग शृंग से, झर-झर झरता है निर्झर।
चन्द्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर॥३०॥

काव्य : 30 पर प्रवचन

यह तीसरे प्रातिहार्य (चँवर) के वर्णन द्वारा भगवान की स्तुति है।

हे देव! कुन्दपुष्प जैसे 64 चँवर से इन्द्र आपकी वन्दना करते हैं, तब आपका स्वर्णवर्ण श्वेत शरीर एकदम सुशोभित हो उठता है। कैसा सुशोभित होता है ? जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा से झरती पवित्र जलधारा से सुमेरुपर्वत का स्वर्णिम शिखर सुशोभित होता है; वैसे ही देवों द्वारा ढुलते उज्ज्वल चँवर के समूहों के बीच आपका सुन्दर स्वर्णिम शरीर शोभायमान हो रहा है।

देखो, चँवर से शरीर की शोभा कही है; आत्मा तो केवलज्ञान-दर्शनरूप चैतन्यभाव से शोभायमान है – इस प्रकार धर्मी दोनों की भिन्नता को जानते हैं। जो जीव, देहाश्रित गुणों को ही देखता है अथवा अकेले पुण्य के बाह्य वैभव की महिमा में ही अटक जाता है, अर्थात् –

जो जिन देहप्रमाण और समवसरणादि सिद्धि,
वर्णन समझे जिन का, रोकी रहे निजबुद्धि।

इस प्रकार बाहर में ही अटक जाता है और अन्दर के आत्माश्रित चैतन्य गुणों को नहीं पहचानता, उसे सर्वज्ञ की परमार्थ स्तुति करना नहीं आती। जो देहाश्रित गुणों तथा आत्माश्रित गुणों – इन दोनों की भिन्नता को पहचाने और उनमें से आत्मिकगुणों द्वारा सर्वज्ञदेव को पहचाने, तो उसे जड़-चेतन का भेदज्ञान और राग से भिन्न शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और वह मोक्षसाधिका परमार्थभक्ति है, उसे ही 'निर्वाणभक्ति' कहते हैं। यहाँ ऐसी भक्तिसहित की व्यवहारभक्ति का वर्णन है।

भगवान के आत्मा में आनन्द का झरना बहता है, उन्हें किसी चँवर-सिंहासन आदि का सुख नहीं है, तथापि पुण्ययोग से बाहर में ऐसा अद्भुत वैभव होता है, परन्तु अरे! आत्मा की चैतन्यविभूति के सामने बाहर की पुण्यविभूति की क्या गिनती है?

प्रभु को ढुलते चँवर, पहले नीचे झुककर फिर ऊपर आते हैं, वे यह दर्शाते हैं कि जो जीव, जिनचरणों में नम्रीभूत होता है, वह उच्चपद को प्राप्त करता है। यह बात कल्याण-मन्दिर स्तोत्र में आयी है -

हे नाथ! पूर नभ के उड़ते हुए ये;
मानो यही कह रहे सुर चामरौघ'
जो हैं प्रणाम करते इस नाथ को हैं,
वे शुद्धभाव बन के गति उच्च पाते'॥
(- कल्याणमन्दिर स्तोत्र - 22 )

नीचे झुककर ऊपर उछलते वे चँवर मानो ऐसा बोल रहे हैं कि हे जीवों ! तुम्हें उच्चपद प्राप्त करना हो तो प्रभु के चरणों में भक्ति से झुक जाओ।

देखो, दृष्टि-दृष्टि में अन्तर है; सामान्य लोग चँवर की महिमा देखते हैं, वहाँ मुमुक्षु की दृष्टि में चँवर की नहीं, अपितु चँवर जिन्हें ढुलते हैं, उन भगवान की महिमा दिखायी देती है –

एक बार एक जैन विद्वान कोहीनूर हीरा देखने गये। दूसरे ने उनसे पूछा – 'हीरा कैसा लगा?' विद्वान ने उनसे प्रश्न किया – 'भाई! हीरा बहुमूल्य है या आँख? – यदि आँख न हो तो हीरा को कौन देखेगा? इसलिए हीरे की अपेक्षा उसे देखनेवाली आँख अधिक कीमती है और ज्ञान के बिना यह आँख भी क्या करेगी; इसलिए ज्ञान ही बहुमूल्य है। देखो, अज्ञानी को परज्ञेय की महिमा भासित होती है परन्तु उसे जाननेवाले अपने ज्ञान की महिमा भासित नहीं होती। सर्वज्ञ की महिमा ज्ञान से है और ज्ञान से ही उनकी सच्ची महिमा समझ में आती है, राग से नहीं।

चौथे काल का प्रारम्भ होने से पहले भगवान ऋषभदेव इस भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थङ्कर हुए, उनकी यह स्तुति है। उस समय पूर्व के आराधक धर्मात्मा जीव भी इस भरतक्षेत्र में अवतरित होते थे, परन्तु पञ्चम काल प्रारम्भ होने के बाद कोई भी आराधकसम्यग्दृष्टि जीव यहाँ अवतरित नहीं होते; इसलिए आराधना के साथ का उत्तम पुण्य भी इस काल में देखने को नहीं मिलता। हाँ, इतना अवश्य है कि पञ्चम काल अभी भी धर्मकाल है; धर्म का लोप नहीं हो गया है। समकित लेकर कोई जीव अभी यहाँ जन्म नहीं लेता – यह तो सत्य है परन्तु जन्म लेने के बाद सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है। ऐसे आराधक जीव को धर्म के साथ जो पुण्य बँधता है, वह विशिष्ट, अर्थात् उत्तमजाति का होता है, उसे पूर्व के पाप का रस / अनुभाग भी कम हो जाता है और शुभकर्मों का रस बढ़ता जाता है। ऐसे आराधक जीव, भगवान के प्रति भक्ति-बहुमान से उल्लसित हो जाते हैं।

यहाँ भक्तामरस्तोत्र में आठ प्रातिहार्यों के वर्णनपूर्वक भगवान की स्तुति चल रही है, उसमें अशोकवृक्ष, सिंहासन और चँवर - इन तीन का वर्णन किया।