भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 43-44 ।।

काव्य : 43

कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह
वेगावतारतरणातुर-योधभीमे ।
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा
स्त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ॥४३॥

रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।
वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरि सेना दुर्जयरूप।
तव पादारविन्द का पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप॥४३॥

काव्य : 43 पर प्रवचन

इस श्लोक का नाम 'युद्धभयनिवारक स्तुति' है।

भक्त मुमुक्षु, भयंकर युद्धभूमि के बीच भी जिनराज को नहीं भूलता है। जिस युद्धभूमि में भाले की अणी से भिद गये हाथी की रक्त-रञ्जित धारा पानी के प्रवाह की भाँति बहती हो और योद्धा उस रक्त के प्रवाह को लाँघकर आकुल-व्याकुल होकर दौड़ते हों – ऐसे भयंकर युद्ध में, जिसे जीतना कठिन हो – ऐसे शत्रुओं को भी, हे जिनेन्द्र! आपके पादपङ्कजरूप वन का आश्रय करनेवाले भव्यजीव, खेल-खेल में जीत लेते हैं।

प्रभो! हमने आपके समान अजेय सर्वज्ञपुरुष का आश्रय लिया, अब हमें जीतनेवाला कौन? – हमारी ही विजय है। शुभाशुभकर्मों के उदयरूप युद्धभूमि में अपना शुद्ध-बुद्धस्वभाव अनन्त गुणरूपी पुष्पों से खिला हुआ बगीचा है, इसका जो आश्रय लेता है, वह उदय की सेना को जीत लेता है; अन्तरङ्ग या बाह्य शत्रु से भयभीत नहीं होता; स्वभाव में नि:शङ्क और निर्भयरूप से अपने मोक्ष-साम्राज्य को साधता है। जैसे, सुन्दर उपवन की शीलत छाया का आश्रय करनेवाले को आताप नहीं लगता; वैसे ही स्वभाव के अति सुन्दर शान्त चेतनबाग में विश्राम करनेवाले को संसार का या शत्रु का आताप नहीं लगता, वह तो शीतल-शान्ति का वेदन करता है।

हे देव! यह आत्मा के सर्वज्ञपद की और जिनपद की महिमा है। जिसके अन्तर में आपके सर्वज्ञपद की अचिन्त्य महिमा वस गयी हो, उसे अब निर्भयपने मोहरूपी शत्रु को जीतने से कोई नहीं रोक सकता है। युद्धभूमि के बीच भी मानो शान्त बगीचे में बैठा हो, उस प्रकार उदयभावों के बीच भी धर्मी - जिनभक्त, शान्त-चैतन्यरूपी बाग में केलि / क्रीड़ा करता है।

जिस प्रकार, श्रीकृष्ण जैसे पुण्यवन्त महात्मा जिसके पक्ष मे हों, उसकी जीत होती ही है; वैसे ही सर्वज्ञस्वभावी परमात्मा जिसके हृदय में हो, उसकी मोह के सामने जीत ही होती है। धर्मात्मा, युद्धभूमि के बीच भी परमात्मा को नहीं भूलता, स्वभाव को नहीं भूलता। उस समय शरीर और रागादि से भिन्न चिदानन्दस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान उसे अखण्डपने चालू रहते हैं और उसके जोर से वह मोह-विजेता बनता है तथा पुण्ययोग से बाहर के शत्रु को भी वह जीत लेता है। धर्मात्मा को साधकदशा में विशिष्ट पुण्य बँधता है, उसका उदय आते ही वह बाहर के शत्रु को भी युद्ध में जीत लेता है; अजेय शत्रु भी उसका दास बन जाता है।

मथुरानगरी के राजा मधु, सम्यग्दृष्टि थे। भरत के साथ लड़ते-लड़ते उनका शरीर बाणों से विध गया परन्तु वे धर्म को नहीं भूले, अपितु विशेष वैराग्यभावना जागृत हुई और घायलरूप में हाथी पर बैठे-बैठे ही संयम धारण करके समाधिमरण किया। कर्म का उदय उनके धर्म को घायल नहीं कर सका, उन्होंने वीतरागभाव से उदय को जीत लिया।

देखो, बाहर का शत्रु नहीं जीत पाये, स्वयं घायल हुए तो भी मोहशत्रु को जीत लिया। युद्धभूमि के बीच हाथी पर बैठे -बैठे, घायल शरीर में भी अन्दर की चेतना को घायल नहीं होने दिया; चेतना को जागृत करके वैराग्यपूर्वक संयम धारण किया। इस प्रकार जिनदेव के भक्त, किसी भी स्थिति में जिनधर्म को नहीं भूलते; इसलिए उनकी विजय ही है। एक प्रकार से देखें तो समस्त संसार, वह उदयभावों के साथ संग्राम है, उसमें साधक जीव, जिनभक्तिरूप शान्त हथियार द्वारा विजय प्राप्त करते हैं।

निज परमात्मा का भजन

यदि भगवान की भक्ति करने से अन्तर में निज परमात्मा का भजन हो जाए तो उसके फल में आत्मा मुक्तिरूप इच्छित फल को प्राप्त कर सकता है; अतः किसी भी प्रकार निज परमात्मा को ही भजना चाहिए; अन्यथा मात्र व्यवहारभक्तिरूप शुभभाव तो पापानुबन्धी पुण्य का कारण है। __ हे भगवान! आपकी स्तुति से, भक्ति से, नमस्कार से, ध्यान से जीवों को इच्छित फल की प्राप्ति होती है; अत: मैं हमेशा आपकी भक्ति करता हूँ, ध्यान करता हूँ, नमस्कार करता हूँ क्योंकि मुझे किसी भी प्रकार से अन्तर कारणपरमात्मा में एकाग्र होकर श्रद्धा-ज्ञान एवं चारित्र प्रगट करना है, जिससे मोक्ष की अर्थात् मेरे द्वारा इच्छित फल की प्राप्ति होती है।

श्रद्धा, ज्ञान एवं स्थिरता के अतिरिक्त अन्य किसी भी मार्ग से मोक्षदशा की उपलब्धि नहीं हो सकती; अत: किसी भी प्रकार इस मार्ग पर चलकर मुझे मोक्षफल प्राप्त करना है।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-121


काव्य : 44

अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र-
पाठीनपीठ-भयदोल्वणवाडवाग्नौ।
रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा
स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति॥४४॥

वह समुद्र कि जिसमें होवे, मच्छ मगर एवं घड़ियाल।
तूफाँ लेकर उठती होंवे, भयकारी लहरें उत्ताल॥
भंवर-चक्र में फंसी हुई हो, बीचों बीच अगर जल-यान।
छुटकारा पा जाते दुःख से, करनेवाले तेरा ध्यान॥४४॥

काव्य : 44 पर प्रवचन

इस श्लोक का नाम 'जलविपत्तिनाशक' अथवा समुद्रभयनिवारक' स्तुति है।

भयंकर मगर-मच्छ, जल घोड़ा आदि क्रूर जलचर प्राणी, बड़े-बड़े स्टीमर / जहाज भी जिसके मुख में चले जाएँ - ऐसे बड़े भीमकाय मच्छ के उछाले से जो क्षुब्ध-डाँवाडोल हो रहा है – ऐसा समुद्र, और फिर समुद्र के बीच महा वड़वानल अग्नि फटी हो – उस समुद्र के बीच उछलती तूफानी लहरों पर डगमगाती नौका में बैठा हुआ पुरुष भी, हे जिनेन्द्र ! आपका स्मरण करता है, वहाँ वह त्रासरहित होकर उस समुद्र को पार करता है। अहा! आपके गुणों के चिन्तवन से तो भवसमुद्र का भी पार पाया जा सकता है, तब दूसरे समुद्र की क्या बात ! तूफानी भवसमुद्र के बीच भी, जिसके अन्तर में जिनस्वभाव का चिन्तवन है, वह निर्भयरूप से संसारसमुद्र को पार करता है।

एक श्रद्धालु-पुण्यवन्त सेठ व्यापार करता था। उसका एक जहाज माल भरकर आ रहा था। परदेश से 100 जहाज आ रहे थे, उसमें एक जहाज सेठ का था। इतने में मुनीमजी समाचार लाये कि सेठजी! जो एक सौ जहाज आ रहे थे, उनमें से मात्र एक जहाज बचा है, शेष निन्यानवें जहाज समुद्र में डूब गये हैं। सेठजी ने रञ्चमात्र घबराये बिना कहा – मुनीमजी! चिन्ता मत करो; जाओ, जाँच करो... जो एक जहाज बचा है, वह अपना ही होगा। मुझे अपने पुण्य का विश्वास है। मेरा जहाज, समुद्र में नहीं डूबा होगा। मुनीमजी के जाँच करने पर जो एक जहाज बचा था, वह सेठजी का ही था।

उसी प्रकार यहाँ सम्यग्दृष्टि-धर्मात्मा को, भगवान के भक्त को जिनमार्ग का और परमात्मस्वभाव का विश्वास है कि मेरा जहाज, अर्थात् मेरा आत्मा, संसाररूपी समुद्र में नहीं डूबेगा। संसार में तिरनेवाले जीव थोड़े हैं, उनमें मैं हूँ। संसाररूपी समुद्र में पुण्य-पाप के अनेक तूफान हैं उनकी लहरों के बीच भी मेरा आत्मा, मोक्ष को साधने के मार्ग में ही है; इस प्रकार अपने परमात्मस्वभाव का विश्वास और जिनमार्ग की भक्ति, धर्मी जीव को क्षणमात्र भी नहीं छूटती; वह निर्भयरूप से भवसमुद्र से तिर जाता है। जिनदेव की भक्ति, भवसमुद्र को पार करानेवाली नौका है, उसमें बैठकर साधक जीव, मोक्षपुरी में पहुँच जाते हैं।

अहा! जिसके अन्तर में जिनदेव विराजमान हैं, राग से भिन्न शुद्ध चैतन्यतत्त्व जिसके अनुभव में हैं, उसे तो भव का यह बड़ा समुद्र भी, गाय के खुर से छोटे-से डबरे जैसा अल्प हो जाता है; वह खेल-खेल में उसे लाँघ जाता है। धर्मी को विश्वास है कि जिनमार्ग के प्रताप से मैं अब भवसमुद्र को तैरकर मुक्तिपुरी के किनारे पहुँच गया हूँ। इस प्रकार हे देव! आपका भक्त किसी भी प्रकार के त्रासरहित निर्भयपने मोक्ष को साधता है। जिस प्रकार आप भवसागर से तिर गये हो, उसी प्रकार आपका भक्त भी आपको दृष्टि में रखकर भवसमुद्र में तिर जाता है।