भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 47-48 ।।

काव्य : 47

मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि –
संग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम्।
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते॥४७॥

वृषभेश्वर के गुण स्तवन का, करते निशदिन जो चिन्तन।
भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन्॥
कुञ्जर-समर-सिंह-शोक-रुज, अहि दावानल कारागार।
इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार॥४७॥

काव्य : 47 पर प्रवचन

श्लोक 38 से 46 में, जिनस्तवन द्वारा जो भिन्न-भिन्न अनेक भयों के निवारण की बात की थी, उन सब भयों के निवारण की समुच्चय बात इस श्लोक में है।

हे जिनेन्द्रदेव! इस प्रकार जो बुद्धिमान पुरुष आपके स्तवन को पढ़ते हैं, उन्हें मदोन्मत्त हाथी, सिंह, दावालन, सर्प, युद्धभूमि, शत्रुसेना, तूफानी समुद्र, जलोधर रोग या बेड़ी के बन्धन आदि के जो भय हैं, वे स्वयं भयभीत होकर तुरन्त नाश को प्राप्त होते हैं।

अहा! आपके भक्त को तो भय नहीं है, अपितु उल्टे वे सब उपसर्ग और भय, आपकी स्तुति से भयभीत होकर भाग जाते हैं। जिसके अन्तर में परमात्मा विराजते हैं, उसे कैसा भय?

शास्त्रों में कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव, आत्मस्वभाव में निःशङ्ग होता है, इसलिए मरण आदि सात भयों से रहित होता है। इसी प्रकार यहाँ कहते हैं कि हे देव! आपका भक्त, अर्थात् आपके द्वारा कहे हुए वीतराग धर्म का उपासक, सर्व भयों से रहित होता है; भय स्वयं भयभीत होकर उनसे दूर भागते हैं; मृत्यु स्वयं मर जाती है। आत्मा के विशुद्धपरिणाम से पापकर्म दूर हो जाते हैं, इस कारण बाहर में भी उपसर्गजनित भय दूर हो जाते हैं। सर्व भयों से रहित ऐसे निरामय मोक्षपद को वह आनन्द से साधता है।

इस स्तोत्र के प्रारम्भ में कहा था कि जिनदेव को 'सम्यक्' भाव से प्रणाम करता हूँ और यहाँ कहा है कि जो ‘मतिमान' जीव यह स्तवन करते हैं; - मति, अर्थात् सर्वज्ञपरमात्मा की श्रद्धा-पहचानपूर्वक स्तुति की यह बात है। सर्वज्ञ का स्वरूप कैसा है? – उसे पहचानने से विभाव से भिन्न आत्मा लक्ष्य में आता है, इसलिए वह मतिमान जीव, सम्यक्त्वादि प्राप्त करके भवभय से छूट जाता है। जो स्तुति करने में राग का आदर या संयोग की अभिलाषा रखता है, वह मतिमान नहीं है, उसे सच्ची भक्ति करना नहीं आती। मतिमान-सुबुद्धि जीव तो राग की या संयोग की अभिलाषा छोड़कर, वीतरागस्वभाव की भावना से स्तुति करता है, वह धन आदि की भावना नहीं करता। जिसके अन्तर में ऐसी वीतरागता के घोलनरूप जिनस्तुति है, उससे डरकर कर्म दूर भाग जाते हैं, उसे तो कर्मों का डर नहीं है, परन्तु उल्टे कर्म उससे डरकर दूर भागते हैं। देखो, यह धर्मात्मा जिनभक्त की नि:शङ्कता!

भक्तजनों को स्तुति का भाव यथार्थरूप समझकर ऐसी जिनस्तुति प्रतिदिन करना कर्तव्य है। बहुत से जिज्ञासु जीव प्रतिदिन यह 'भक्तामर स्तोत्र' पढ़ते हैं, बोलते हैं परन्तु इसके अध्यात्मभाव बराबर समझ कर स्वाध्याय करे तो वास्तविक लाभ होता है और निर्भयपने मोक्ष की साधना होती है; इसलिए यहाँ इसके अध्यात्मभावों को स्पष्ट किया है, जो जिज्ञासु को बराबर समझने योग्य है।

अब, अन्तिम श्लोक में स्तोत्र का फल बताकर उपसंहार करते हैं।


काव्य : 48

स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां,
भक्त्या मया रूचिरवर्णविचित्रपुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्त्रं,
तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥

हे प्रभु तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य-ललाम।
गूंथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुन्दर अभिराम॥
श्रद्धासहित भविकजन जो भी कण्ठाभरण बनाते हैं।
मानतुङ्ग-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं॥४८॥

काव्य : 48 पर प्रवचन

इस अन्तिम श्लोक में स्तोत्र के उपसंहारपूर्वक उसका उत्तम फल दिखाते हुए, प्रसन्नता से स्तुतिकार कहते हैं कि - अहो जिनेन्द्रदेव! मैंने आपके उत्तम गुणों से इस स्तुतिरूपी माला को गूंथा है, वह विविध प्रकार के सुन्दर शब्द-अलङ्कार तथा दृष्टान्तरूपी रङ्ग-बिरङ्गे सुगन्धित पुष्पों से शोभायमान हैं। आपके गुणों के स्तवनरूप इस माला को (भक्तामर स्तोत्र को) जो कण्ठस्थ करके सदैव हृदय में धारण करते हैं, उन महानुभाव को ('मानतुङ्ग' को अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य को) स्वाधीनरूप से उत्तम मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है। अन्तरङ्ग में तो वे मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं और बाहर से इन्द्रपद-तीर्थङ्करपद आदि पुण्यलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।

भक्त के लिए 'मानतुङ्ग' शब्द का प्रयोग करके इस श्लोक में अलङ्कारिकरूप से स्तुतिकार मुनिराज ने अपना नाम भी गूंथ दिया है।

देखो तो सही, परमात्मा के गुणों के प्रति धर्मात्मा को कैसा उल्लास जागृत होता है ! स्तुतिकार कहते हैं कि हे देव! यह स्तुति मैंने आपके गुणों से गूंथी है। आपके आत्मा में जो अद्भुत चैतन्यबगीचा खिला है, उसमें से गुणरूपी पुष्पों को चुन-चुनकर भक्तिरूपी धागे में पिरोकर, मैंने स्तुतिरूपी माला बनायी है। सर्वज्ञता, अतीन्द्रिय आनन्द, वीतरागता आदि आपके गुणों के प्रति प्रमोद आने से मैंने इस स्तुति की रचना की है। जो भव्य जीव, आपके पवित्र गुणरूपी पुष्पों से गूंथी हुई यह मङ्गल स्तुतिमाला अपने कण्ठ में धारण करेगा, अर्थात् कण्ठस्थ करेगा तथा हृदय में आपके गुणों को धारण करेगा, वह भव्य जीव 'मानतुङ्ग' (श्रेष्ठ मनुष्य) इन्द्रपद, तीर्थङ्करपद आदि उत्तम गुणविभूतिपूर्वक केवलज्ञानादि स्वाधीन मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करेगा। आपका भक्त आपके जैसा परमात्मा बन जाएगा। बाह्य लक्ष्मी-वैभव की तो क्या बात! चैतन्य के वैभवरूप स्वाधीन (अवशा = अन्य के वश नहीं ऐसी-) केवलज्ञानलक्ष्मी भी उत्तम धर्मात्मा के पास दौड़ती आयेगी।

मोक्षलक्ष्मी - केवलज्ञानलक्ष्मी स्वाधीन है, आत्मा में से प्रगट होती है और इन्द्रपद की लक्ष्मी या समवसरण आदि तीर्थङ्करपद की लक्ष्मी, वह तो कर्मों के उदय के आधीन है, वह स्वाधीन नहीं है, आत्मा में से प्रगट नहीं होती; इस प्रकार विवेकपूर्वक यह स्तुति की है।

जैसे, बसन्तऋतु में आम्र के वृक्ष पर 'बौर' देखकर कोयल प्रसन्नता से कूहूक उठती है, वैसे ही आपके गुणों को देखते ही मेरा अन्तर भक्ति से कहक उठा है; इसलिए इस स्तुति की रचना की गयी है। इस स्तोत्र में आपके गुणों की ही महिमा भरी हुई है। उन गुणों की महिमा को जो अपने अन्तर में धारण करते हैं, वे संसार के सर्व विघ्नों से दूर हो जाते हैं... और वे शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार परमात्मस्तुति का फल परमात्मपना है। जो भव्यात्मा, सम्यक्भाव से परमात्मगुणों का स्तवन करेगा, वह स्वयं परमात्मा बन जाएगा।

इस प्रकार मङ्गलपूर्वक ऋषभदेव प्रभु की स्तुतिरूप यह भक्तामर स्तोत्र पूर्ण होता है।