भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 35-36 ।।

काव्य : 35

स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ – सर्व
भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः॥ ३५॥

मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य वचन।
करा रहे हैं 'सत्य धर्म' के, अमर तत्त्व का दिग्दर्शन॥
सुनकर जग के जीव वस्तुतः, कर लेते अपना उद्धार।
इस प्रकार परिवर्तित होते निज-निज भाषा के अनुसार॥ ३५॥

काव्य : 35 पर प्रवचन

हे देव! आपकी दिव्यध्वनि, स्वर्ग तथा अपवर्ग, अर्थात् मुक्ति के मार्ग को बताने में कुशल है, इष्ट है। आपकी दिव्यध्वनि सुनकर मुमुक्षु जीव अपने में मोक्ष का मार्ग देख लेते हैं। वह (दिव्यध्वनि) तीन लोक के जीवों को सत्धर्म का स्वरूप कहने में समर्थ है। आपकी दिव्यध्वनि, सर्व पदार्थों का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट समझाती है और उस ध्वनि में एकसाथ सर्व भाषारूप परिणमने की सामर्थ्य है, इसलिए सब जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं।

सर्वज्ञ भगवान को ही वाणी का ऐसा दिव्य अतिशय होता है। मुख खुले बिना या होंठ हिले बिना उनकी वाणी सर्वाङ्ग से निकलती है; वही 'अनहद' नाद है। संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी -गुजराती या इंग्लिश आदि 700 भाषा के जीव तथा सिंह, गाय, मोर, सर्प आदि तिर्यञ्च भी, सब अपनी-अपनी भाषा में प्रभु का उपदेश सुनते हैं। प्रत्येक को ऐसा लगता है कि प्रभु मेरी भाषा में बोलते हैं।

शास्त्रों में प्रभु की दिव्यध्वनि की बहुत महिमा आयी है। उसमें मुख्य बात यह है कि वह मोक्ष का मार्ग दिखानेवाली है और उस भव में मोक्ष प्राप्त न करे तो स्वर्ग का मार्ग भी दिखाती है। यद्यपि प्रभु की वाणी का प्रयोजन तो वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग साधना ही है, परन्तु मोक्ष को साधते-साधते साधक को कोई रागभाव शेष रह जाए तो वह भगवान की भक्ति करते -करते स्वर्ग में जाता है और वहाँ से निकलकर फिर मोक्ष को साधता है। मोक्ष, वीतरागतापूर्वक ही होता है; राग का कण भी भव का कारण है और मोक्ष को रोकता है; इसलिए भगवान ने कहा है कि –

अतएव करना राग ना, किंचित् कहीं मोक्षार्थियो।
इससे तरे वह भव्य भवसागर, सदा वीतराग हो॥
(- पञ्चास्तिकाय, गाथा-172)

देखो, यह भगवान का उपदेश! दिव्यध्वनि में भगवान ने ऐसा धर्मोपदेश दिया... उसे झेलकर जीव, स्वर्ग-मोक्ष में गये। वाणी में भी आश्चर्य तो देखो कि बोलने पर भी मुख नहीं खोलते। भगवान का उपदेश इच्छारहित निकलता है। प्रतिदिन प्रातः, दोपहर, सायं और रात्रि में छह-छह घड़ी भगवान की वाणी खिरती है। उस वाणी में क्रम नहीं होता।

देखो! भगवान के गमन करने में पैरों का क्रम नहीं होता; भाषा में भी शब्दों का क्रम नहीं होता और ज्ञान में जानने में भी क्रम नहीं होता। भाषा में एकसाथ सभी तत्त्व आते हैं और सर्व जीवों का समाधान हो जाता है। अहो देव! ऐसी महिमावन्त वाणी आपके अतिरिक्त अन्य किसे होती है ? उसे झेलकर अनेक जीव तत्क्षण अन्तर्मुख होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्राप्त कर लेते हैं।

अहो! इन्द्र और मुनिवर भी जिसे सुनते ही एकाग्रचित्त हो जाएँ, उस वाणी की मधुरता का क्या कहना? 'वचनामृत वीतराग के परम शान्तरस मूल' – प्रभु की वाणी में वीतरागी अमृत झरता है, उसका रसपान भवरोग को मिटानेवाला है। 'कल्याण मन्दिर' स्तोत्र में कहते हैं कि

तेरी गिरा अमृत है यह जो कहाता,
है योग्य क्योंकि हृदयोदधि से उठी है।
पीके तथा मद भरे जन भी उसे हैं,
होते तुरन्त अजरामर सौख्य-धाम॥
(- कल्याणमन्दिर स्तोत्र - 21)

लोक में कहावत है कि समुद्र का मन्थन करते हुए, उसमें से पहले विष और फिर अमृत निकला – ये सब तो काल्पनिक बातें हैं, परन्तु आपके केवलज्ञान से भरपूर गम्भीर समुद्र से निकली हुई वाणी को सत्पुरुष 'अमृत' कहते हैं, वह यथार्थ है, क्योंकि उसका पान करनेवाले भव्यजीव निश्चित ही अमरपद को (स्वर्ग-मोक्ष को) प्राप्त करते हैं। आपकी वाणीरूप श्रुतसमुद्र का मन्थन करने से उसमें से अकेला अमृत, अर्थात् मात्र वीतरागता ही निकलती है।

वाह रे वाह जिनवाणी! तुम तो जगत् के भव्य जीवों की माता हो!! ॐ (ओम्कार) यह, जिनवाणी का प्रतीक है। भगवान कोई 'ओ...म..., ओ...म...' ऐसी अक्षररूप भाषा नहीं बोलते; भगवान की दिव्यध्वनि तो निरक्षरी है, उसकी ॐ - ऐसे चिह्न से पहचान कराते हैं।

गोम्मटसार में कहा है कि भगवान ने केवलज्ञान में जो जाना, वाणी में उसका अनन्तवाँ भाग आता है; वाणी में जो आया, उसका अनन्तवाँ भाग गणधरदेव ने श्रुतज्ञान में झेला और गणधरदेव ने जो झेला, उसका अनन्तवाँ भाग बारह अङ्ग -शास्त्ररूप में रचित हो सका। इसके द्वारा सर्वज्ञदेव के ज्ञान की और उनकी वाणी की परम गम्भीरता का ख्याल आयेगा।

आज वह ज्ञानामृत विद्यमान है; भले थोड़ा है तो भी अमृत के सागर में से भरे हुए एक कलश की भाँति, वह भव्य जीवों को मोक्षमार्ग दिखाकर, उसकी तृषा (प्यास) को बुझाता है। श्रीगुरुओं के प्रताप से आज भी मोक्षमार्ग जीवन्त है।

(पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिका का आधार देकर कहानगुरु कहते हैं) - अहो ऋषभदेव प्रभो! आपने तो अन्तर का चैतन्य खजाना दिया और दिव्यध्वनि के द्वारा जगत् के समक्ष उस खजाने को खुल्ला / परिस्पष्ट कर दिया। अब, ऐसा कौन बुद्धिमान है कि जो इस खजाने को ग्रहण न करेगा; अर्थात्, बुद्धिमान भव्यजीव तो आपसे चैतन्य खजाने की बात सुनते ही, उसके समक्ष राजपाट को अत्यन्त तुच्छ समझकर, उसे छोड़कर चैतन्यरूपी खजाना लेने के लिए वन में गमन कर गये और मनिदीक्षा अङ्गीकार करके केवलज्ञानरूपी खजाना प्राप्त कर लिया। धर्मी सम्यग्दृष्टि जीवों ने भी अपने खजाने के दर्शन कर लिये हैं; इस प्रकार हे जिनदेव! आप हमारे धर्म के दातार हो... आपकी दिव्यध्वनि का उपदेश चैतन्यखजाना बताकर, हमें मोक्षवैभव की प्राप्ति कराता है।

(इस प्रकार प्रभु के आठवें प्रातिहार्यरूप दिव्यध्वनि का वर्णन किया।)


काव्य : 36

उन्निन्द्रहे मनवपङ्कजपुञ्जकान्ति,
पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्त:
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति॥ ३६॥

जगमगात नख जिसमें शोभे, जैसे नभ में चन्द्र किरण।
विकसित नूतन सरसीरूहसम, हे प्रभु तेरे विमल चरण॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्णकमल सुरदिव्य ललाम।
अभिनन्दन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम॥ ३६॥

काव्य : 36 पर प्रवचन

श्री तीर्थङ्कर भगवान के आठ अतिशय - अशोकवृक्ष, सिंहासन, चँवर, छत्र, देवदुन्दुभी, पुष्पवृष्टि, भामण्डल और दिव्यध्वनि का वर्णन किया। अब, तदुपरान्त भगवान के अन्य कितने ही अतिशयों का वर्णन करके स्तुति करते हैं । इस श्लोक में, प्रभु के श्रीविहार के समय आकाश में पद्म-कमल की रचना होती है, उसका वर्णन है।

हे जिनेन्द्रदेव! आपके चरण, नवीन विकसित स्वर्णकमलवत् कान्तिवाले हैं, उनके नखों में से मनोहर किरणों की प्रभा चारो और प्रसारित होती है। आप जहाँ विहार करते हो, वहाँ आपके पैरों के नीचे 225 (15x15) स्वर्ण कमलों की अद्भुत रचना होती है। अहो देव! जहाँ आपके चरण नीचे पडते हैं. वहाँ आकश में पुष्प की रचना होती है। सामान्य लोग कहते हैं कि आकाश में फूल नहीं उगते हैं, परन्तु प्रभु! आप विहार करो, वहाँ तो आकाश में आपके पैरों के नीचे दैवीय कमलों की रचना होती है; मानो आकाश में अद्भुत बगीचा विकसित हुआ हो।

आपकी आत्मा में तो अनन्त गुणों का बगीचा खिला ही है और बाहर में जहाँ आपके चरण पड़ें, वहाँ भी दैवीय कमलों का बगीचा खिल उठा है। भव्य जीवों का हृदयकमल भी खिल गया है। जिसके अन्तर में आपके चरण वसे हों, उस भव्यजीव में धर्म का बगीचा खिल उठा है।

देखो, यह भक्ति! भगवान के चरण के तलवे कमलवत् कोमल और अत्यन्त सुशोभित होते हैं। जब प्रभु विहार करते हैं, तब उनके साधारण मनुष्यों की भाँति कदमों का क्रम नहीं होता; तथा प्रभु, धरती पर चरण नहीं रखते। आकाशगामी प्रभु का श्रीविहार अद्भुत है – 'बिना डग भरे, अन्तरीक्ष जाकी चाल है।' प्रभु का केवलज्ञान अक्रम से जाननेवाला है, उसमें क्रम नहीं होता। प्रभु की वाणी अक्रमरूप है, उसमें अक्षरों का क्रम नहीं होता और प्रभु का बिहार भी कदमों के क्रम के बिना होता है, वे एक के बाद एक कदम नहीं रखते। जैसे, पक्षी को आकाश में गमन करने के लिए डग नहीं भरने पड़ते; वैसे ही आकाशगामी भगवान के दोनों पैर एक साथ रहकर आकाशगमन होता है। आश्चर्यकारी है भगवान की बात! अरे, ऋद्धिधारी मुनिराज भी कदम रखे बिना ही आकाश में विहार कर सकते हैं तो तीर्थङ्कर परमात्मा की क्या बात!

प्रभो! अन्तर में आपके गुणों का बगीचा खिला है, वहाँ बाहर में भी फूल का बगीचा खिल उठा है...चारों ओर सुगन्ध फैल गयी है। प्रभो! इस भक्ति द्वारा हमारे हृदय में आपके गुणस्वभाव की सुगन्ध फैल गयी है, उसमें अब विभाव की दुर्गन्ध प्रवेश नहीं कर सकती है।

आपके चरणों के नीचे खिले हुए कमल देखकर मैं तो यह समझता हूँ कि हे देव! जिस भक्त के हृदय में आपके चरण विराजमान हैं, उसके अन्तर में गुण का बगीचा खिल जाता है। प्रभु के श्रीविहार के समय आकाश में स्वर्ण कमलों की रचना – यह कोई कल्पना नहीं है, परन्तु देव उसकी रचना करते हैं। भक्त की भक्ति और भगवान की महिमा, दोनों आश्चर्यकारी हैं। वे 225 स्वर्णकमल अचित्त होते हैं, उन अचित्त पुष्पों को भी प्रभु स्पर्श नहीं करते, अलिप्त रहते हैं, तब सचित्त पुष्प की तो बात ही क्या?

अहो! प्रभु को ऊपर से रत्न बरसते हैं और चरणों के नीचे पुष्प बिछे होते हैं। हे देव! ऐसा बाह्य प्रभाव भी आपके अतिरिक्त किसी अन्य के नहीं होता। आपके अन्तर का केवलज्ञान वैभव तो कोई अचिन्त्य और अतीन्द्रिय है। ऐसे दिव्य वैभव के बीच भी पूर्ण वीतरागता तो आपको ही सुशोभित होती है। जैसे, अभी भी बड़े मनुष्य का स्वागत करने के लिए मखमल का लाल गलीचा आदि बिछाते हैं; वैसे ही प्रभु के विहार में देव, दैवीय सुवर्ण कमल बिछाकर प्रभु का सम्मान करते हैं; तीर्थङ्कर प्रभु के पुण्य का ऐसा ही अतिशय है कि विबुद्ध देव ऐसी रचना करते हैं।

जैसे, मोक्षदशा को प्राप्त सिद्ध भगवान, संसार में वापस नहीं आते; वैसे ही केवलज्ञान को प्राप्त गगनविहारी हुए अरहन्त भगवान भी धरती पर वापस नहीं आते; केवली प्रभु का विहार आकाश में ही होता है, समवसरण भी जमीन से ऊपर अद्धर होता है। ऊपर गया आत्मा नीचे क्यों आयेगा? इसी प्रकार हे देव! हमने आपको अन्तर में वसाया है, इसलिए हमारा आत्मा भी अब ऊर्ध्वगामी ही है, हम भी अब उत्कृष्ट अर्हन्तपद तथा सिद्धपद को प्राप्त करेंगे; फिर से संसार में पैर नहीं रखेंगे। इस प्रकार स्वयं के आत्मा को मिलाकर सम्यक् भक्ति की है।

देखो, सर्वज्ञ परमात्मा के गुणों की भक्ति ! आकाश में पुष्प -रचना के वर्णन द्वारा प्रभु के गुणों का स्तवन किया।..