भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 7-8 ।।

काव्य : 7

त्वत्संस्तवेन भवसन्तति - सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर – भाजाम्।
आक्रान्त-लोकमलि-नीलमशेष माशु,
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्॥७॥

जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप।
पल भर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।
प्रातः रवि की उग्र किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त॥७॥

काव्य : 7 पर प्रवचन

हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हो, मुक्त हो; आपका स्वरूप लक्ष्य में लेकर जहाँ हम आपका सम्यक् स्तवन करते हैं, वहाँ अनेक भव से बँधे हुए पाप एक क्षणमात्र में क्षय हो जाते हैं। हमारा अज्ञान और भवबन्धन छूट जाता है। आप सर्वज्ञ हैं तो आपकी सम्यक् स्तुति करनेवाले को अज्ञान कैसे रहेगा? आप मुक्त हैं तो आपकी उपासना करनेवाले को भवबन्धन कैसे रहेगा? जैसे सम्पूर्ण लोक को आच्छादित कर देनेवाला दीर्घ काल का घोर अन्धकार भी, सूर्य-किरण के उदय होने से शीघ्र ही दूर हो जाता है; वैसे ही हे सर्वज्ञ-सूर्य! आपको लक्ष्य में लेने से हमारे सम्यक् मति-श्रुतज्ञान की किरण प्रगट हो जाती है और मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है; उसके साथ पूर्व में बँधे हुए दीर्घ काल के पापकर्म भी क्षण में दूर हो जाते हैं।

प्रभो! आप तो त्रिलोक को प्रकाशित करनेवाले परम तेजस्वी केवलज्ञान सूर्य हो और स्तुति द्वारा आपके सम्पर्क से हमारी ज्ञानचेतना भी सम्यक्त्वरूपी तेज से ऐसे चमक उठी है कि उसने घोर मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को क्षणमात्र में नष्ट कर दिया है।

प्रभो! जहाँ आपके केवलज्ञान को अपने हृदय में लेते हैं, वहाँ रागरहित हमारा ज्ञायकस्वभाव लक्ष्य में आता है, उसके लक्ष्य से हमारा परिणमन मोक्ष की ओर होता है और भवबन्धन टूट जाते हैं। अहा! जिसने सर्वज्ञस्वभाव का निर्णय किया, उसे तो मुक्ति का दरवाजा खुल गया है।

बहुत से जीव यह सोचकर उदास हो जाते हैं कि अरे रे! पूर्व में अनन्त काल में बँधे हुए भयंकर पाप किस प्रकार छूटेंगे?

उनसे कहते हैं - अरे भाई! अरिहन्त भगवन्तों को जैसी सर्वज्ञता प्रगट हुई है – ऐसा ही तेरा ज्ञानस्वभाव है। ऐसा एक बार लक्ष्य में लेकर उसकी स्तुति, आदर, गुणगान और भावना कर, तो पूर्व में बँधे हुए सभी पापकर्म एक क्षण में छूट जाएँगे, तेरा मोक्षमार्ग खुल जाएगा।

देखो, अनन्त काल के कर्म तो किसी जीव को होते नहीं, असंख्य वर्षों के होते हैं। चाहे जैसे कर्म बँधे हों, वे असंख्य वर्ष में खिर ही जाते हैं; तदुपरान्त, जैसे जगमगाता सूर्य उदित होता है, वहाँ अन्धकार नहीं रहता; वैसे ही ज्ञानस्वभाव की भावना हो, वहाँ मिथ्यात्वादि पापकर्म नहीं रह सकते। अहा! जिसके हृदय में भगवान विराजमान हैं, उसे भव का भय क्या? और पाप का बन्धन कैसा?

देखो, यह सच्ची जिनभक्ति की महिमा और उसका फल !

भाई! यदि तू भव से भयभीत है तो भव को जीतनेवाले जिनवरों की भक्ति कर। भगवती आराधना में कहते हैं कि मात्र जिनभक्ति, दुर्गति का निवारण करने तथा पुण्य की प्राप्ति और सिद्धिपर्यन्त सुखों की परम्परा देने में समर्थ है। (गाथा -752) जिसके अन्तर में पहचानपूर्वक दृढ़ जिनभक्ति है, उसे संसार में भय नहीं होता। [जस्स दढा जिणभक्ति तस्स णत्थि भयं संसारे ] ( गाथा - 751) वह तो अल्प काल में भवबन्धन को तोड़कर मोक्ष की प्राप्ति कर लेगा।

भरत चक्रवर्ती और रामचन्द्रजी जैसे महात्मा भी जिनभक्ति करते थे, उसका अद्भुत वर्णन पुराणों में आता है। जैसे, अमावश्या की सम्पूर्ण रात्रि का / 12 घण्टे का अन्धकार एकत्रित हुआ हो, उसे दूर भगाने में 12 घण्टे नहीं लगते; प्रात:काल में प्रकाश की एक किरण के आते ही वह क्षणमात्र में दूर भाग जाता है; वैसे ही बहुत समय के; अर्थात्, असंख्यात वर्षों के एकत्रित हुए पापकर्मों को दूर करने में असंख्य वर्ष नहीं लगते; जिनदेव को पहचानकर, उनके धर्म की उपासना करने से सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश का उदय होते ही अज्ञानरूपी अन्धकार और पापकर्म एक क्षण में विनष्ट हो जाते हैं।

हे देव! आपके गुण में हमारा चित्त लगते ही वह पापरहित विशुद्ध हो जाता है; इसलिए मेरा क्या होगा? मैं कर्मों से कब छूढूँगा?' – ऐसी आशंका आपके भक्त को नहीं होती। यहाँ भक्ति में अकेले राग की बात नहीं है, यह तो सर्वज्ञस्वभाव की दृष्टिपूर्वक की भक्ति है। 'मोह मेरा कुछ नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ' – ऐसे लक्ष्य द्वारा धर्मात्मा, समस्त कर्मों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करता है। अहो देव! आपकी भक्ति से जहाँ ऐसा स्वानुभवरूपी सूर्य उदित हआ, वहाँ अब हमारे अन्तर में अज्ञानरूपी अन्धकार कैसे रहेगा? भवरहित स्वभाव को भूलकर, अज्ञान से अनन्त भव हो गये, परन्तु अब जिनदेव के शासन में ऐसी भवरहित ज्ञानस्वभाव की भावना में आया, वहाँ अनन्त भव का नाश होकर मोक्ष की साधना प्रारम्भ हो गयी है।

इस भक्ति में मात्र ‘भक्तामर स्तोत्र' के अकेले शब्द बोल जाए अथवा सरस राग-रागिनी से गाये, उसकी बात नहीं है; जिनकी यह स्तुति है – जिसने ऐसे सर्वज्ञ भगवान को पहचान कर और उनके समान शुद्धात्मा को लक्ष्य में लेकर भक्ति की है, उसे संसार और मोक्ष की बीच दरार पड़ गयी है, वह मोक्ष का साधक हुआ और भव से छूट गया है।

अहा! सर्वज्ञ-परमात्मा जिसके हृदय में विराजमान हैं, वहाँ अब संसार कैसा? अज्ञानी को कभी ऐसी भक्ति का सच्चा उल्लास नहीं आता। यदि एक बार सर्वज्ञ के प्रति हृदय से उल्लसित हो जाए तो मोक्षमार्ग हाथ में आ जाए और निहाल हो जाए।

हे देव! आपके दिव्यगुणों को देखते ही हमारा आत्मा उल्लसित हो जाता है, हमारी दृष्टि खुल जाती है और अज्ञान दूर हो जाता है –

कोटि बर्ष का स्वप्न भी, जागृत हो शम जाय।
त्यों विभाव अनादि का, ज्ञान होय क्षय पाय॥

यह स्तुतिकार मानतुङ्गस्वामी तो मुनिराज हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को तथा सम्यग्दर्शन होने के पहले भी सुपात्र जीव को परमात्मा के प्रति भक्ति का ऐसा भाव आये बिना नहीं रहता। प्रभु के प्रति भक्तिभाव जागृत न हो और विषयों के प्रति प्रेम बढ़ जाए तो वह जीव अपात्र है; उसे स्वच्छन्दी, कुल्टा जैसा कहा है। धर्म का प्रेमी जीव अपने तन-मन-धन और ज्ञान की शक्ति का सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की प्रभावना में प्रयोग करता है।

पहले अज्ञानदशा में कुदेवादि के प्रति जैसा प्रेम था, उसकी अपेक्षा अब ज्ञानदशा में देव-गुरु-धर्म की महिमा की सच्ची पहचान होते ही धर्मी को भक्ति का उल्लास कोई अलग प्रकार का होता है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान का भक्त, संसार से विरक्त होकर, ज्ञानस्वभाव के सन्मुख हुआ है। अब, वह अल्प काल में राग और कर्मों को क्षय करके / नष्ट करके मुक्ति को प्राप्त करेगा।

भक्ति की मूसलाधार वर्षा देखो! इस विषापहार स्तोत्र में ऋषभदेव भगवान की स्तुति चल रही है। सचमुच तो यह भगवान आत्मा की ही स्तुति है। व्यवहारभक्ति के पीछे निश्चयभक्ति परिणमनरूप से होने पर ही भगवान की उस स्तुति या भक्ति को व्यवहार कहा जा सकता है।

जिसे भगवान आत्मा की दैवी शक्तियों के श्रद्धान-ज्ञानरूप परिणमन एवं साथ ही भगवान की भक्ति का विकल्प भी प्रवर्तित है, उसके अन्तरङ्ग शुद्धि की अभिवृद्धि के साथ-साथ लोकोत्तर पुण्य भी बँधता है - ऐसी निश्चयपूर्वक व्यवहारभक्ति की यहाँ बात है, जो कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा के ही सम्यक्रूप से होती है।

अहो! धनञ्जय कवि तो भक्ति की मूसलाधार वर्षा करते हैं, वे तो भक्ति में ही तल्लीन हैं।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-18


काव्य : 8

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,
मारभ्यते तनु-धियाऽपि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु,
मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः॥८॥

मैं मतिहीन-दीन प्रभु तेरी, शुरु करूँ स्तुति अघहान।
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान॥
जैसे कमल पत्र पर जल-कण, मोती कैसे आभावान।
दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में हे भगवान॥८॥

काव्य - 8 पर प्रवचन

हे देव! इस प्रकार आपकी स्तुति की अपार महिमा जानकर, मैं अल्प बुद्धि होने पर भी आपका स्तवन प्रारम्भ करता हूँ। प्रभो! आपके गुणों के प्रभाव के कारण यह स्तवन (भक्तामर स्तोत्र) सज्जन पुरुषों के चित्त को हर लेगा; इस स्तवन में आपके गुणों की महिमा देखकर सत्पुरुषों का चित्त प्रसन्न होगा। जैसे, खिले हुए कमल के ऊपर ओस की बूंदे भी मोती की चमक समान शोभायमान होती हैं; वैसे ही इस स्तोत्र के शब्दों के वाच्यरूप आपके अचिन्त्य गुणों का प्रभाव होने से यह भी सज्जन पुरुषों के कण्ठ में मोती की माला के समान शोभायमान होता है। आप महान हो, आपके गुण महान हैं; इसलिए आपके गुणों का वाचक यह स्तोत्र भी अत्यन्त शोभा को प्राप्त होगा और सज्जनों के मन को हर लेगा।

प्रभो! भले ही मैं मन्दबुद्धि हूँ, परन्तु जिनका स्तवन करता हूँ – ऐसे आप तो केवलज्ञान के समुद्र हो। मेरे शब्द नहीं, अपितु आपके गुण, सत्पुरुष के चित्त को हर लेते हैं। इस स्तोत्र में आपकी सर्वज्ञता की महिमा / गुणगान सुनकर मुमुक्षु जीव प्रसन्न होंगे कि वाह ! प्रभु की कैसी भक्ति की गयी है!! इस प्रकार स्तुति द्वारा आपके गुणों में मुमुक्षु का चित्त स्थिर हो जाएगा।

मेरा साधकज्ञान अल्प होने पर भी, उसकी सन्धि पूर्ण साध्य ऐसे सर्वज्ञास्वभाव के साथ है; इससे वह ज्ञान, मोक्षमार्ग के रूप में शोभायमान हो रहा है। पानी की बूंद, सामान्य जमीन पर पड़ी तो उसका कोई मूल्य नहीं हैं परन्तु कमल के फूल की पंखुड़ी पर लगी पानी की बूंद (उस कमल के अलिप्त स्वभाव के कारण) उस पर सूर्य की किरण पड़ते ही मोती की भाँति जगमगा उठती है। इसी प्रकार आपके गुणों के प्रति लगी मेरी भक्ति की बिन्द सच्चे मोती की भाँति शोभायमान होती है। जगत् में समान्य शब्दों की कोई कीमत नहीं है परन्तु जिसके साथ वाच्यरूप आपके अचिन्त्य गुणों की महिमा होती है, वे शब्द, सज्जनों के चित्त को प्रिय लगते हैं और जिनवाणी की भाँति शोभायमान होते हैं तथा उन्हें लक्ष्य में लेनेवाली ज्ञानबिन्दु भी मोक्षमार्ग में सच्चे रत्न के समान शोभायमान हो जाती है।

देखो न, यह भक्तामर स्तोत्र कैसा प्रसिद्ध शोभायमान है ! यह किसी बाहर के प्रभाव के कारण नहीं, अपितु इसमें परमात्मा के गुणों का अद्भुत वर्णन भरा हुआ है; इसलिए इसकी शोभा है। प्रभो ! मैं (स्ततिकार) भले ही छोटा हूँ, परन्तु स्तुति करने योग्य आप तो तीन लोक में महान हो; इसलिए आपकी स्तुति की महिमा तीन लोक में व्याप्त हो जाती है। ऊर्ध्वलोक के देवेन्द्र भी भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करते हैं; मध्यलोक में मुनीन्द्र भी आपकी स्तुति करते हैं और अधोलोक में धरणेन्द्र आदि भी आपकी स्तुति-गुणगान करते हैं।

अहा! आप तो अनन्त गुणों की प्रभुता से शोभायमान हो और हमारे अन्तर में उछलती यह भक्ति भी मोती की माला के समान शोभायमान हो जाएगी, इससे हमारे परिणाम उज्ज्वल होंगे।

धर्मात्मा का हृदय, परमात्मा के गुणों के प्रति आनन्द से उल्लसित होता है। प्रभो ! कुकवि जो विषय-कषायों की पोषक काव्य रचना करते हैं, वह शोभा को प्राप्त नहीं होती; वह तो जीवों का अहित करनेवाली है परन्तु आपके वीतरागी गुणों का स्तवन तो विषय-कषायों से छुड़ाकर वीतरागता की भावना जागृत करता है; इसलिए वह सुन्दररूप से शोभा को प्राप्त होता है, उसे सुनकर सज्जनों का चित्त प्रसन्न होता है।

परमात्मपद का गुणगान गाते और सुनते ही साधक सन्तों को प्रमोद जागृत होता है और उसके द्वारा अपने चित्त को परमात्मगुणों की भावना में जोड़कर सम्यक्त्वादि मोती से उनका आत्मा शोभायमान हो उठता है – ऐसे अध्यात्म भाव इस वीतरागी स्तवन में भरे हुए हैं।

चैतन्य की सँभाल हे भगवान ! जैसे सूर्य के अभाव में दीपक से भी प्रकाश होता है; उसी प्रकार आप तो अन्तर में परिपूर्णरूप से विराजमान हैं - ऐसी परिपूर्णता तो वर्तमान में प्रगट नहीं हो सकती; अत: अभी तो हम अल्पज्ञान द्वारा ही चैतन्य की सँभाल करते हैं।

-विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-9