भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 23-24 ।।

काव्य : 23

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्य वर्णममलं तमसः पुरस्तात्।
त्वामेव सम्य गुपलभ्य जयन्ति मृत्यु,
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पंथाः॥२३॥

तुम को परम पुरुष मुनि माने, विमल वर्ण रवि तमहारी।
तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी॥
तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर-पथ बतलाता है।
किन्तु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है॥२३॥

काव्य : 23 पर प्रवचन

हे देव! मुनि भी आपको ही परमपुरुष मानते हैं; और सूर्य जैसे तेजस्वी (सुवर्णवर्ण) भी आप ही हो, क्योंकि अज्ञान अन्धकार से रहित हो; आप रागादि दोषों की मलिनता से रहित अमल-निर्मल हो। भव्य जीव, सम्यक्रूप से आपको उपलब्ध करके मृत्यु को जीतते हैं; इसलिए मृत्युञ्जय भी आप ही हो और हे मुनीन्द्र ! आप ही शिव हो, आपने ही शिवपद की प्राप्ति का पन्थ / मोक्षमार्ग दिखाया है, आपसे अन्य कोई शिवमार्ग नहीं है।

देखो, एक तीर्थङ्कर के गुण की स्तुति में सभी तीर्थङ्कर -केवली-भगवन्तों की स्तुति आ जाती है क्योंकि गण में सभी भगवन्त समान हैं। देह आदि भले ही बड़े-छोटे होते हों परन्तु केवलज्ञानादि आत्मगुण सभी के एक-समान हैं; उन गुणों के द्वारा भगवान के स्वरूप की सच्ची पहचान और स्तुति होती है।

परमपुरुष : हे ऋषभदेव! इस युग में सबसे पहले परमपद को साधनेवाले और भव्य जीवों को मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले परमपुरुष आप ही हो। परमपद की साध करके परमात्मा हुए, इसलिए पुरुषों में आप श्रेष्ठ हो। ज्ञान-आनन्द आदि अनन्त उत्कृष्ट गुणरूपी जो चैतन्यपुर, आत्मा का परमस्वरूप, उसमें रमण करनेवाले.... लीन रहनेवाले होने से आप परमपुरुष हो। केवलज्ञान का उत्कृष्ट पुरुषार्थ करनेवाले परमपुरुष आप ही हो।

आदित्यवर्ण : प्रभो ! आपका ज्ञान, सूर्य के समान तेजस्वी है और आपका शरीर भी सुवर्णवर्ण है; आपके शरीर की दिव्यप्रभा बाहर के अन्धकार को दूर करती हैं और आपका चैतन्य तेज, अज्ञान-अन्धकार को दूर करता है। जहाँ आप विराजमान हो, वहाँ अन्दर-बाहर अन्धकार नहीं होता; इस प्रकार आप 'सूर्य' की अपेक्षा भी विशेष 'कीर्ति' वाले हो।

अमल : कषायरूप मोह / मेल से रहित होने से आप अमल हो, निर्मल हो; आपका शरीर भी सर्व प्रकार की मलिनता से रहित पवित्र है। यहाँ तो आत्मा की मुख्य बात है।

मृत्युञ्जय : हे देव! मोह को सर्वथा नष्ट करके आपने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। आप जन्म-मरण से रहित हो गये हो और सम्यक्रूप से आपको उपलब्ध करके, आपके समान सम्यक् आत्मस्वरूप को पहचानकर और प्रगट करके हमारे जैसे भव्य जीव भी मृत्यु को जीतकर जन्म-मरण से रहित हो जाते हैं; इसलिए आप मृत्यु के विजेता 'मृत्युञ्जय' हो।

अहा! जो अन्तर्मुख होकर आपके सम्यक स्वरूप का अनुभव करता है, उसे जन्म-मरण का चक्कर नहीं रहता। आपके स्वरूप की सच्ची पहचान करे तो राग से भिन्न उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा अनुभव में आता है और सम्यग्दर्शन होता है; फिर उसी स्वरूप में एकाग्र होकर राग-द्वेष दूर करके शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है; जिससे परमात्मदशा प्रगट होती है। अब, उसके भव नहीं रहते, मृत्यु नहीं रहती; इसलिए वह मृत्युञ्जय हुआ। इस प्रकार हे नाथ! आप स्वयं तो मृत्युञ्जय हो और आपकी सम्यक् उपलब्धि करनेवाले जीव भी मृत्युञ्जय हो जाते हैं।

हे मुनीन्द्र ! हे मुनियों के नाथ! आप स्वयं शिव, अर्थात्, कल्याणस्वरूप हो, और आप ही हमें शिवपन्थ (मोक्षमार्ग) दिखानेवाले हो। आपके अतिरिक्त अन्य कोई शिवपद की प्राप्ति का पन्थ नहीं है; आप ही मोक्ष और मोक्षपन्थ हो। आपके सेवन से ही मनिजन, मोक्षमार्ग को साधते हैं। मोक्षमार्ग पर चलनेवाले मोक्षार्थी जीवों के आप नायक हो, इसलिए मोक्षमार्ग के नेता हो। आपके वीतरागी शासन के अतिरिक्त अन्य कहीं मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसी स्तुति द्वारा मुनिराज मानतुङ्गस्वामी प्रसिद्ध करते हैं कि हे भव्य जीवो! मोक्ष के लिए तुम ऐसे परमात्मा का सेवन करो, उनके द्वारा उपदेशित मोक्षमार्ग का सेवन करो; मोक्ष के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

जिनेन्द्र परमात्मा, धर्मात्मा जीवों के नाथ हैं। समकिती जीव ही भगवान को नाथ के रूप में स्वीकार करते हैं। वे ही धर्म के रक्षक और पोषक हैं। जिन्हें राग की रुचि है – ऐसे अज्ञानी जीव, भगवान को नाथ स्वीकार नहीं करते, क्योंकि भगवान कोई राग के रक्षक या पोषक नहीं है। भगवान के द्वारा बताया गया मोक्षमार्ग तो राग का नाशक और धर्म का रक्षक है; इसलिए धर्मात्मा जीवों के हृदय में ही परमात्मा विराजते हैं, राग में भगवान नहीं वसते।

अहा! इस प्रकार भगवान का स्वरूप पहचानकर, उनकी उपासना करनेवाले के भव का अन्त आ जाता है। यही मृत्यु को जीतने के लिए 'मृत्युञ्जय मन्त्र' है और यही मोक्षमार्ग है। मरण से बचने का और मोक्ष की प्राप्ति का दूसरा उपाय जगत् में नहीं है।


काव्य : 24

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्यमाद्यं,
ब्रह्माणमीश्वरमनन्त-मनङ्ग-केतुम्।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेकमेकं,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥

तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश।
ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश।
इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश॥२४॥

काव्य : 24 पर प्रवचन

हे देव! आप अव्यय, विभु और अचिन्त्य हो; संख्यातीत आद्य, ब्रह्मा और ईश्वर हो; आप अनन्त और अनङ्गकेतु हो; योग को जाननेवाले आप ही योगीश्वर हो; अनेक तथा एक भी आप ही हो; आप ज्ञानस्वरूप और अमल हो – इस प्रकार गुणवाचक नामों से सन्त ज्ञानीजन आपका स्तवन करके, आपके स्वरूप की महिमा प्रसिद्ध करते हैं।

अव्यय : जो ध्रुव मोक्षपद आपने प्राप्त किया है, जो सिद्धदशा उत्पन्न हुई है, उसका अब कभी व्यय नहीं होगा; इसलिए आप अव्यय हो। स्वर्ग के देवों को 'अमर' कहते हैं, वह दीर्घायू के कारण कहते हैं, परन्तु अन्त में तो वे भी वहाँ से च्युत होकर दूसरी गति में अवतरित होते हैं, वे कहीं अव्यय नहीं हैं; इसलिए पुण्य-पदवी अव्यय नहीं है; व्ययरहित सच्चा अमर-ध्रुव रहनेवाला तो केवलज्ञान और सिद्धपद है, उसका व्ययरहित उत्पाद है; वह आत्मा के स्वभाव से हुआ होने से अव्ययरूप है – ध्रुवरूप है। ऐसे सिद्धपद को प्राप्त हुए हे देव! आप ही अव्यय हो। हमें भी ऐसा ही ध्रुवपद साध्य है; इसलिए उसे लक्ष्य में लेकर आपका स्तवन करते हैं।

पुण्य-पाप या उसका फल अध्रुव-नाशवन्त है, वह हमें इष्ट नहीं है। आत्मा के ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से प्राप्त अविनाशी सिद्धपद ही हमें इष्ट है। जो परिभ्रमण करके संसार में अवतार ले, उसे परमात्मा नहीं कहते, वह तो रागी-द्वेषी संसारी है। मोक्ष को प्राप्त परमात्मा, परिभ्रमण करके कभी संसार में अवतरित नहीं होते, हे जिनदेव! ऐसे अव्यय-परमात्मा आप ही हो।

विभु : हे जिनदेव! विभु भी आप ही हो, क्योंकि आप अपने अनन्त स्वधर्मों में तन्मयरूप से व्याप्त रहते हो अथवा केवलज्ञान के बाद जब आपने मोक्ष की तैयारीरूप से समुद्घात (आत्मप्रदेशों का विस्तार) किया, तब एक समय के लिए आपके आत्मप्रदेश सम्पूर्ण लोक में, सर्व क्षेत्र में फैल गये, इस अपेक्षा से आप सर्वव्यापी विभु हो। ऐसा सर्वव्यापीपन केवली भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं होता; जैनधर्म में ही वह होता है। इस प्रकार हे देव! सर्वव्यापी विभु आप ही हो, अन्य कोई आत्मा सर्वव्यापी नहीं है।

ज्ञान की सर्व को जानने की शक्ति आप में विद्यमान है, आपका केवलज्ञान, लोकालोकरूप सर्व ज्ञेयों में व्याप्त है, अर्थात् सर्व को जानता है – इस अपेक्षा भी आप लोकालोक के सर्व ज्ञेयों में व्यापक विभु हो। यह ज्ञान की सर्वशक्ति बताने के लिए निमित्त से कथन है; परमार्थ से सर्वज्ञप्रभु कहीं बाहर में नहीं, अपितु अपने असंख्य प्रदेशों में रहनेवाले अनन्त गुण -पर्यायों में ही सर्वत्र व्याप्तकर रहनेवाले विभु हैं । हे देव! ऐसी विभुता, आप में ही है; और हमारा आत्मा भी हमारे सर्व गुण -पर्यायों में व्यापक है – इस प्रकार आपने हमें हमारा विभुत्व दिखाया है।

समयसार के परिशिष्ट में शुद्ध ज्ञानपरिणमन में रहनेवाली अनन्त शक्तियों में से 47 शक्तियों का अद्भुत वर्णन किया है। उसमें जीवत्त्व, स्वच्छता, प्रभुता, विभुत्व, कर्तृत्व आदि आत्मशक्तियाँ बतायी हैं। उन प्रत्येक गुणवाचक नाम से भगवान आत्मा को पहचान सकते हैं – जैसे कि, हे प्रभो! आप स्वच्छ हो, आपका स्वसंवेदन अत्यन्त स्पष्ट-प्रत्यक्ष है; आप अनन्त निजगुणों में व्यापक विभु हो; आप आत्मिक गुणों से शोभायमान अखण्ड प्रतापवन्त प्रभु हो; आप शुद्ध स्वपरिणाम के कर्ता हो; आप ही उसके साधन (करण) हो; आप अतीन्द्रिय आनन्द के भोक्ता हो; आप रागादि विभाव के अकर्ता-अभोक्ता हो। इस प्रकार अनेक सन्त-विद्वानों ने 1008 गणवाचक नामों से सर्वज्ञ परमात्मा की स्तुति की है और जितने सर्वज्ञ परमात्मा के विशेषण हैं, वे सब इस जीव के स्वभाव में लागू पड़ते हैं; इसलिए सर्वज्ञदेव की स्तुति के बहाने आत्मा का शुद्धस्वभाव लक्ष्य में लेते ही साधकभावरूप प्रारम्भ होता है और उसके बहुमान द्वारा साधकभाव वृद्धिङ्गत होते-होते अन्त में वैसा स्वभाव प्रगट करके आत्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है - ऐसे भाव, सर्वज्ञ की इस स्तुति में भरे हुए हैं। साध्य की स्तुति द्वारा अपने साधकभाव की पुष्टि की है।

प्रश्न : भूतकाल अनादि है, भविष्यकाल अनन्त है, आकाशक्षेत्र अनन्त है; आपने कहा कि विभु - आत्मा 'सर्वज्ञ' है तो वे सर्वज्ञ 'अनादि-अनन्त' को किस प्रकार जानते हैं ? यदि जानते हैं तो उस ज्ञान में उसका अन्तिम छोर आ गया?

उत्तर : हे भाई! सर्वज्ञ की शक्ति कोई अचिन्त्य-अद्भुत है, उस शक्ति की अनन्तता सबसे महान् है। आकाश-प्रदेशों की अनन्तता की अपेक्षा भी ज्ञानशक्ति की अनन्तता महान् अनन्तगुणी है। ज्ञान की अनन्त गम्भीरता में आकाश का अनन्तपना या काल का अनादि-अनन्तपना ज्ञेयरूप से समा जाता है। अनन्त आकाश और अनादि-अनन्त काल, ज्ञान में परिपूर्ण जानने में आता है, फिर भी वह कहीं आदि-अन्तवाला नहीं हो जाता; 'अनादि' अनादिरूप से रहकर और 'अनन्त' अनन्तरूप से रहकर ज्ञान में ज्ञेयरूप जानने में आता है। ऐसी कोई अचिन्त्य महानता ज्ञान में है। यदि 'अनादि' को 'आदिवाला' जाने या 'अनन्त' को भी 'अन्तवाला' जाने तो वह ज्ञान मिथ्या है। अनादि को अनादिरूप और अनन्त को अनन्तरूप ही जो ज्ञान न जाने तो उस ज्ञान को पूर्ण या दिव्य सामर्थ्यवाला कौन कहेगा? 'अनादि की शुरूवात कब हुई' - ऐसा प्रश्न तो 'मेरे मुख में जीभ नहीं है' ऐसा बोलने जैसा; अर्थात् स्ववचन-विरोध है।

भाई! सर्वज्ञ का स्वरूप बहुत गम्भीर है। तर्क से इसका पार नहीं पा सकते। आकाश की अनन्तता की अपेक्षा ज्ञान की अनन्तता बहुत गम्भीर, महान अनन्तगुनी है। अनन्त ज्ञानसामर्थ्य की प्रतीति करने से ज्ञान, अतीन्द्रिय और निर्विकल्प हो जाता है - ऐसी अचिन्त्य ज्ञानस्वभाव की प्रतीति की बहुत महिमा है। सम्यग्दृष्टि जीव ही उसकी प्रतीति कर सकते हैं।

अचिन्त्य : हे सर्वज्ञदेव! आपका स्वरूप अचिन्त्य है, वह वाणी अथवा विकल्पों से पार है। मन के विकल्प से भी वह पकड़ में नहीं आता; वह तो अतीन्द्रिय ज्ञान से ही अनुभव में आता है। केवलज्ञान की भाँति साधक के सम्यक्त्वादि भाव भी अतीन्द्रिय और अचिन्त्य है; इसलिए इन्द्रियों और मन से पार हैं।

मिथ्यादृष्टि जीव बिना अनुभव, मात्र मन की कल्पना से या विकल्प से आपके स्वरूप की कल्पना करते हैं, परन्तु वास्तविक स्वरूप उनके चिन्तवन में नहीं आ सकता। जो मन के विकल्प से आत्मा के शुद्धस्वरूप को पकड़ना चाहते हैं, उन्होंने आत्मा को स्थूल माना है, उन्हें आत्मा के अतीन्द्रिय स्वरूप का सच्चा निर्णय भी नहीं है, परमात्मा को भी नहीं वे पहचानते हैं। परमात्मा, इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं है परन्तु अतीन्द्रियज्ञान में स्वसंवेदन से गम्य है, अनुभव में आता है। इस प्रकार यहाँ स्तुति द्वारा आत्मा के स्वसंवेदन की, अर्थात् धर्म के अनुभव की प्रक्रिया भी बतला दी है।

असंख्य : हे देव! आप में संख्यातीत गुण है, उनकी संख्या से गिनती नहीं हो सकती। ज्ञान के अनुभव में सभी गुण एकसाथ आ जाते हैं परन्तु भेद करके संख्या से उनकी गिनती नहीं हो सकती।

आदिपुरुष : हे ऋषभदेव! भरतक्षेत्र की इस चौबीसी में आप पहले तीर्थङ्कर हो; इसलिए धर्मयुग के आदिपुरुष हो। तीर्थङ्कर तो अनादि से हुआ करते हैं परन्तु हमारे लिए इस चौबीसी में आप आद्य हो।

ब्रह्मा : ब्रह्मस्वरूप-ज्ञानस्वरूप आत्मा में लीन होने से सभी भगवन्त ब्रह्मा हैं, अपनी-अपनी धर्मसृष्टि को रचने वाले हैं। ब्रह्मा का स्वरूप ऐसा नहीं है कि इस जगत् की रचना करे। जड़-चेतनरूप यह जगत तो अनादि स्वयंसिद्ध है, उसकी रचना करनेवाला कोई ब्रह्मा नहीं है। परन्तु हे आदिनाथ जिनेन्द्र ! इस युग में भव्य जीवों के लिए मोक्षमार्ग बताकर अपने धर्मसृष्टि की रचना की है, अपने आत्मा में शुद्धोपयोगरूप धर्म की रचना की है और उपदेश द्वारा भव्य जीवों में धर्म की रचना की है; इसलिए आप ही सच्चे ब्रह्मा हो। जो ब्रह्मा का ऐसा स्वरूप पहचानता है, उसे बाहर में सृष्टि के कर्तृत्व का या पर में कर्तृत्व का भ्रम छूट जाता है। हे देव! हमारी आत्मा में सम्यग्दर्शनादि धर्म की सृष्टि उत्पन्न होने में आप ही निमित्तरूप हो; इसलिए आपको ही हम ब्रह्मा जानते हैं।

ईश्वर : चैतन्य के निज गुणों का जो अनन्त वैभव, उसके स्वामी होने से आप ही ईश्वर हो। आत्मा का केवलज्ञान-सुख आदि जो अनन्त ऐश्वर्य तथा बाहर में समवसरण की दिव्य विभूतिरूप ऐश्वर्य, उसके स्वामी होने से ज्ञानी-सन्त आपको ही ईश्वर रूप से सम्बोधन करते हैं, अन्य कोई जगत् का कर्ता ईश्वर नहीं है। ‘कर्ता ईश्वर कोई नहीं; ईश्वर शुद्ध स्वभाव' - ईश्वर के ऐसे सर्वज्ञ-वीतरागस्वरूप की पहचान जैनधर्म में ही है। लोग, ईश्वर का अन्य काल्पनिक स्वरूप मानते हैं, वह यथार्थ नहीं है।

अनन्त : हे देव! अनन्त गुण के वैभव से भरपूर आप अनन्तस्वरूप हो; आपके ज्ञान आदि की सामर्थ्य भी अनन्त है।

अनङ्गकेतु : अनङ्ग, अर्थात् काम-भोग; केतु, अर्थात् पुच्छल तारा (धूमकेतु आदि...); लोक में पुच्छल तारा (केतु) का उदय नाश का चिह्न माना हैं; इसी प्रकार हे देव! आप काम-भोग के नाशक होने से अनङ्गकेतु हो; आपका उदय जगत् की काम-भोग की वासना को नाश करनेवाला है। आपकी दिव्यवाणी, भव्य जीवों के विषय-कषायों को नाश कराके अशरीरी सिद्धपद देनेवाली है; इसलिए हे देव! सन्त आपको ही अनङ्गकेतु कहते हैं।

योगीश्वर : अहा! आप ही शुद्ध उपयोग से चैतन्य का ध्यान करनेवाले परम योगीश्वर हो। आप ही रागरहित, शुद्ध उपयोग का स्वरूप जाननेवाले 'विदित योग' हो; और योगी - शुद्धोपयोगी मुनियों में आप श्रेष्ठ हो; इसलिए आप ही सच्चे योगीश्वर हो।

जिसे आत्मागुणों का प्रेम हो, उसे तो ऐसे विध-विध गुणों से सर्वज्ञ की स्तुति करने में और इस प्रकार के आत्मगुणों का चिन्तवन करने में रस आता है – मजा आता है। जिसे आत्मा के गुणों की पहचान नहीं हैं, उसे स्तुति का उल्लास नहीं आता। इसमें तो परमात्मा की पहचानसहित भक्ति का अपूर्व उल्लास है।

अनेक तथा एक : हे परमात्मा! वस्तुरूप से आप एक हो और उसमें रहनेवाले द्रव्य-गुण-पर्याय; उत्पाद-व्यय-ध्रुवता; अस्तित्व-नास्तित्त्व - ऐसे अनेक धर्मस्वरूप आप ही हो। एकपना तथा अनेकपना दोनों को एक साथ अपने में रखनेवाला ऐसा आश्चर्यकारी अनेकान्तस्वरूप आपने ही हमें बताया है। अन्तर्दृष्टि से उसका चिन्तवन आनन्द उत्पन्न करनेवाला है।

ज्ञानस्वरूप और अमल : हे प्रभो! आप पूर्ण ज्ञानस्वरूप हो और प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वरूप है – ऐसा आपने बताया है तथा आप ही कषाय-कलङ्क से रहित अमल, अर्थात् मलिनतारहित पवित्र हो। अहा! ज्ञान का पार नहीं और राग बिल्कुल भी नहीं; ज्ञान की पूर्णता और राग की शून्यता - ऐसा आपका स्वरूप हमारे आत्मा के शुद्धस्वरूप को प्रसिद्ध करके दिखाता है।

हे नाथ! योगी-सन्त इस प्रकार अनेक गुणों से आपको पहचान करके स्तुति करते हैं। मिथ्याबुद्धि जीव आपको नहीं पहचान सकते, इसलिए वे आपकी सम्यक् स्तुति भी नहीं कर सकते; धर्मात्मा-ज्ञानी-सन्त ही आपको पहचान कर आपकी सम्यक् स्तुति करते हैं।

अल्पकाल में ही केवलज्ञान लोग कहते हैं कि भगवान ने जैसा देखा होगा, उसी प्रकार सब होगा, हम क्या कर सकते हैं ? भगवान ने अपने जितने भव देखे होंगे, उतने भव तो होंगे ही; किन्तु यहाँ तो कहते हैं कि जिसके ज्ञान में भगवान विराजमान हैं, उसके अनन्त भव हो ही नहीं सकते। तीन लोक व तीन काल के ज्ञाता भगवान जिस भक्त के ज्ञान में विराजमान हैं, उसके भव की भीड़ होती ही नहीं।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-61