भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 21-22 ।।

काव्य : 21

मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि॥२१॥

हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।
क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥
है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन! मुझको लाभ।
जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते कोई यह मम, अमिताभ॥२१॥

काव्य : 21 पर प्रवचन

हे अरहन्त ! पहले अज्ञानदशा में मैं कुदेवों को मानता था, तब मैंने ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि अनेक रागी-द्वेषी देवों को देख लिया – यह अच्छा हुआ, ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि उन्हें देखने के बाद अब एक आपसे ही मेरा हृदय सन्तुष्ट हुआ है। पहले तो मैंने आपको देखा नहीं था, पहचाना नहीं था परन्तु अब आपको पहचानने के बाद इस भव में या दूसरे भव में भी मेरे मन को अन्य कोई हर नहीं सकता।

देखो, भगवान के साथ भक्त की कोलकरार!

प्रभु! अब मैं जागृत हुआ हूँ; वीतराग सर्वज्ञ-सुदेव और (रागी-द्वेषी) कुदेव के बीच का महान् भेद मैंने जान लिया है। अन्य मतों में ईश्वर को जगत् का कर्ता तथा रागी-द्वेषी मानते हैं – इस बात में क्या भूल है, वह मैंने आपके वीतराग मत में आकर जान लिया है।

आपने तो जो स्वयं-सिद्ध जगत् का, अर्थात् जड़-चेतन का अस्तित्त्व था, उसे सर्वज्ञता से जान लिया; इसलिए आप जगत् के ज्ञाता हो, कर्ता नहीं। जो अपने को स्वयं-सिद्ध वस्तु का कर्ता मानता है, वह अनादिसिद्ध वस्तु का ज्ञाता नहीं हो सकता, अर्थात् सर्वज्ञ नहीं हो सकता और उसे सर्वज्ञ की श्रद्धा भी नहीं हो सकती, क्योंकि यदि पहले वस्तु नहीं थी तो उसका कोई ज्ञाता भी नहीं था, अर्थात्, सर्वज्ञ-त्रिकालज्ञ भी नहीं था – ऐसा नास्तिकपना हो जाता है। प्रभो! अब आपको देखते ही यह सारा भ्रम भाग गया है और सत्यस्वरूप समझ में आ गया है।

पहले आपके अतिरिक्त अन्य सब को देखा परन्तु मुझे कहीं मोक्षमार्ग नहीं मिला, इसलिए मेरा चित्त उनमें कहीं स्थिर नहीं हुआ। प्रभो! अब मुझे सर्वज्ञ-वीतराग - ऐसे आप मिले और आप से मोक्षमार्ग प्राप्त हुआ, जिससे मेरा चित्त सन्तुष्ट हुआ और आप में स्थिर हुआ... कि सच्चे देव हो तो ऐसे हो।

अहो! सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान, उनका शरीर और उनकी वाणी – ये सब जगत् की अपेक्षा भिन्न जाति का होता है। प्रभो! हमने परीक्षा करके तुलना की है कि आप जैसे अरहन्त भगवान में ही सर्वज्ञ-वीतरागपना है और प्रत्येक आत्मा में परमात्मपना भरा है – ऐसा उपदेश आपने ही हमें दिया है। यह जानकर हमारा मन ललचाया है, इसके अतिरिक्त जगत् के अन्य किसी पदार्थ में अब हमारा मन नहीं लगता।

अनादि के विभावों में कभी भी जो तृप्ति नहीं हुई थी, वह तृप्ति अब आपके मार्ग में आपके जैसे स्वभाव को देखते ही हुई। ऐसी तृप्ति आपके वीतराग मार्ग में आकर ही हुई; इसलिए एक ही वीतराग स्वामी धारण किये हैं; अब हम दूसरा स्वामी धारण करनेवाले नहीं हैं और आपके मार्ग को कभी छोड़नेवाले नहीं हैं।

अहा प्रभो! प्रत्येक आत्मा में स्वतन्त्ररूप से निज वैभव से परिपूर्णपना है, वह आप ही बतलाते हो। आप कहते हो कि 'हमारे प्रति भक्ति में तुम्हें जो राग है, वह भी हित का कारण नहीं है; रागरहित जैसा हमारा आत्मा है, वैसा ही तुम्हारा स्वभाव है, उस स्वभाव के सन्मुख होओगे तो तुम्हें हमारे जैसा परमात्मपद प्रगट होगा' - ऐसी स्वाधीन परिपूर्णता का ढिंढोरा, हे नाथ! आपने ही प्रसिद्ध किया है और इस कारण हमारा चित्त आप में ही सन्तोष को प्राप्त करता है।

प्रभो! आपके अतिरिक्त अन्य को पहले देख लिया, यह अच्छा हुआ, क्योंकि रागी-द्वेषी-अज्ञानी जीवों के साथ सर्वज्ञ -वीतराग – ऐसे आप की तुलना करने से हमें आपकी सम्यक् महिमा ज्ञात हुई, मोक्षमार्ग समझ में आया। अब, हमारा चित्त ऐसा सन्तुष्ट हुआ कि इस भव में या अन्य भव में भी आपके मार्ग से हम चलायमान नहीं होंगे और कुमार्गों या कुदेवों के प्रति कभी झांककर भी नहीं देखेंगे।

'भगवान ने शत्रुओं को मारा; भगवान ने भक्तों पर करुणा करके उद्धार किया' - ऐसी बात अज्ञानियों को मधुर लगती है, परन्तु इसमें तो बहुत विपरीतता है और भगवान की वीतरागता की विराधना है। भक्त-जीवों के दुःख देखकर जिसका हृदय द्रवित हो जाए और करुणा से रागवृत्ति हो जाए, वह वीतराग नहीं है, परमात्मा नहीं हैं, अपितु रागी-अल्पज्ञ है; तथा दुष्ट जीवों की दुष्टता देखकर जिसके हृदय में क्रोध जागृत हो और उन दुष्टों को मारे तो वह भी भगवान नहीं है, वह तो क्रोधी है। परमात्मा को तो शत्रु-मित्र के प्रति समभाव है, उन्हें कहीं भी राग-द्वेष नहीं होता। ऐसी अत्यन्त वीतरागता से सुशोभित सर्वज्ञ परमात्मा ही सच्चे देव हैं। ऐसे भगवान की अद्भुत सर्वज्ञता और वीतरागता देखकर, मुमुक्षु जीव को परमतृप्ति और बहुमान जागृत होता है।

प्रभो! अन्य को देखने से तो आप में सन्तोष हुआ, परन्तु आपको देखकर तो हम अन्य सभी को भूल गये, सभी से हमारा मन हट गया - आपकी ऐसी अचिन्त्य महिमा हमारे हृदय में वस गयी है।

आपके दर्शन ने और आपकी पहचान ने तो हमारे आत्मा में कोई जादूई, अर्थात् आश्चर्यकारी असर करके, अनादि काल में अन्य सभी कुदेव जो सन्तोष नहीं दे सके, वह सन्तोष आपको देखनेमात्र से ही हमें प्राप्त हो गया। परभाव में तो कभी सन्तोष नहीं हुआ, अब आपके मार्ग में शुद्धात्मा का सम्यग्दर्शन होते ही अपूर्व सन्तोष प्राप्त हुआ, परमतृप्ति हुई, महा आनन्द हुआ। इस प्रकार परम बहुमानपूर्वक जिनेन्द्रदेव की श्रद्धा करके, उनकी स्तुति की जाती है; पहचान बिना अन्धी भक्ति नहीं। सत् -असत् का विवेक करके जागृत साधक जीव ही ऐसी भक्ति कर सकता है। वह स्वप्न में भी राग का आदर नहीं करता, वीतरागता का ही आदर करते-करते अल्प काल में राग को तोड़कर स्वयं परमात्मा हो जाता है।


काव्य : 22

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र - रश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्॥ २२॥

सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहती सौ-सौ ठौर।
तुम से सुत को जननेवाली, जननी महती क्या है और?
तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली॥२२॥

काव्य : 22 पर प्रवचन

भगवान ऋषभदेव इस स्तुति के स्तुत्य हैं; मानतुङ्ग आचार्य स्तुतिकार है और परिणाम की विशुद्धि, अर्थात् वीतरागभाव की वृद्धि, वह स्तुति का फल है।

जो परमात्मा के मार्ग में अग्रसर है - ऐसा धर्मात्मा, परमात्मा की स्तुति से स्वयं की परमात्मा बनने की भावना को पुष्ट करता है और भगवान के साथ उसकी माता की भी याद करके उनकी महिमा करता है।

हे देव! आप तो जगत् में अद्वितीय और आपको जन्म देनेवाली माता भी जगत् अद्वितीय ! जगत् में स्त्रियाँ तो सैंकड़ों हैं और वे सैंकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आपके जैसे होनहार-तीर्थङ्कर पुत्र को जन्म देनेवाली तो आपकी माता एक ही है, अन्य कोई वैसी स्त्री जगत् में नहीं है। मनुष्यों में तीर्थङ्कर ही ऐसे है कि जो मति-श्रुत-अवधि – इन तीन ज्ञानसहित अवतरित होते हैं, अन्य सभी मनुष्य तो दो ही ज्ञानसहित जन्म लेते हैं। ऐसे तीन ज्ञानसहित अद्वितीय पुत्र को जन्म देनेवाली माता भी जगत् में अद्वितीय है। इसमें यह न्याय भी आ जाता है कि तीर्थङ्कर की माता, तीर्थङ्कर को एक को ही जन्म देती है, उनकी दूसरी सन्तान नहीं होती।

अहा! जो माता, तीर्थङ्कर की माँ कहलाये, उसकी महिमा की क्या बात ! उन्हें तो इन्द्र भी 'जगत् माता' कहकर सम्मान करते हैं। जैसे, सामान्य तारे तो आकाश में चारों ओर सभी दिशाओं में उदित होते हैं, परन्तु हजारों किरणों से जगमगाते सूर्य को तो पूर्व दिशा ही प्रगट करती है। उसी प्रकार जगत् की सैकडौं स्त्रियाँ अनेक पुत्रों को भले ही जन्म दें, परन्तु आपके जैसे असाधारण तीर्थङ्कर पुत्र को जन्म देने का सौभाग्य क्या सभी स्त्रियों को प्राप्त होता है? नहीं, यह सौभाग्य तो एकमात्र आपकी माता को, एक को ही है।

जगत् में सैकड़ों-लाखों-करोड़ों पुत्र होते हैं; परन्तु आपके जैसे कितने होते हैं? आपके जैसे तो आप एक ही हो। आप जगत् में अद्वितीय हो, आपकी माता भी जगत् में अद्वितीय हैं.... उन्हें 'रत्नकुंखधारिणी' कहकर इन्द्र भी बहुमान करते हैं। पुत्र (तीर्थङ्कर) तो तद्भव-मोक्षगामी है और उनकी माता भी एक भव के पश्चात् मोक्षगामी होती हैं - 'धन्य अवतार!' इन्द्र कहता है – हे माता! यह तुम्हारा तो पुत्र है परन्तु हमारा नाथ है, यह सम्पूर्ण जगत् का नाथ है; जगत के जीवों को मोक्ष का मार्ग बताकर उनका उद्धार करेगा।

लोग कहते हैं – 'नारी नरक की खान' परन्तु हे माता! आप तो तीर्थङ्कर की खान हो... तीर्थङ्कर जैसा बेजोड़ रत्न आपके उदर में पला है... तुम वीरपुत्र की जननी हो। इस प्रकार माता की महिमा द्वारा भी वास्तव में तीर्थङ्कर की स्तुति करते हैं कि अहा! उस पुत्र का अवतार धन्य है कि जिसने इस भव में ही परमात्मपद को साध लिया है।

हे देव! जिसके उदर में आप विराजमान हो, वह स्त्री भी धन्य बनी तो हमारे हृदय में आप विराजते हो; इसलिए हमारा जीवन भी हम धन्य समझते हैं। जैसे, आप जिसके अन्तर में विराजते हो, वह माता भी अशुचिरहित पवित्र होती है, तो हमारे अन्तर में आप विराजते हो और हम पवित्र न हों - यह कैसे सम्भव है? जिसके अन्तर में आप वसते हो, उसके अन्तर में मिथ्यात्व की मलिनता नहीं रहती, अर्थात्, आपका भक्त पवित्र होकर मोक्ष को साध लेता है।

अहा! जिसके अन्तर में मुक्त परमात्मा वसते हैं, वे जीव मोक्षगामी नहीं हों – ऐसा सम्भव नहीं है। इस प्रकार भगवान के भक्त को स्वयं मोक्ष की नि:शङ्क झंकार अन्दर से आ जाती है। भगवान! आपके माता-पिता नियम से मोक्षगामी होते हैं तो हम आपके भक्त भी मोक्षगामी ही हैं – ऐसे अन्तर के भावसहित की यह स्तुति है।

परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध 'कर्म, जीव को चतुर्गति में ले जाते हैं' – यह कथन जीव एवं कर्म के बीच परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की दृष्टि से किया जा रहा है किन्तु ज्ञाता-दृष्टा जीवस्वभाव की दृष्टि से तो जीव का गतियों में आना-जाना है ही नहीं। जीवस्वभाव तो अनादि संसार में वैसा का वैसा ही रहा है। जैसे चलती हुई घड़ी के झूलते हुए घन्टे पर कोई मक्खी बैठी है तो घन्टे के घूमते समय ऐसा लगता है कि मक्खी भी घूम रही है किन्तु उस समय वस्तुतः मक्खी तो जहाँ है, वहीं है; फिरनेवाला तो घड़ी का घन्टा है, मक्खी नहीं।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-43