भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 9-10 ।।

काव्य : 9

आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्तदोषं,
तत्वत्सङ्कथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकास भाञ्जि॥९॥

दूर रहे स्तोत्र आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।
पुण्यकथा ही किन्तु आपकी, हर लेती है कल्मष कोष॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर।
फेंका करता सूर्य-किरण को, आप रहा करता है दूर॥९॥

काव्य - 9 पर प्रवचन

देखो तो सही! दूर रहे हुए; अर्थात्, असंख्य वर्ष पहले हुए परमात्मा को भी भक्ति के बल से समीप लाकर कहते हैं कि हे प्रभो! आपके साक्षात् केवलज्ञानरूपी सूर्य की तो क्या बात! उसके प्रकाश की किरणें भी हम तक पहुँचकर हमारी आत्मा को विकसित करती हैं। क्षेत्र और काल से भले ही दूर हो, परन्तु हमारे भाव में तो आप समीप ही हो।

सामान्यरूप से 'स्तुति' तो उसे कहते हैं कि जिसमें जो गुण हो, उन्हें बढ़ाकर कहा जाए, परन्तु हे जिनदेव! समस्त दोषरहित और सर्व गुणों से परिपूर्ण – ऐसे आप में जो अगाध गुण विद्यमान हैं, उनका भी पूरा वर्णन करने की मेरी शक्ति नहीं है तो फिर उन्हें बढ़ाकर कहने की तो बात ही क्या है! आप में न हो – ऐसा कोई गुण जगत् में कहाँ है कि जिसे बढ़ाकर मैं स्तुति करूँ?

प्रभो! आपकी पूरी स्तुति की बात तो दूर रही, आपके उत्तम गुणों की सुकथा भी जगत् में पापों को हरनेवाली है। भक्ति से आपका नाम लेने से भी जीवों के पाप दूर हो जाते हैं और उनके गुणों का विकास होने लगता है। पानी का सरोवर तो थोड़ा-सा दूर होने पर भी, उसके ऊपर से प्रवाहित होनेवाली जनबिन्दुवाली शीतल हवा भी गर्मी के ताप से तप्त पथिक को कैसी मधुर शान्ति प्रदान करती है! अथवा हजारों किरणोंवाला सूर्य दूर होने पर उसकी प्रभा भी सरोवर के कमलों को विकसित करती है; उसी प्रकार हे सर्वज्ञ सूर्य! आपके समान गुणों के निर्विकल्प अनुभव की तो क्या बात ! आपके उत्तम गुणों की कथा करने अथवा सुनने से भी हमारा चित्त आपके गुणों में जुड़ जाता है और विषय-कषायों से मुड़ जाता है; इस प्रकार हमारा हृदय कमल विकसित हो जाता है।

इस प्रकार आपके गुणों की कथा भी पाप का नाश करनेवाली है और उन गुणों की अनुभूति तो भव का नाश करनेवाली है।

देखो, गुण के लक्ष्यपूर्वक की यह स्तुति! इसमें निश्चय और व्यवहार दोनों समाहित हो जाते हैं। हे प्रभो! आपने सर्व दोषों का नाश करके, सर्व गुणों से परिपूर्ण सर्वज्ञता प्राप्त की है और दिव्यध्वनि के द्वारा जगत् के लिए सर्वज्ञपद का ढिंढोरा प्रसिद्ध किया है कि हे जीवो! अन्तर्मुख होकर सर्वज्ञ होने का तुम्हारा स्वभाव है। जो दोषों से परान्मुख होकर वीतरागी ज्ञानस्वभाव की ओर झुकता है, उसने वीतराग भगवान की कथा सुनी – ऐसा कहा जाता है। जो राग में, बाह्य विषयों में रुका रहता है, उसने तो वास्तव में राग की विकथा सुनी है; वीतराग की सुकथा नहीं सुनी।

अहा! परमात्मा के समान आत्मा का वीतरागस्वभाव और सर्वज्ञस्वभाव! जो उस स्वभाव के प्रेमपूर्वक उसकी कथा सुनता है, उसे अवश्य मिथ्यात्वादि पापों का नारा हो जाता है और सम्यक्त्वरूपी कमल खिल जाता है।।

देखो, अभी दश लक्षण पर्व में यह 'भगवत्कथा' पढ़ी जा रही है। भगवान के गुणों की कथा, वह भगवत्कथा है। भगवान ने जिसे प्राप्त किया, उसे प्राप्त करानेवाली यह कथा, भागवत्कथा है। प्रभो! सम्पूर्ण वीतरागभावरूप आपकी पूर्ण स्तुति तो अल्प काल में केवलज्ञान और पूर्णानन्द देकर हमें आपके समान परमात्मा बना देती है, परन्तु उससे पहले बीच में रागवाली भूमिका में आपके गुणों के प्रति प्रेम और उसकी कथा । स्तुति भी पाप का नाश करनेवाली है। आपके गुणों की प्रीति करनेवाला जीव अल्प काल में ही मोक्ष का भाजन होता है। श्री पद्मनन्दि मुनिराज ने भी कहा है कि –

तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्ताऽपि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेत् भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्॥
चैतन्य प्रीति रख चित्त में, उसकी कथा सुनता अरे।
वह भव्य भावी मुक्ति का, निश्चित अहो! भाजन बने ।

जिसने चैतन्यतत्त्व के प्रति प्रेमपूर्वक उसकी वार्ता भी सुनी है, वह भव्यजीव अवश्य ही भविष्य में निर्वाण को प्राप्त करेगा। चित्त में गुणों के प्रति प्रीतिपूर्वक का श्रवण तो अपूर्व है। सुना, परन्तु चित्त में उसकी प्रीति नहीं की तो किस काम का?

अहो नाथ! आपके आत्मा में से तो सर्व पाप दूर हो गये और आपके गुणों की कथा सुननेवाले के भी पाप दूर हो जाते हैं। हे प्रभो! हमारा केवलज्ञान तो अभी थोड़ा आगे है, परन्तु जब आपके केवलज्ञान को लक्ष्य में लेते हैं, तब हमारा सम्यग्ज्ञानरूपी कमल खिल जाता है और अज्ञानरूपी पाप अन्धकार दूर हो जाता है। संसार की जेल अथवा कर्मों के ताले का बन्धन अब हमें नहीं रह सकता।

वाह! देखो तो सही, प्रभु की स्तुति में साधक की निःशङ्कता! अन्तर में सर्वज्ञ के निर्णय का जोर भरा हुआ है... उसमें से आवाज आती है कि हमारा अन्धकार टल गया है और केवलज्ञानरूपी प्रभात उदित हआ है; हमारा चैतन्यरूपी कमल विकसित होने लगा है।

असंख्य प्रदेशी चैतन्यबाग में श्रद्धा-ज्ञान-आनन्द के फूल अनन्त पंखुड़ियों से विकसित हुए हैं - ऐसी श्रद्धावाला जीव ही सर्वज्ञ परमेश्वर की सच्ची स्तुति -भक्ति-उपासना कर सकता है।

भगवान की कथा / प्रथमानुयोग इत्यादि चारों अनुयोगों का प्रयोजन वीतरागता है। वीतरागता के प्रति उल्लास ही वीतरागदेव की भक्ति है। ऐसी भक्ति, राग का नाश करके वीतरागता प्रगट करनेवाली है। राग की पुष्टि का अभिप्राय रखकर भक्ति की जाए तो वह वीतराग की सच्ची भक्ति नहीं है।

हे जीव! यदि वीतराग सर्वज्ञ-भगवान के प्रति तेरे चित्त में भक्ति उल्लसित नहीं होती तो तेरा चित्त पत्थर के समान है, वह खिलेगा नहीं। प्रभु के गुणगान की गुञ्जार सुनते ही भक्त का हृदय फूल के समान खिल जाता है। वाह! ऐसी अद्भुत भक्ति और ऐसे अद्भुत गुण !

हे नाथ! आप मुक्त; अर्थात्, सर्व बन्धन से रहित हो, आपको हृदय में रखकर स्तुति करते ही हमारी दृष्टि खुल गयी है और शुद्धस्वरूप का विकास हुआ है। अब, अन्दर में या बाहर में हमें कोई बन्धन नहीं रह सकता। तुच्छ जीवों के द्वारा बाहर में जैनधर्म की हीनता हो, यह मुनिराज मानतुङ्गस्वामी से सहन नहीं हुआ, इसलिए उपसर्ग जानकर इस स्तोत्र के द्वारा भक्ति की ऐसी झलक जागृत की कि फटाक-फटाक बन्धन और ताले टूट गये। जिनेन्द्र भक्ति की ऐसी अद्भुत महिमा देखकर राजा-प्रजा बहुत प्रभावित हुए और जैनधर्म की जय-जयकार हुई। ऐसा यह भक्तामर स्तोत्र, मात्र बाहर के चमत्कार के लिए नहीं है परन्तु अन्दर में जिनगुणों की महिमा समझने के लिए है, इसमें गहन अध्यात्म के भाव भरे हुए हैं।

श्री जिनसेनस्वामी ने 'महापुराण' में स्तुति का स्वरूप बहुत सरसरूप से बताया है। वहाँ जब भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ, तब स्तुति करते हुए इन्द्र कहते हैं कि हे भगवन! मेरी बुद्धि मन्द होने पर भी मैं मात्र भक्ति से प्रेरित होकर गुणरूपी रत्नों की खान से भरपूर आपकी स्तुति करता हूँ; आप वीतराग होने पर भी, आपकी स्तुति करनेवाले को अपने विशुद्धपरिणाम के कारण उत्तम फल स्वयं प्राप्त होते हैं। पवित्र गुणों का कीर्तन करना, वह स्तुति है। प्रसन्न बुद्धिवन्त भव्य जीव, स्तुति करनेवाला है; सर्व गुणों से सम्पन्न आप सर्वज्ञदेव, स्तुति करने योग्य हो और मोक्षसुख की प्राप्ति, स्तुति का उत्तम फल है।

प्रभो! आपकी भक्ति, आपके गुणों की स्तुति, मुमुक्षु जीवों को आनन्दित करती है। राग-द्वेषरहित और ज्ञान-आनन्दसहित आप वस्त्राभूषण के बिना ही सर्वोत्कृष्ट रूप से शोभायमान हो रहे हैं। आत्मा की शोभा परिग्रह से नहीं है, वीतरागता से आत्मा की शोभा है। आपकी प्रभुत्वशक्ति भी कैसी आश्चर्यकारी है कि क्रोध किये बिना आपने मोहरूपी शत्रु का हनन कर दिया। स्वयं आत्मा में से ही आप सर्वज्ञरूप से प्रगट हुए हो, इस कारण 'स्वयंभू' - ऐसे आपको नमस्कार हो। आपके जैसे गुण हमारे में भी प्रगट करना, वही आपकी परम स्तुति है; इसलिए आपके जैसे गुणों का अंश अपने में प्रगट करके मैं आपकी स्तुति करने के लिए उद्यमी हुआ हूँ। भले ही आपके सम्पूर्ण गुणों की स्तुति वचनों से नहीं होती परन्तु आपके गुणों का प्रेम और उसकी सुकथा भी हमें आनन्द देनेवाली हैं, उसके द्वारा जो हमारे में नहीं हों – ऐसे गुण हम प्रगट करते हैं और ज्ञान से आत्मा की अनुभूति करने में सर्व गुण समाहित हो जाते हैं। ऐसी स्वानुभूतिरूप अभेद भक्ति से मैं भी परमात्मपद प्राप्त करूँगा, तब आपकी स्तुति पूर्ण होगी; वहाँ स्तुति करने योग्य और स्तुतिकार (भगवान और भक्त अथवा साध्य और साधक) – ऐसा भेद भी नहीं रहेगा।

देखो, परमभक्ति ही निर्वाणभक्ति है। मोक्षगत; अर्थात्, मोक्ष को प्राप्त कर चुके सिद्ध भगवान की भक्ति है। रत्नत्रय भक्ति अथवा मोक्ष के कारणरूप भक्ति है। श्रमण तथा धर्मी श्रावक भी ऐसी भक्ति करते है... इसलिए वे भक्त हैं...भक्त हैं –

'भक्तो भक्तो भवति संतत श्रावकः संयमी वा' ।

नियमसार में परमभक्ति का वर्णन करते हुए कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं –

सम्यक्त्व, ज्ञान चारित्र की श्रावक श्रमण भक्ति करे।
उसको कहें निर्वाण-भक्ति परम जिनवर देव रे॥१३४॥

जो जीव, भवभय को हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्धज्ञान की और चारित्र की भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह निरन्तर भक्त है... भक्त है... अर्थात् वह मोक्ष का साधक है। आसन्न भव्य जीव ऐसी भक्ति करते हैं। इस भक्तामर स्तोत्र में भी ऐसी वीतरागी भक्ति का ही तात्पर्य समझना है।


काव्य : 10

नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः।
तुल्याभवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति॥१०॥

त्रिभुवनतिलक जगतपति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य्य।
सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य।
स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से।
नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से॥१०॥

काव्य - 10 पर प्रवचन

हे भुवन के भूषण और 'भूतनाथ', अर्थात् जीवों के नाथ! आपकी स्तुति करनेवाले जीव, गुणों में आपके समान हो जाते हैं – यह कोई अति-अदभुत आश्चर्य की बात नहीं है। लोक में भी स्वामी अपने आश्रित सेवकों को अपने समान सुखी करते हैं। सेवक की दरिद्रता दूर नहीं करे तो ऐसे स्वामी से क्या प्रयोजन है ? प्रभो! हमने आपको नाथरूप में स्वीकार किया है, इष्टदेव के रूप में माना है, वह किसलिए? आपके समान बनने के लिए।

'अद्भुत मधुरता! अद्भुत परिणाम !! अद्भुत कवित्व!!! - ऐसा महाकाव्य है।' देखो, अब भगवान की स्तुति जमती जा रही है। जिनकी स्तुति की जा रही है, उनके गुण अद्भुत हैं, स्तुतिकार के भाव भी अद्भुत हैं और भाषा की मधुरता भी अद्भुत है।

यहाँ अरहन्त परमात्मा को 'भूतनाथ' कहकर सम्बोधित किया है, वह इसलिए कि साधक जीव आपको ही अपना नाथ समझते हैं, क्योंकि धर्म की प्राप्ति में, रक्षा में और पूर्णता में आप ही हमारे निमित्त हो। 'महादेव' को 'भूतनाथ' कहा जाता है। हे अरहन्त देव! हे ऋषभनाथ! आप ही हमारे सच्चे महादेव हो।

हे सर्वज्ञ परमात्मा ! आप जगत् के आभूषण हो, तीन लोक की शोभा आपके कारण ही है; आपके केवलज्ञानादि गुणों के कारण ही हमारी शोभा है। गुणों के भण्डार, आपकी सेवा करने से हमें गुणों की प्राप्ति हो – इसमें क्या आश्चर्य है? जो जिसकी सेवा करता है, वह उसके समान बन जाता है; इसलिए कहा है कि पारसमणि की अपेक्षा भी परमात्मा महान है, क्योंकि पारसमणि के स्पर्श से तो लोहा मात्र स्वर्ण बनता है, वह स्वयं पारस नहीं बनता, जबकि परमात्मा के सेवन से तो यह जीव स्वयं परमात्मा बन जाता है।

वास्तव में जगत् में जो भी शोभा-सुन्दरता है, वह देव -गुरु-धर्म से ही है – ऐसा श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है। अहा! उत्तम पुण्य का मार्ग भी सच्चे देव-गुरु-धर्म के आश्रय के बिना अन्य कहाँ है ? अन्य कुमार्ग में उत्तम पुण्य भी नहीं होता; धर्म और मोक्षमार्ग की तो बात ही क्या? हे प्रभो! आपके मार्ग की उपासना से तो मैं आपके समान परमात्मा बन जाऊँगा, वहाँ बीच में महापुण्य बँध जाए - यह कौनसी बड़ी बात है? आराधकभावसहित पुण्य अलौकिक होता है, फिर भी मोक्ष के साधक को उसकी भी महिमा नहीं होती, वह तो परमात्मा के समान केवलज्ञानादि गुणों को साधकर परमात्मा होने की ही भावना भाता है। भक्त की नजर परमात्मस्वभाव पर है, इससे कम उसे पोषाता नहीं है।

हे धर्म पिता सर्वज्ञ जिनेश्वर,
चेतन मूरति आप ही हो।
मुझ चेतनरूप दिखाने को,
दर्पणसम् प्रभु आप ही हो॥

तुम परमात्मा... मैं परमात्मा... इस प्रकार आत्मा में सिद्धपना स्वीकार करके साधक जीव यह स्तुति करता है। यह स्तुति राग में अटकने के लिए नहीं है। इस स्तुति में तो राग को तोड़कर परमात्मा बनने की भावना है।

अहा! देखो तो सही! दिगम्बर मुनिराज की पुकार। परमात्मपद की झंकार के अतिरिक्त दूसरी बात नहीं है। प्रभो! आपके केवलज्ञानादि अद्भुत गुणों को देखते ही हमारा आत्मा, राग से भिन्न होकर केवलज्ञान की साधना में लग गया है। अब, अल्प काल में केवलज्ञान लेकर ही रहूँगा।

धर्मी जीव, पुण्य के पीछे भी वीतरागी देव-गुरु को ही निमित्तरूप देखता है। जगत् में तीर्थङ्करपद या चक्रवर्ती-इन्द्रादि महान पुण्यपद, जैनधर्म के आराधक को ही मिलते हैं – ऐसा उत्तम पुण्य अन्य किसी को नहीं बँधता है; फिर भी धर्मी को पुण्य से पार वीतरागी चैतन्यपद की महिमा है।

हे देव! आपके द्वारा उपदिष्ट अहिंसादि धर्म नहीं होते तो जगत् के जीवों को सत्पुण्य कहाँ से होता! निश्चयधर्म या व्यवहारधर्म की प्राप्ति जिनवाणी के प्रसाद से ही होती है। जिनदेव के उपदेश के बिना कन्दमूल आदि में अनन्त जीवों का अस्तित्व कहाँ से जानते? और जीवों का अस्तित्व जाने बिना उनकी दया कैसे पालन कर सकते? और जीवों की दया के बिना पुण्य भी कैसे होता? इसलिए हे देव! हम तो धर्म में या पुण्य में भी आपका ही प्रभाव देखते हैं। वीतरागी देव-गुरु के बिना हम पूजा किसकी करते? इस प्रकार हे त्रिलोकीनाथ! आप ही हमारे धर्म के रक्षक और पोषक हो, आपके आश्रय से हमें भी परमात्मपद की प्राप्ति होगी – ऐसे भाव से साधक जीव, सर्वज्ञ परमात्मा की स्तुति करते हैं; उनके गुणों की महिमा, धर्मी के ज्ञान में उत्कीर्ण हो गयी है।

देखो, यह भक्ति में धर्मी का उल्लास! इस स्तुति में 'मानतुङ्ग' स्वामी की गहरी पुकार है कि प्रभु आदिनाथ के लक्ष्य से धर्म की 'आदि' की है – साधकदशा की शुरूआत की है; अब पूर्ण परमात्मा होकर मोक्ष प्राप्त करूँगा। अभी इस पञ्चम काल में परमात्मपद प्राप्त करने की हमारी शक्ति नहीं है, तो भी आत्मा की आराधना के बल से निश्चय है कि एक -दो भव में ही उस परमात्मपद को प्राप्त करूँगा। प्रभु के मार्ग में लगे हैं... अब प्रभु होकर ही रहूँगा।

देखो, इस भक्तामर स्तुति में कैसे गम्भीर भाव भरे हैं, उनका स्पष्टीकरण होता है।

अहा! भगवान का भक्त, स्वयं भक्त मिटकर भगवान बन जाए, इससे हमें कुछ आश्चर्य नहीं लगता, अतिरेक नहीं लगता, परन्तु यह तो सहज वस्तुस्थिति ही है, इसमें आश्चर्य क्या है? प्रभो! आपका आश्रय लेने के बाद हम आपके समान न हों तो क्या आपसे कम, अर्थात् संसारी रहेंगे? तब तो आपके समान बड़े का आश्रय लेना किस काम का?

एक स्तुति में आता है कि 'सहकार आगे क्या माँगना....' सहकार, अर्थात् आम्र । जैसे, आम के वृक्ष पर पके आम लटकते हैं, तब बालक नीचे खड़े-खड़े आम ले लेता है, उसे आम के वृक्ष से आम माँगने नहीं पड़ते; उसी प्रकार हे नाथ! आप तो चैतन्यधर्म के आमवृक्ष हो; आपकी भक्ति करने से परमानन्ददशारूप फल सहज ही प्राप्त हो जाता है; आप से माँगना नहीं पड़ता कि मुझे परमात्मपद प्रदान करो! यद्यपि परमात्मपद की ऐसी साधना में उत्तम पुण्य का योग भी सहज हो जाता है, परन्तु हे प्रभो! हम तो आपके समान होने के लिए आपकी सेवा करते हैं।

जैनधर्म में ही यह एक विशेष विशिष्टता है कि उसमें सर्वज्ञस्वामी का सेवक, सदा सेवक ही नहीं रहता, अपितु वह स्वयं केवलज्ञानादि वैभव प्रगट करके सर्वज्ञ परमात्मा बन जाता है। परमात्मा की उपासना करनेवाले का लक्ष्य स्वयं परमात्मा बनने का है, इसलिए स्वयं में परमात्मस्वभाव है; उसकी प्रतीति करके, उसकी अन्तरङ्ग उपासना से परमात्मपद को साध लेता है, भक्त स्वयं भगवान बन जाता है... यह है जैन भक्ति का फल!

दर्शन प्रतिमा जगत के अज्ञानीजन तो ऐसा मानते हैं कि प्रतिदिन भगवान के दर्शन करना ही 'दर्शनप्रतिमा' है किन्तु भाई ! वस्तुतः अन्तर में निजात्मभगवान के दर्शन करना ही दर्शनप्रतिमा है।

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-15