।। जिनशासन में भक्ति का उदार फल, भक्त का आह्वान ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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नात्यद्भुतं भुवन-भूषण! भूतनाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रित य इह नात्मसमं करोति।।10।।
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अन्वयार्थ-(भुवनभूषण) हे संसार के आभूषण! (भूतनाथ) हे प्राणियों के स्वामी! (भूतैः) सच्चे (गुणैः) गुणों के द्वारा (भवन्तम् अभिष्टुवन्तः) आपकी स्तुति करने वाले पुरूष (भुवि) पृथ्वी पर (भवतः) आपके (तुल्याः) समान बराबर (भवन्ति) हो जाते हैं। (इदम् अति अद्भुतम् न) यह भारी आश्चर्य की बात नहीं है (वा) अथवा (तेन) उस स्वामी से (किम्) क्या प्रयोजन है? (यः) जो (इह) इस लोक में (आश्रितम्) अपने अधीन पुरूषों को (भूत्या) सम्पत्ति के द्वारा (आत्मसमम्) अपने बराबर (न करोति) नहीं करता।

भावार्थ-हे स्वामिन्! जिस तरह उत्तम मालिक अपने नौकर को सम्पत्ति देकर अपने समान बना लेता है उसी तरह आपभी अपने भक्त को अपने समान शुद्ध बना लेते हैं।

प्रश्न - 1जिन भक्ति का सच्चा फल क्या है?

उत्तर- जो प्राणी जिन देव की सच्चे गुणों के द्वारा स्तुति करता है वह स्वयं जिनेन्द्र बन जाता है।

प्रश्न - 2 जिनशासन की उदारता बताइये?

उत्तर- संसार में अनेक दर्शन व धर्म हैं, इनमें एकमात्र जैन-दर्शन ही इतना उदार है कि यहां भक्त स्वयं भगवान् बन सकता है। अन्य दर्शनों में भक्त अन्त तक भक्त ही रहता है वह भगवान् कभी नहीं बन सकता है। भक्त और भगवान् की अभेद व्यवस्था ही जिन-शासन की उदारता है।

प्रश्न - 3 आश्चर्य क्या है?

उत्तर- जिनेन्द्र भक्त स्वयं जिनेन्द्र नहीं बन जायेयही आश्चर्य है। जिनेन्द्र बन जाये इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

प्रश्न - 4 सच्चा स्वामी कौन है?

उत्तर- जो अपने अधीन प्राणियों को सम्पत्ति देकर अपने समान बनाता है वही सच्चा स्वामी है।

प्रश्न - 5 सच्ची भक्ति कौन सी है?

उत्तर- सच्ची भक्ति वही है जो भक्त को भगवान् बना देती है।