अन्वयार्थ- (लोकत्रये द्युतिमताम्) तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की (द्युतिम्) कान्ति की (आक्षिपन्ती) तिरस्कृत करती हुई (ते विभोः) आपके (शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा) मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति (प्रोद्यद्दिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्यादीप्त्या) ऊगते हुए अन्तर रहित अनेक सूर्यों जैसी कांति से (‘उपलक्षित’ अपि) युक्त होकर भी (सीमसौम्याम्) चन्द्रमा से सुन्दर (निशाम् अपि) रात्रि को भी (जयति) जीत रही है।
भावार्थ-हे प्रभो! यद्यपि आपकी प्रभा सूर्य से भी अधिक तेजस्विनी है तथापि वह संताप देने वाली नहीं है। चन्द्रप्रभा से भी अधिक शीतल है। यह भामण्डल प्रातिहार्य का वर्णन है।