।। अग्नि भय-शमन ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तम्,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्।।40।।
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अन्वयार्थ-(त्वन्नमकीर्तनजलम्) आपके नाम का यशोगानरूपी जल (कल्पानतकालपवनोद्धतवह्निकल्पम्) प्रलयकाल की प्रचण्ड अग्नि के तुल्य (ज्वलितम्) प्रज्ज्वलित (उज्ज्वलम्) उज्ज्वल अैर (उत्स्फुलिंगम्) जिससे तिलंगे निकल रहे हैं ऐसी तथा (विश्व जिघत्सुम् इव) संसार को भक्षण करने की इच्छा राने वाले की तरह (सनमुखम्) सामने (आपतन्तम्) आती हुई (दावानलम्) वन की अग्नि को (अशेषम्) (‘यथास्यात् तथा’) सम्पूर्ण रूप से (शमयति) बुझा देता है।

भावार्थ- हे भगवन्! आपके नाम का स्मरण करने से भयंकर दावानल की बाधा नष्ट हो जाती है।

प्रश्न - 1 भयंकर ज्वालाओं की लपटें किसका कुछ नहीं बिगाड़तीं? उदाहरण दीजिये?

उत्तर - भयंकर अग्नि की लपटें भी प्रभुनाम स्मरण करने वाले भक्त को नहीं जला पाती है। अग्नि भी शीतल हो जाती हैै।

रामचन्द्रजी ने सीता से शील की परीक्षा ली। विशाल अग्निकुण्ड की धधकती ज्वाला में भगवान् का नामोचरण करती हुई सीता कूद पड़ी। अग्नि का जल हो गया।