।। बन्धन मुक्ति ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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आपाद-कण्ठमुरू-श्रृंखल-वेष्टितांगा,
गाढ़ं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जड्घाः।
त्वन्नाम- मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः,
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति।।46।।
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अन्वयार्थ- (आपादकण्ठम्) पांव से लेकर कण्ठ पर्यन्त (उरूश्रृंखल-वेष्टितांगा) बड़ी-बड़ी सांकलों से जकड़ा हुआ है शरीर जिनका ऐसे और (गाढं) अत्यंत रूप से (बृहन्निगडकोटि-निघृष्ट-जड्घाः) बड़ी-बड़ी बेडि़यों के अग्रभाग से छिल गई हैं जांघें जिनकी ऐसे (मनुजाः) मनुष्य (अनिशं) निरंतर (त्वन्नाममन्त्रम) आपके नामरूपी मन्त्र को (स्मरनतः) स्मरण करते हुए (सद्यः) शीघ्र ही (स्वयम्) अपने आप (विगतबन्धभयाः) बन्धन के भय से रहित (भविन्त) हो जाते हैं।

भावार्थ-हे भगवान! जो निरन्तर आपके नाम की जाप करता है उनके बेड़ी आदि बन्धन अपने आप टूट जाते हैं।

प्रश्न -1 भगवान् की निरन्तर भक्ति का फल उदाहरण सहित बताइये?

उत्तर - जो भव्यात्मा निरनतर प्रभु के नाम को जपता है उसकी बड़ी-बड़ी लोहमयी बेडि़यां भी सहज टूट जाती हैं।

चन्दन बालिका को सेठानी ने लोहमयी बेडि़यों में जकड़ दिया। चन्दनबाला निरन्तर प्रभुभक्ति में समय व्यतीत करने लगी। तभी भगवान् महावीर आहार के लिए दरवाजे पर आये। उसने उसी अवस्था में प्रभु को भक्ति से पड़गाहन किया तभी लोहमयी बेडि़यं तड़-तड़ कर टूट गयीं।