।। दुन्दुभि प्रातिहार्य ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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गंभीरतार-रव-पूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः।
सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिध्र्वनति ते यशसः प्रवादी।।32।।
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अन्वयार्थ-(गम्भीरताररवपूरितदिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं के विभाग को पूर्ण करने वाला (त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः) तीन लोक के जीवों ाके सुभसम्पत्ति प्राप्त कराने में समर्थ और (सद्धर्मराज जयघोषणघोषकः) समीचीन जैनधर्म के स्वामी की जयघोषणा करने वाला (दुन्दुभिः) दुन्दुभिबाजा (ते) आपका (यशसः) यश का (प्रवादी सन्) कथन करता हुआ (खे) आकाश में (ध्वनित) शब्द करता है।

भावार्थ-हे प्रभो! आकाश में दुन्दुभि बाजा बज रहा है वह मानों आपकी जय बोलता हुआ आपका सुयश प्रकट कर रहा है। यह दुन्दुभि प्रातिहार्य का वर्णन है।

प्रश्न - 1 संसार में यश किसका फैलता है?

उत्तर- जय में जो जीव, प्राणी मात्र के कल्याण की भावना करता है उसका यश तीनों लोकों में फैलता है।

प्रश्न - 2 दुन्दुभि प्रातिहार्य हमें क्या शिक्षा देता है?

उत्तर- यह शिक्षा देता है कि जग में प्राणी मात्र में हित की भावना करो। सबको सुखी देखने की भावना भाओ, सबके कल्याण की भावना करो तुम्हारा यशोगान दस दिशाओं में होगा। चारों और आपको अपना यशोगान सुनाई देगा।