अन्वयार्थ- (जिनेन्द्र!) हे जिनेन्द्र देव! (इह) इस संसार में (यः जनः) जो मुनष्य (मया) मेरे द्वारा (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (गुणैः) प्रसाद माधुर्य-ओज आदि गुणों से (माला के पक्ष में-डोरे से) (निबद्धाम्) रची गई (माला पक्ष में-गूंथी हुई) (रूचिरवर्ण विचित्रपुष्पाम्) मनोहर अक्षर ही हैं विचित्र फूल जिसमें ऐसी (माला पक्ष में-अच्छे रंग वाले कई तरह के फूलों के सहित) (तव) आपको (स्तोत्र-स्त्रजम्) स्तुतिरूप-माला को (अजस्त्रम्) हमेशा (कण्ठगताम् धत्ते) याद करता है (मालापक्ष में- गले में पहिनता है) (तम्) उस (मानतुंगम्) सम्मान से उन्नत पुरूष (अथवा स्तोत्र के रचने वाले मानतुंग आचार्य) को (लक्ष्मीः) स्वर्गमोक्षादि की विभूति (अवश सती) स्वतन्त्र होती हुई (समुपैति) प्राप्त होती है।
भावार्थ- हे नाथ! जो मुनष्य निरन्तर आपके स्तोत्र का पाठ करता है उसे हर प्रकार की बाह्य लक्ष्मी तो प्राप्त होती ही है, किन्तु मोक्ष लक्ष्मी भी उसके वश में हो जाती है।
प्रश्न - 1 कण्ठ की शोभा किससे है?
उत्तर - जिन गुणरूपी माला से कंठ की शोभा होती है।
प्रश्न - 2 जिन गुणरूपी माला को धारण करने का माहात्म्य बताइये?
उत्तर - जो जिनगुणरूपी माला को अपने कण्ठ में धारण करता है उसे मोक्ष लक्ष्मी वरण करती है अर्थात वह मुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करता हैं जो इस स्तोत्र को कंठस्थ करता है वह मुक्ति को प्राप्त करता है।