।। सिंह-भय-विदूरण ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः।
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते।।39।।
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अन्वयार्थ- (भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषित-भूमिभागः) विदारे हुए हाथी के, गण्डस्थल से गिरते हुए उज्ज्वल तथा खून से भीगे हुए मोतियों के समूह के द्वाारा भूषित किया है पृथ्वी का भाग जिसने ऐसा तथा (बद्धक्रमः) छलांग मारने के लिए तैयार (हरिणाधिपः अपि) सिंह भी (क्रमगतम्) अपने पांवों के बीच आये हुए (ते) आपके (क्रमयुगाचलसंश्रितम्) चरण-युगल रूप पर्वत का आश्रय लेने वाले पुरूष पर (न आक्रामति) आक्रमण नहीं करता।

भावार्थ- हे प्रभो! जो आपकी शरण लेता हे, सिंह उसका कुछ बिगड़ नहीं कर सकता। अर्थात् उस पर आक्रमण नहीं कर पाता।