।। अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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इत्थं यथा तव विभूतिर भूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य।
यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा,
तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि।।37।।
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अन्वयार्थ- (जिनेन्द्र) हे जिनदेव! (इत्थं) इस प्रकार (धर्मोपदेशनविधौ) धर्मोंपदेश के कार्य में (यथा) जैसी (तव) आपकी (विभूतिः) विभूति (अभूत्) हुई थी (प्रहतान्धकारा) अन्धकारा को नष्ट करने वाली (यादृक्) जैसी (प्रभा) कांति (दिनकृतः) सूर्य को (‘भवति) होती है। (तादृक्) वैसी (विकाशिनः अपि) प्रकाशमान भी (ग्रहगणस्य) अन्य ग्रहों की (कुतः) कहां से हो सकती है? अर्थात् नहीं हो सकती।

भावार्थ-हे प्रभो! धर्मोपदेश के विषय में समवशरणादि रूप जैसी विभूति आपको प्राप्त हुई थी वैसी विभूति अन्य देवताओं को प्राप्त नहीं हुई थी। सो ठीक ही है, क्या कभी सूर्य जैसी कांति आदि शुक्र ग्रहों से भी प्राप्त हो सकती है? अर्थात् नहीं हो सकती है।

प्रश्न - समवशरण आदि कौन-कौन सी विभूति आदिनाथ भगवान् को प्राप्त हुई थी।

उत्तर- आदिनाथ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अंतरंग और बहिरंग विभूतियां प्राप्त हो गयी थीं।

अन्तरंग विभूति-अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य।

बहिरंग विभूति- समवशरण। समवशरण में सात भूमियां होती हैं, बाहर सभाएं होती हैं जिनमें अरहंत भगवान् का उपदेश सुनने के लिए चारों प्रकार के देव-देवियां, मनुष्य, तिर्यंच, मुनि, आर्यिका और श्रावक-श्राविकाएं बैठते हैं।